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दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार के विभिन्न इलाक़ों में चुनावी राजनीति का भण्डाफोड़ अभियान

अभियान के दौरान कार्यकर्ताओं की टोलियाँ पिछले 62 वर्ष से जारी चुनावी तमाशे का पर्दाफ़ाश करते हुए बड़े पैमाने पर बाँटे जा रहे विभिन्न पर्चों, नुक्कड़ सभाओं, कार्टूनों और पोस्टरों की प्रदर्शनियों तथा नुक्कड़ नाटकों के ज़रिये लोगों को बता रही हैं कि दुनिया के सबसे अधिक कुपोषितों, अशिक्षितों व बेरोज़गारों वाले हमारे देश में कुपोषण, बेरोज़गारी, महँगाई, मज़दूरों का भयंकर शोषण या भुखमरी कोई मुद्दा ही नहीं है! आज विश्व पूँजीवादी व्यवस्था गहराते आर्थिक संकट तले कराह रही है। ऐसे में किसी पार्टी के पास जनता को लुभाने के लिए कोई ठोस मुद्दा नहीं है। सब जानते हैं कि सत्ता में आने के बाद उन्हें जनता को बुरी तरह निचोड़कर अपने देशी-विदेशी पूँजीपति आकाओं के संकट को हल करने में अपनी सेवा देनी है। सभी पार्टियों में अपने आपको पूँजीपतियों का सबसे वफ़ादार सेवक साबित करने की होड़ मची हुई है।

पीड़ा के समुद्र और भ्रम के जाल में पीरागढ़ी के मज़दूर

जूते-चप्पल की इन फैक्‍टरियों में ज्यादातर काम ठेके पर होता है। मालिक किसी भी तरह की मुसीबत से बचने के लिए और बैठे-बैठे आराम से मुनाफ़ा कमाने के लिए काम को ठेके पर दे देता है। जूते-चप्पल के काम में अलग-अलग काम के लिए अलग-अलग ठेकेदार को ठेका दिया जाता है। जैसे जूते की सिलाई के लिए एक या दो ठेकेदार को दे दिया गया, जूता से तल्ला (shole) चिपकाने के लिए भी कई ठेकेदार या एक ही ठेकेदार को उसके बाद पैकिंग के लिए भी एक या दो ठेकेदार को काम दे दिया जाता है। इसके अलावा अगर जूता या चप्पल में पेंटिग का काम है तो इस काम को भी एक पेंटिग के ठेकेदार को ठेके पर दे दिया जाता है। इन ठेकेदार से मालिक एक जोड़ी चप्पल या जूता सिलाई या पैकिंग का रेट तय करता है। अधिकांश फैक्टरियों में पुरूष मज़दूर (हेल्पर) को आठ घण्टे के लिए 3800 से 4500 रूपये मिलते है, महिला मज़दूर (हेल्पर) को 3000 से 3500 रूपये मिलते है और अर्द्धकुशल मज़दूर को 5000 से 6000 रूपया प्रति माह मिलता है जो कि दिल्ली सरकार द्वारा तय न्यूनतम वेतन का लगभग आधा है। इसके अलावा ठेकेदार जिस रेट से काम मालिक से लेता है उससे कम रेट पर अपने अर्द्धकुशल कारीगर से पीस रेट पर काम करवाता है। ठेकेदार ज्यादातर अपने गांव , क्षेत्र, धर्म के आदमी को साथ रखता है ताकि मज़दूरों को ‘अपना आदमी’ का भ्रम रहे। मज़दूर सोचता है कि ठेकेदार अपने क्षेत्र, धर्म का या रिश्तेदार है और जो मिल रहा है उसे रख लिया जाय। जबकि ठेकेदार ‘अपने’ क्षेत्र या धर्म के मज़दूर के सर पर बैठकर काम करवाता है, मज़दूरों की कम चेतना का फायदा उठता है उनसे अश्लील बातें करता है और किसी दिन कुछ खिला-पिला देता है। इन सबके बीच मज़दूर अपने हक अधिकार को भूल जाता है जिसका फायदा मालिक और ठेकेदार को ही होता है।

पीरागढ़ी अग्निकाण्ड : एक और हादसा या एक और हत्याकाण्ड?

दो महीने का समय बीत चुका है लेकिन आज भी किसी को यह तक नहीं मालूम कि बुधवार की उस शाम को लगी आग ने कितनी ज़िन्दगियों को लील लिया। पुलिस ने आनन-फानन में जाँच करके घोषणा कर दी कि कुल 10 मज़दूर जलकर मरे हैं, न एक कम, न एक ज़्यादा। बने-अधबने जूतों, पीवीसी, प्लास्टिक और गत्तो के डिब्बों से ठसाठस भरी तीन मंज़िला इमारत के जले हुए मलबे और केमिकल जलने से काली लिसलिसी राख को ठीक से जाँचने की भी ज़रूरत नहीं समझी गयी। मंगोलपुरी के संजय गाँधी अस्पताल के पोस्टमार्टम गृह के कर्मचारी कहते हैं कि उस रात कम से कम 12 बुरी तरह जली लाशें उनके पास आयी थीं। आसपास के लोग, मज़दूरों के रिश्तेदार, इलाक़े की फैक्ट्रियों के सिक्योरिटी गार्ड आदि कहते हैं कि मरने वालों की तादाद 60 से लेकर 75 के बीच कुछ भी हो सकती है। पास का चायवाला जो रोज़ फैक्टरी में चाय पहुँचाता था, बताता है कि आग लगने से कुछ देर पहले वह बिल्डिंग में 80 चाय देकर आया था। सभी बताते हैं कि आग लगने के बाद कोई भी वहाँ से ज़िन्दा बाहर नहीं निकला। कुछ लोगों ने एक लड़के को छत से कूदते देखा था लेकिन उसका भी कुछ पता नहीं चला। फिर बाकी लोग कहाँ गये? क्या सारे के सारे लोग झूठ बोल रहे हैं? या दिल्ली पुलिस हमेशा की तरह मौत के व्यापारियों को बचाने के लिए आँखें बन्द किये हुए है?