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स्त्री मुक्ति के संघर्ष को शहरी शिक्षित उच्च मध्‍यवर्गीय कुलीनतावादी दायरों के बाहर लाना होगा

जिस देश की ज्यादातर महिलाएँ मेहनत-मजदूरी करके, किसी तरह अपने परिवार का पेट भरने के लिए दिन-रात खटती रहती है, जो घर के भीतर, चूल्हे-चौखट में ही अपनी तमाम उम्र बिता देने को अभिशप्त हैं, जो आये दिन अनगिनत किस्म के अपराधें और बर्बरताओं का शिकार होती हैं, उनकी गुलामी और दोयम दर्जे की स्थिति को कोई कानून या अधिनियम नहीं खत्म कर सकता। वास्तव में स्त्रियों की मुक्ति पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर सम्भव है ही नहीं। स्त्रियों की मुक्ति सिर्फ उसी समाज में सम्भव होगी जो पूरी मानवता को उसकी पूँजी की बेड़ियों से मुक्त करेगा। इसलिए आज स्त्री मुक्ति के क्रान्तिकारी संघर्ष को सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष के साथ जुड़ना ही होगा। दूसरी ओर, यह भी सही है कि सामाजिक परिवर्तन की कोई भी लड़ाई आधी आबादी की भागीदारी के बिना नहीं जीती जा सकती।

वैश्विक वित्तीय संकट का नया ‘तोहफा’ – ग़रीबी, बेरोजगारी के साथ बाल मजदूरी में भी इजाफा

साफ तौर पर यह रिपोर्ट उन तमाम सरकारी एवं ग़ैर-सरकारी कवायदों के मुँह पर एक करारा तमाचा है, जो मानती हैं कि बाल श्रम का उन्मूलन कानून बनाकर किया जा सकता है। भारत में बाल मजदूरी के ख़िलाफ तो कानून बना ही हुआ है, मगर यह कितना कारगर साबित हुआ है, इसकी असलियत सभी जानते हैं। ऐसे ‘नख-दन्त विहीन’ कानूनों को तो पूँजीपति वर्ग अपनी जेब में लेकर घूमता है और खुलेआम इनका उल्लंघन करके मखौल उड़ाता है। अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की अन्धी हवस में पूँजीपति वर्ग ज्यादा से ज्यादा महिलाओं और बच्चों को काम पर रखता है ताकि ख़र्च तो कम से कम हो और लाभ ज्यादा से ज्यादा।