Tag Archives: शिवानी

कोयला ख़ान मज़दूरों के साथ केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की घृणित ग़द्दारी

इस हड़ताल का चर्चा में रहने का वास्तविक कारण तो महज़ एक होना चाहिए – और वह है एक दफ़ा फिर केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा मज़दूरों के साथ ग़द्दारी करना और पूँजीपतियों एवं कारपोरेट घरानों की चाकरी करनेवाली मोदी सरकार के आगे घुटने टेक देना

भ्रष्टाचार-मुक्त सन्त पूँजीवाद के भ्रम को फैलाने का बेहद बचकाना और मज़ाकिया प्रयास

जब-जब पूँजीवादी व्यवस्था अपनी नंगई और बेशरमी की हदों का अतिक्रमण करती हैं, तो उसे केजरीवाल और अण्णा हज़ारे जैसे लोगों की ज़रूरत होती है, तो ज़ोर-ज़ोर से खूब गरम दिखने वाली बातें करते हैं, और इस प्रक्रिया में उस मूल चीज़ को सवालों के दायरे से बाहर कर देते हैं, जिस पर वास्तव में सवाल उठाया जाना चाहिए। यानी कि पूरी पूँजीवादी व्यवस्था। आम आदमी पार्टी का घोषणापत्र भी यही काम करता है। यह मार्क्स की उसी उक्ति को सत्यापित करता है जो उन्होंने ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ में कही थी। मार्क्स ने लिखा था कि पूँजीपति वर्ग का एक हिस्सा हमेशा समाज में सुधार और धर्मार्थ कार्य करता है, ताकि पूँजीवादी व्यवस्था बरक़रार रहे।

अफ़ज़ल गुरू को फाँसी: बुर्जुआ “राष्‍ट्र” के सामूहिक अन्तःकरण की तुष्टि के लिए न्याय को तिलांजलि

अफ़ज़ल गुरू की फाँसी बुर्जुआ चुनावी राजनीति के सरोकारों के तहत लिया गया एक राजनीतिक फ़ैसला है। बुर्जुआ राज्यसत्ता का पतनशील चरित्र अब इस हद तक गिर चुका है, कि वह अपने चुनावी फायदों के लिए फाँसी की राजनीति कर रही है, ताकि फ़ासीवादी तरीके से भारतीय मध्यवर्गीय जनमानस, या “राष्ट्रीय” जनमानस, को अपने पक्ष में तैयार किया जा सके। इसके ज़रिये एक तीर से कई निशाने लगाये जा रहे हैं। जिस समय देश भर में आम मेहनतकश जनता में महँगाई, ग़रीबी, भ्रष्टाचार आदि के ख़िलाफ़ और भारतीय शासक वर्गों के ख़िलाफ़ गुस्सा भड़क रहा है, उस समय अन्धराष्ट्रवाद, साम्प्रदायिक फ़ासीवाद और देशभक्ति के मसलों को उठाकर असली मुद्दों को ही विस्थापित कर दिया जाये-यही भारतीय शासक वर्ग की रणनीति है। यही काम भाजपा राम मन्दिर और हिन्दुत्व का मसला भड़काकर अपने तरीके से कर रही है, और कांग्रेस फाँसी की राजनीति करते हुए अपने तरीके से कर रही है। अफ़ज़ल गुरू की फाँसी इसी बात की एक बानगी थी।

जॉन रीड : कम्युनिज्‍़म के लक्ष्य को समर्पित बुद्धिजीवी

अक्‍टूबर क्रान्ति ने रीड के जीवन पर अमिट छाप छोड़ी। अमेरिका वापस लौटने पर रीड पूरी तरह से समाजवाद के प्रचार-प्रसार में जुट गये। इसी उद्देश्य से 1919 में बनी ‘कम्युनिस्ट लेबर पार्टी’ की स्थापना में रीड ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। 1919 के बाद लिखे गये तमाम लेखों में रीड ने सर्वहारा अधिनायकत्व की पुरज़ोर वक़ालत और हिफ़ाज़त की। लेकिन रीड अपने इन प्रयासों को और आगे बढ़ाते, इससे पहले ही 17 अक्‍टूबर 1920 को टाइफ़स बुख़ार के कारण उनकी मृत्यु हो गयी। अत्यधिक परिश्रम के कारण पहले ही उनका शरीर काफ़ी कमज़ोर हो चुका था। मृत्यु के बाद रीड को मास्को के लाल चौक में क्रेमलिन की दीवार के साये में दफ़नाया गया। रीड इस सम्मान के सर्वथा योग्य थे। वे केवल एक जनपक्षधर पत्रकार नहीं थे। वे एक कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे जिन्होंने अपना पूरा जीवन समाजवाद के लक्ष्य को समर्पित किया।

मज़दूर वर्ग और समाजवाद को समर्पित एक सच्चा बुद्धिजीवी: जॉर्ज थॉमसन

एक सच्चे कम्युनिस्ट योद्धा की तरह जॉर्ज थॉमसन अपनी आख़िरी साँस तक वर्ग युद्ध के मोर्चे पर डटे रहे। एक सच्चा क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी कैसा होना चाहिए, जॉर्ज थॉमसन इसकी मिसाल ताउम्र पेश करते रहे। वे सच्चे मायनों में जनता के आदमी थे। बौद्धिक प्रतिभा के इतने धनी होते हुए भी उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी संघर्षों को समर्पित कर दिया। उनके हर संघर्ष में उनकी पत्नी एक सच्चे जीवन साथी की तरह उनके साथ क़दम-से-क़दम मिलाकर चलती रहीं। 1987 में 84 वर्ष की उम्र में जॉर्ज थॉमसन ने दुनिया को अलविदा कहा। ऐसे सच्चे क्रान्तिकारी को हमारा क्रान्तिकारी सलाम!

लक्ष्मीनगर हादसा : पूँजीवादी मशीनरी की बलि चढ़े ग़रीब मज़दूर

मुनाफा! हर हाल में! हर कीमत पर! मानव जीवन की कीमत पर। नैतिकता की कीमत पर। नियमों और कानूनों की कीमत पर। यही मूल मन्त्र है इस मुनाफाख़ोर आदमख़ोर व्यवस्था के जीवित रहने का। इसलिए अपने आपको ज़िन्दा बचाये रखने के लिए यह व्यवस्था रोज़ बेगुनाह लोगों और मासूम बच्चों की बलि चढ़ाती है। इस बार इसने निशाना बनाया पूर्वी दिल्ली के लक्ष्मीनगर के ललिता पार्क स्थित उस पाँच मंज़िला इमारत में रहने वाले ग़रीब मज़दूर परिवारों को जो देश के अलग-अलग हिस्सों से काम की तलाश में दिल्ली आये थे।

स्त्री मुक्ति के संघर्ष को शहरी शिक्षित उच्च मध्‍यवर्गीय कुलीनतावादी दायरों के बाहर लाना होगा

जिस देश की ज्यादातर महिलाएँ मेहनत-मजदूरी करके, किसी तरह अपने परिवार का पेट भरने के लिए दिन-रात खटती रहती है, जो घर के भीतर, चूल्हे-चौखट में ही अपनी तमाम उम्र बिता देने को अभिशप्त हैं, जो आये दिन अनगिनत किस्म के अपराधें और बर्बरताओं का शिकार होती हैं, उनकी गुलामी और दोयम दर्जे की स्थिति को कोई कानून या अधिनियम नहीं खत्म कर सकता। वास्तव में स्त्रियों की मुक्ति पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर सम्भव है ही नहीं। स्त्रियों की मुक्ति सिर्फ उसी समाज में सम्भव होगी जो पूरी मानवता को उसकी पूँजी की बेड़ियों से मुक्त करेगा। इसलिए आज स्त्री मुक्ति के क्रान्तिकारी संघर्ष को सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष के साथ जुड़ना ही होगा। दूसरी ओर, यह भी सही है कि सामाजिक परिवर्तन की कोई भी लड़ाई आधी आबादी की भागीदारी के बिना नहीं जीती जा सकती।

वैश्विक वित्तीय संकट का नया ‘तोहफा’ – ग़रीबी, बेरोजगारी के साथ बाल मजदूरी में भी इजाफा

साफ तौर पर यह रिपोर्ट उन तमाम सरकारी एवं ग़ैर-सरकारी कवायदों के मुँह पर एक करारा तमाचा है, जो मानती हैं कि बाल श्रम का उन्मूलन कानून बनाकर किया जा सकता है। भारत में बाल मजदूरी के ख़िलाफ तो कानून बना ही हुआ है, मगर यह कितना कारगर साबित हुआ है, इसकी असलियत सभी जानते हैं। ऐसे ‘नख-दन्त विहीन’ कानूनों को तो पूँजीपति वर्ग अपनी जेब में लेकर घूमता है और खुलेआम इनका उल्लंघन करके मखौल उड़ाता है। अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की अन्धी हवस में पूँजीपति वर्ग ज्यादा से ज्यादा महिलाओं और बच्चों को काम पर रखता है ताकि ख़र्च तो कम से कम हो और लाभ ज्यादा से ज्यादा।