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पूँजीवादी किसान, पूँजीवादी ज़मींदार, आढ़तिये, व्यापारी और बिचौलिये किस तरह गाँव के ग़रीबों को लूटते हैं?

हमारे देश में क़रीब 25 करोड़ लोग खेती में लगे हैं। इसमें से क़रीब 14.5 करोड़ खेतिहर मज़दूर हैं और 10.5 करोड़ किसान हैं। लेकिन किसान कोई एक वर्ग नहीं होता है। धनी किसान होते हैं, उच्च मध्यम किसान, मध्य मध्यम किसान, निम्न मध्यम किसान होते हैं और ग़रीब व सीमान्त किसान होते हैं।

कौन हैं देविन्दर शर्मा और उनका “अर्थशास्त्र” और राजनीति किन वर्गों की सेवा करती है?

कोई भी संजीदा कम्युनिस्ट मौजूदा धनी किसान आन्दोलन की माँगों (मूलत: लाभकारी मूल्य की माँग) का समर्थन नहीं कर सकता है, क्योंकि पिछले कई दशकों के दौरान मार्क्सवादी और ग़ैर-मार्क्सवादी अध्येता यह दिखला चुके हैं कि लाभकारी मूल्य की पूरी व्यवस्था ग़रीब-विरोधी है और शुद्धत: धनी किसानों को राजकीय हस्तक्षेप द्वारा व्यापक मेहनतकश ग़रीब जनता की क़ीमत पर दिया जाने वाला बेशी मुनाफ़ा व लगान है।

क्या सारे किसानों के हित और माँगें एक हैं?

जब तक सामन्तवाद था और सामन्ती भूस्वामी वर्ग था, तब तक धनी किसान, उच्च मध्यम किसान, निम्न मध्यम किसान, ग़रीब किसान व खेतिहर मज़दूर का एक साझा दुश्मन था। आज निम्न मँझोले किसानों, ग़रीब किसानों व खेतिहर मज़दूरों के वर्ग का प्रमुख शोषक और उत्पीड़क कौन है? वे हैं गाँव के पूँजीवादी भूस्वामी, पूँजीवादी फ़ार्मर, सूदखोर और आढ़तियों-बिचौलियों का पूरा वर्ग। इस शोषक वर्ग की माँगें और हित बिल्कुल अलग हैं और गाँव के ग़रीबों की माँगें और हित बिल्कुल भिन्न हैं।

मौजूदा किसान आन्दोलन और लाभकारी मूल्य का सवाल

किसान आन्दोलन को चलते हुए अब क़रीब डेढ़ महीना बीत चुका है। हज़ारों किसान दिल्ली के बॉर्डरों पर इकट्ठा हैं। हम मज़दूरों और मेहनतकशों को जानना चाहिए कि इस आन्दोलन की माँगें क्या हैं। केवल तभी हम यह तय कर सकते हैं कि हमारा इसके प्रति क्या रवैया हो। हम मज़दूरों और मेहनतकशों के लिए सरकार के उन तीन कृषि क़ानूनों का क्या अर्थ है, जिनके ख़िलाफ़ यह आन्दोलन जारी है? हमारे लिए यह समझना भी ज़रूरी है, क्योंकि तभी हम इन तीन क़ानूनों को अलग-अलग समझ सकते हैं और आन्दोलन के प्रति अपना रुख़ तय कर सकते हैं।

भारत के नव-नरोदवादी “कम्युनिस्टों” और क़ौमवादी “मार्क्सवादियों” को फ़्रेडरिक एंगेल्स आज क्या बता सकते हैं?

28 नवम्बर 1820 को सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षक और कार्ल मार्क्स के अनन्य मित्र फ़्रेडरिक एंगेल्स का जन्म हुआ था। द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद और वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धान्तों का कार्ल मार्क्स के साथ विकास करने वाले हमारे इस महान नेता ने पहले कार्ल मार्क्स के साथ और 1883 में मार्क्स की मृत्यु के बाद 1895 तक विश्व सर्वहारा आन्दोलन को नेतृत्व दिया। मार्क्सवाद के सार्वभौमिक सिद्धान्तों को स्थापित करने के अलावा इन सिद्धान्तों की रोशनी में उन्होंने इतिहास, विचारधारा, एंथ्रोपॉलजी और प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे शोध-कार्य किये, जिन्‍हें पढ़ना आज भी इस क्षेत्र के विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य और अपरिहार्य है।

कृषि अध्‍यादेशों का विरोध मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसान वर्ग किस ज़मीन से करेगा?

हमारे देश में क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन आज एक संकट का शिकार है। देश में फ़ासीवादी उभार और दुनिया भर में किसी समाजवादी शिविर की ग़ैर-मौजूदगी के कारण आज के दौर में उन क्रान्तिकारियों के पास उत्‍साह के स्रोतों का अभाव है, जो विज्ञान की समझ और उस पर भरोसे से अपने आशावाद को ग्रहण करते, बल्कि ठोस मिसालों, घटनाओं या नेताओं की मौजूदगी से अपने आशावाद को पालते-पोसते हैं। आज की दुनिया में उनके पास ऐसी कोई ठोस मिसाल नहीं है। नतीजतन, वे अपने आशावाद के लिए हर प्रकार के अवांछनीय स्रोतों पर जाते हैं। कुछ मिसालों से समझिए।

कृषि-सम्‍बन्‍धी तीन अध्‍यादेश, मौजूदा किसान आन्‍दोलन और मज़दूर वर्ग

मौजूदा लेख में हम विस्‍तार से चर्चा करेंगे कि इन कृषि-सम्‍बन्‍धी अध्‍यादेशों से किन्‍हें लाभ होगा, किन्‍हें नुक़सान होगा, मौजूदा किसान आन्‍दोलन का वर्ग चरित्र क्‍या है, और क्‍या मज़दूर वर्ग इन अध्‍यादेशों के मज़दूर व ग़रीब-विरोधी प्रावधानों का विरोध गाँव के पूँजीपति वर्ग, यानी धनी किसानों व कुलकों के मंच से कर सकता है?

हमारे आन्‍दोलन को संविधान-रक्षा के नारे और स्‍वत:स्‍फूर्ततावाद से आगे, बहुत आगे, जाने की ज़रूरत क्‍यों है?

1970 के दशक के बाद के प्रचण्‍ड जनान्‍दोलन के बाद नागरिकता संशोधन कानून, राष्‍ट्रीय नागरिकता रजिस्‍टर, व राष्‍ट्रीय जनसंख्‍या रजिस्‍टर के खिलाफ देश भर में खड़ा हुआ आन्‍दोलन सम्‍भवत: सबसे बड़ा आन्‍दोलन है। अगर अभी इस पहलू को छोड़ दें कि इन दोनों ही आन्‍दोलनों में क्रान्तिकारी नेतृत्‍व की समस्‍या का समाधान नहीं हो सका था, तो भी यह स्‍पष्‍ट है कि क्रान्तिकारी राजनीतिक नेतृत्‍व के उभरने की सूरत में इन आन्‍दोलन में ज़बर्दस्‍त क्रान्तिकारी जनवादी और प्रगतिशील सम्‍भावनासम्‍पन्‍नता होगी। 1970 के दशक के आन्‍दोलन में एक सशक्‍त क्रान्तिकारी धारा के मौजूद होने के बावजूद, क्रान्तिकारी शक्तियां ग़लत कार्यक्रम, रणनीति और आम रणकौशल के कारण आन्‍दोलन के नेतृत्‍व को अपने हाथों में नहीं ले सकीं थीं और नेतृत्‍व और पहलकदमी जयप्रकाश नारायण के हाथों में चली गयी, जिसने इस जनउभार में अभिव्‍यक्‍त हो रहे क्रान्तिकारी गुस्‍से और जनअसन्‍तोष को मौजूदा व्‍यवस्‍था के दायरे के भीतर ही सीमित कर दिया, हालांकि काफी आमूलगामी जुमलों का शोर पैदा करते हुए। यानी वही काम जो प्रेशर कुकर में सेफ्टी वॉल्‍व करता है।

दिल्‍ली विधानसभा चुनाव 2020 में फिर से आम आदमी पार्टी की जीत के मायने: एक मज़दूर वर्गीय नज़रिया

जिन्‍होंने भी केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के पूरे चुनाव अभियान को क़रीबी से देखा है, वह अच्‍छी तरह जानते हैं कि भाजपा के हिन्‍दुत्‍ववादी फ़ासीवाद के एजेण्‍डे के बरक्‍स, अरविन्‍द केजरीवाल ने कोई सही मायनों में सेक्‍युलर, जनवादी और प्रगतिशील एजेण्‍डा नहीं रखा था। उल्‍टे केजरीवाल ने ‘सॉफ़्ट हिन्‍दुत्‍व’ का कार्ड खेला। अपने आपको हिन्‍दू, हनुमान-भक्‍त आदि साबित करने में केजरीवाल ने कोई कसर नहीं छोड़ी। साथ ही, कश्‍मीर में 370 हटाने पर मोदी को बधाई देने से लेकर, जामिया और जेएनयू पर हुए पुलिसिया अत्‍याचार और शाहीन बाग़ और सीएए-एनआरसी-एनपीआर जैसे सबसे ज्‍वलन्‍त और व्‍यापक मेहनतकश आबादी को प्रभावित करने वाले प्रमुख मसलों के सवाल पर चुप्‍पी साधे रहने तक, केजरीवाल और आम आदमी पार्टी ने मोदी-शाह-नीत भाजपा के कोर एजेण्‍डा से किनारा काटकर निकल लेने (सर्कमवेण्‍ट करने) की रणनीति अपनायी। तात्‍कालिक तौर पर, इस रणनीति का फ़ायदा आम आदमी पार्टी को मिला है।

कश्मीर के मुद्दे पर सोचने के लिए कुछ बेहद ज़रूरी सवाल – क्‍या किसी क़ौम को ग़ुुलाम बनाने की हिमायत करके हम आज़ाद रह सकते हैं?

सच्चे मज़दूर क्रान्तिकारियों को हर कीमत पर हर प्रकार के राष्ट्रीय दमन का विरोध करना चाहिए और दमित राष्ट्रों के संघर्षों का बिना शर्त समर्थन करना चाहिए। यदि मज़दूर वर्ग की ताक़तें ऐसा करने में असफल होती हैं और जाने या अनजाने अपने देश के पूँजीपति वर्ग के मुखर या मौन समर्थन की राष्ट्रीय व सामाजिक कट्टरपंथी अवस्थिति अपनाती हैं, तो वह अपने देश के पूँजीपति वर्ग को स्वयं अपना दमन करने का भी लाईसेंस और वैधीकरण प्रदान करती हैं। ऐसी कुछ ताक़तें भारत में भी हैं जिन्होंने 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 के रद्द होने के बाद ज़ुबान पर ताला लगा लिया है और कश्मीर के मसले पर कुछ भी बोलने से घबरा गयी हैं। ऐसे ग्रुपों व संगठनों को कल इतिहास के कठघरे में खड़ा होकर एक असम्भव सफाई देने का प्रयास करना पड़ेगा। आज हमें धारा के विरुद्ध तैरते हुए कश्मीरी जनता के राष्ट्रीय दमन का विरोध करना होगा और उनके जनवादी हक़ों के संघर्ष का समर्थन करना होगा। केवल तभी हम फासीवादी मोदी सरकार और पूँजीवादी राज्यसत्ता को अन्धराष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता की आँधी चलाकर हर प्रकार के प्रतिरोध व आन्दोलन को कुचलने को सही ठहराने से रोक सकते हैं, उसके सामने एक क्रान्तिकारी चुनौती पेश कर सकते हैं।