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जी हां, प्रधानमन्‍त्री महोदय! हम समृद्धि पैदा करने वाले लोगों का सम्‍मान करते हैं! लेकिन ये आपके पूंजीपति मित्र नहीं हैं!

अपने इस भाषण में प्रधानमन्‍त्री महोदय देश में अमीरों के प्रति बढ़ते गुस्‍से से काफ़ी चिन्तित दिखे! उन्‍हें लग रहा था कि मन्‍दी के कारण रोज़गार से खदेड़े जा रहे मज़दूर और नौजवान कहीं इसका कारण अमीर पूंजीपतियों को न समझ बैठें! ये बेचारे पूंजीपति तो खुद ही गिरते मुनाफ़े से बिलबिला रहे हैं और उन चूंटों-माटों की तरह भगदड़ मचाये हुए हैं, जिन पर गर्म तेल गिर गया हो! ऊपर से हम निकम्‍मे-नाकारे और बेग़ैरत ग़रीब लोग! इन्‍हीं ”मेहनती” अमीर पूंजीपतियों पर, इन ”समृद्धि पैदा करने वालों” पर त्‍यौरियां चढ़ा रहे हैं? बड़े निर्लज्‍ज किस्‍म के कृतघ्‍न लोग हैं हम लोग!

श्‍यामसुन्‍दर का जवाब: बौद्धिक दीवालियापन, बेईमानी, कठदलीली और कठमुल्‍लावाद का नया पुलिन्‍दा

किसी चिन्‍तक ने एक बार कहा था कि बहस का मक़सद हार या जीत नहीं होता है, बल्कि विचारों को विकसित करना होता है। जब आप बहस को अपनी कोर बचाने के मक़सद से करते हैं, तो आपको अपने एक कुतर्क को छिपाने के लिए दर्जनों कुतर्क गढ़ने पड़ते हैं, झूठ बोलने पड़ते हैं, बातें बदलनी पड़ती हैं और कठदलीली करनी पड़ती है। यह प्रक्रिया आगे बढ़़कर बौद्धिक बेईमानी में भी तब्‍दील हो जाती है। श्‍यामसुन्‍दर ने चार माह बाद जो 120 पेज का खर्रा लिखकर दिया है, उससे यही बातें साबित हुई हैं

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : भारतीय फ़ासीवादियों की असली जन्मकुण्डली

आरएसएस ने भी खुले तौर पर जर्मनी में नात्सियों द्वारा यहूदियों के क़त्लेआम का समर्थन किया। हेडगेवार ने मृत्यु से पहले गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘वी, ऑर अवर नेशनहुड डिफ़ाइण्ड’ और बाद में प्रकाशित हुई ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ में जर्मनी में नात्सियों द्वारा उठाये गये क़दमों का अनुमोदन किया था। गोलवलकर आरएसएस के लोगों के लिए सर्वाधिक पूजनीय सरसंघचालक थे। उन्हें आदर से संघ के लोग ‘गुरुजी’ कहते थे। गोलवलकर ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में मेडिकल की पढ़ाई की और उसके बाद कुछ समय के लिए वहाँ पढ़ाया भी। इसी समय उन्हें ‘गुरुजी’ नाम मिला। हेडगेवार के कहने पर गोलवलकर ने संघ की सदस्यता ली और कुछ समय तक संघ में काम किया। अपने धार्मिक रुझान के कारण गोलवलकर कुछ समय के लिए आरएसएस से चले गये और किसी गुरु के मातहत संन्यास रखा। इसके बाद 1939 के क़रीब गोलवलकर फिर से आरएसएस में वापस आये। इस समय तक हेडगेवार अपनी मृत्युशैया पर थे और उन्होंने गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। 1940 से लेकर 1973 तक गोलवलकर आरएसएस के सुप्रीमो रहे।

शासक वर्गों द्वारा मेहनतकशों की जातिगत गोलबन्दी का विरोध करो! अपने असली दुश्मन को पहचानो!

महाराष्ट्र में आज जो मराठा उभार हो रहा है, उसके मूल कारण तो मराठा ग़रीब आबादी में बेरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी और असुरक्षा है; लेकिन मराठा शासक वर्गों ने इसे दलित-विरोधी रुख़ देने का प्रयास किया है। इस साज़िश को समझने की ज़रूरत है। इस साज़िश का जवाब अस्मितावादी राजनीति और जातिगत गोलबन्दी नहीं है। इसका जवाब वर्ग संघर्ष और वर्गीय गोलबन्दी है। इस साज़िश को बेनक़ाब करना होगा और सभी जातियों के बेरोज़गार, ग़रीब और मेहनतकश तबक़ों को गोलबन्द और संगठित करना होगा।

पश्चलेख – फासीवाद क्या है और इससे कैसे लड़ें?

जिन राजनीतिक ताक़तों और सामाजिक वर्गों को हम फासीवाद-विरोधी मज़दूर वर्ग के संयुक्त मोर्चे में शामिल करने की बात कर रहे हैं, वह आज समाज की भारी बहुसंख्या है। लेकिन इस बहुसंख्या को गोलबन्द और संगठित करने के लिए महज़ फासीवाद के इतिहास या उसकी सैद्धान्तिक परिभाषा को समझ लेना पर्याप्त नहीं होगा। हमें यह भी समझना होगा कि बीसवीं सदी में फासीवादी उभार की परिघटना आज इक्कीसवीं सदी में हूबहू दुहरायी नहीं जाने वाली है। फासीवादी उभार की विचारधारा और राजनीति में विश्व पूँजीवादी व्यवस्था और उसके संकट के चरित्र में आने वाले बदलावों के साथ जो बदलाव आये हैं, उन्हें समझना आज अनिवार्य है। इसके बिना, फासीवाद के प्रतिरोध के लिए मज़दूर वर्ग का क्रान्तिकारी आन्दोलन कोई रणनीति नहीं बना सकता है।

हम हार नहीं मानेंगे! हम लड़ना नहीं छोड़ेंगे!

आम आदमी’ की जुमलेबाजी सिर्फ कांग्रेस और भाजपा से लोगों के पूर्ण मोहभंग से पैदा हुए अवसर का लाभ उठाने के लिए थी। चुनावों होने तक यह जुमलेबाजी उपयोगी थी। जैसे ही लोगों ने ‘आप’ के पक्ष में वोट दिया, किसी विकल्प के अभाव में, अरविंद केजरीवाल का असली कुरूप फासिस्ट चेहरा सामने आ गया।

मारुति सुज़ुकी मज़दूर आन्दोलन के इस निर्णायक चरण में आगे बढ़ने के लिए भीतर मौजूद विजातीय रुझानों और विघटनकारी ताक़तों से छुटकारा पाना होगा

ऐसे संगठनों से हमें सावधान रहना चाहिए, जो खुलकर सभी आन्दोलनरत साथियों के बीच अपने विचार नहीं रखते; यह नहीं बताते कि संघर्ष के आगे का रास्ता क्या हो; सभी मज़दूरों के बीच खुलकर अपनी बात रखने की बजाय यूनियन नेतृत्व को बन्द कमरों में कानाफूसी के ज़रिये अपने प्रभाव में लाने का प्रयास करते हैं; आन्दोलन में सक्रिय ईमानदार संगठनों (जो कि हमेशा पूरी ताक़त के साथ आपके आन्दोलन में उपस्थित हुए हैं) के ख़िलाफ़ कुत्साप्रचार करते हैं; अपनी राजनीतिक सोच और योजना के आधार पर बात करने की बजाय, दाढ़ी और नकली ज्ञान दिखाकर अपनी सोच को स्थापित करना चाहते हैं; और साथ ही, मज़दूर आन्दोलन के भीतर ‘लाइम लाइट’ में आने की मानसिकता को बढ़ावा देकर आन्दोलन को नुकसान पहुँचाते हैं।

मारुति मज़दूरों के आन्दोलन को जीत के लिए अपनी ताक़त पर भरोसा करना ही होगा!

अन्त में, हम एक बार फिर इस बात पर ज़ोर देना चाहेंगे कि मारुति सुज़ुकी वर्कर्स यूनियन और सभी आन्दोलनरत साथियों को अपनी ताक़त पर भरोसा करना चाहिए। किसी बड़ी केन्द्रीय ट्रेड यूनियन के नेतृत्व, जिसकी पुलिस अधिकारियों और नेताओं-मन्त्रियों तक पहुँच है, उनके दाँव-पेंच से आज तक कोई भी संघर्ष नहीं जीता गया है। संघर्ष मज़दूरों ने हमेशा अपनी ताक़त पर भरोसा करके जीता है। इस संघर्ष को विद्वान व्यक्तियों द्वारा कानाफूसी करके दी जाने वाली सलाहों से भी नहीं जीता जा सकता है। जिसके पास संघर्ष का वाकई कोई रास्ता होता है, और वह उस पर भरोसा करता है, वह अपनी बात को पूरे ज़ोर के साथ सदन और सभा के बीच कहता है। बन्द कमरों में कानों के भीतर खुसफुसाता नहीं है। इसलिए ऐसे विद्वान लोगों से भी सावधान रहना चाहिए। एम.एस.डब्ल्यू.यू. और इस पूरे आन्दोलन को अपनी ताक़त पर भरोसा करते हुए अपने डेरे के लिए मारुति सुज़ुकी के सभी बर्ख़ास्‍त मज़दूरों और गिरफ़्तार मज़दूरों के परिवारों को गोलबन्द करना चाहिए और एक जगह अंगद की तरह पाँव जमा देना चाहिए। वह जगह कौन-सी हो, हरियाणा या दिल्ली, इसका फैसला भी जनरल बॉडी में जनवादी और पारदर्शी तरीक़े से होना चाहिए। अगर मारुति सुज़ुकी के आन्दोलनरत मज़दूर अपनी ताक़त पर भरोसा करते हुए सही जगह सही वक़्त पर खूँटा गाड़ देंगे, तो केन्द्रीय ट्रेड यूनियन से लेकर सभी ताक़तें खींझकर अन्ततः आपके साथ खड़ी होंगी। आपको यह समझना चाहिए कि वह आपके विरुद्ध नहीं जा सकती हैं, या तो वे तटस्थ होंगी या आपके साथ आयेंगी। अभी भी तो उनकी भूमिका कोई बहुत अलग नहीं है! ऐसे में, अगर आप निर्णायक संघर्ष का रास्ता चुनते हैं और एक जगह डेरा डालकर अपना सत्याग्रह शुरू कर देते हैं, तो इससे आप खोने क्या जा रहे हैं? कुछ भी नहीं! इसलिए अपनी ताक़त पर भरोसा करने की ज़रूरत है और आगे बढ़ने की ज़रूरत है।

मारुति सुज़ुकी मज़दूरों का आन्दोलन इलाक़ाई मज़दूर उभार की दिशा में

इन तात्कालिक और ठोस माँगों को रखने के साथ ही हमें समस्त ऑटोमोबाइल मज़दूरों के साझा माँगपत्रक को भी सरकार और प्रशासन के सामने रखना होगा। यह गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा- बावल के समस्त मज़दूरों के बीच एक दीर्घकालिक इलाक़ाई वर्ग एकजुटता का बीज डालेगा। इस बीज के अंकुरण और इसके एक शक्तिशाली वृक्ष में तब्दील होने में समय लग सकता है। लेकिन हमें इसकी शुरुआत आज ही करनी होगी, हमें बीज आज ही डालना होगा। यह न सिर्फ आज के जारी संघर्ष को जीतने के लिए ज़रूरी है बल्कि भविष्य में इस पूरी औद्योगिक पट्टी के सभी भावी संघर्षों के लिए ज़रूरी है। सन् 2000 में मारुति के निजीकरण की शुरुआत के साथ ही इस पूरी औद्योगिक पट्टी में मज़दूर आन्दोलनों की एक श्रृंखला शुरू हुई है जो होण्डा, रिको, ओरियेण्ट क्राफ़्ट के संघर्षों से होते हुए आज मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों के संघर्ष तक पहुँच चुकी है। इस एक दशक से जारी संघर्ष के अनुभवों का निचोड़ हमें क्या बताता है? हमें दो औज़ारों की ज़रूरत है-पहला, इलाक़ाई मज़दूर वर्ग एकजुटता और इलाक़ाई मज़दूर उभार, और दूसरा, एक सूझबूझ वाला क्रान्तिकारी राजनीतिक नेतृत्व।

मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी और मार्क्‍सवाद को विकृत करने का गन्दा, नंगा और बेशर्म संशोधनवादी दस्तावेज़

इन सभी प्रयासों के बावजूद अगर माकपा के इस दस्तावेज़ को कोई आम व्यक्ति भी पंक्तियों के बीच ध्यान देते हुए पढ़े तो माकपा की मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी, उसका पूँजीपति वर्ग के हाथों बिकना, उसका बेहूदे क़िस्म का संशोधनवाद और ‘भारतीय क़िस्म के समाजवाद’ के नाम पर भारतीय क़िस्म के पूँजीवाद के लक्ष्य को प्राप्त करने का उसका शर्मनाक इरादा निपट नंगा हो जाता है! इस दस्तावेज़ में माकपा के घाघ संशोधनवादी सड़क पर निपट नंगे भाग चले हैं। मज़दूर वर्ग के इन ग़द्दारों की असलियत को हमें हर जगह बेनक़ाब करना होगा! ये हमारे सबसे ख़तरनाक दुश्मन हैं। इन्हें नेस्तनाबूत किये बग़ैर देश में मज़दूर वर्ग का क्रान्तिकारी राजनीतिक आन्दोलन आगे नहीं बढ़ पायेगा!