माकपा की 21वीं कांग्रेस
संशोधनवाद के मलकुण्ड में और भी गहराई से उतरकर मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी की बेशर्म क़वायद

आनन्द

cpimपश्चिम बंगाल तथा केरल के विधानसभा चुनावों एवं पिछले लोकसभा चुनाव में मुँह की खाने के बाद गम्भीर राजनीतिक-सांगठनिक संकट के गुज़र रही संशोधनवादी (यानी मज़दूर वर्ग की ग़द्दार) भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) (संक्षेप में माकपा) ने 14 से 19 अप्रैल के बीच विशाखापट्टनम में अपनी 21वीं कांग्रेस आयोजित की। मार्क्सवादी विज्ञान की रोशनी में नीतियों-रणनीतियों की पड़ताल करने की बजाय अनुभववादी तरीक़े से विश्लेषण करने वाले भोले और भावुक वामपन्थियों एवं प्रगतिशीलों ने इस कांग्रेस से भी उम्मीदें टिका लीं कि इसके बाद माकपा के बीते हुए दिन लौट आयेंगे और एक बार फिर वह भारतीय राजनीति के पटल पर तथाकथित वाम धुरी की नेतृत्वकारी शक्ति बनकर उभरेगी। पार्टी ने अपने आपको “लाल” दिखाने के लिए कांग्रेस के आयोजन स्थल को झण्डों व प्रतीकों के ज़रिये लाल रंग से सराबोर कर दिया था। लेकिन कांग्रेस के दौरान पारित प्रस्तावों-रिपोर्टों एवं नये नेतृत्व को विचारधारा की कसौटी पर परखने पर हम पाते हैं कि आयोजन स्थल पर लाल रंग के प्रतीक तो बस छलावा थे, असल में इस कांग्रेस के बाद तो माकपा संशोधनवाद के मलकुण्ड में पहले से भी अधिक गहराई में उतरती दिख रही है और मज़दूर वर्ग से अपनी ग़द्दारी का ज़्यादा से ज़्यादा नंगे तौर पर मुज़ाहिरा कर रही है।

कांग्रेस के दौरान पारित राजनीतिक-रणकौशलात्मक (पॉलिटिकल-टैक्टिकल) लाइन पर समीक्षा रिपोर्ट पर एक नज़र दौड़ाने भर से यह स्पष्ट हो जाता है कि आने वाले दिनों में माकपा मज़दूर वर्ग से ऐतिहासिक विश्वासघात के पुराने कीर्तिमानों को ध्वस्त करने की पूरी तैयारी कर चुकी है। यह रिपोर्ट पिछले ढाई दशकों के दौरान पार्टी की राजनीतिक-रणकौशलात्मक लाइन की आलोचनात्मक पड़ताल करने का दावा करती है ताकि आगे के लिए कारगर राजनीतिक-रणकौशलात्मक लाइन तैयार की जा सके। लेकिन इसमें समीक्षा के नाम पर खानापूर्ति ही दिखती है और संसद के सुअरबाड़े में अपने खोये हुए कोने को हासिल करके उसमें लोट लगाने की व्यग्रता छिपाये नहीं छिपती। इस रिपोर्ट के बिन्दु 5 में बताया गया है कि राजनीतिक-रणकौशलात्मक लाइन वह रणकौशल (टैक्टिक्स) होता है जिसे हम जनता की जनवादी क्रान्ति के अपने रणनीतिक लक्ष्य तक पहुँचने के लिए किसी परिस्थिति विशेष में अपनाते हैं। इसी बिन्दु में हमें बताया गया है कि इस लाइन के ज़रिये पार्टी बुर्जुआ-भूस्वामी पार्टियों के बरक्स एक वाम और जनवादी विकल्प प्रस्तुत कर अपने रणनीतिक लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहती है। वैसे तो जिस समाज में उत्पादन सम्बन्धों में कई दशकों पहले ही पूँजीवादी रूपान्तरण हो गया हो वहाँ जनता की जनवादी क्रान्ति का रणनीतिक लक्ष्य भी तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, लेकिन उत्पादन प्रणाली की बहस में न भी उतरें तो भी समीक्षा रिपोर्ट में जो बात कही गयी है वह सच्चाई से मेल नहीं खाती। सच तो यह है कि अपने जन्मकाल से ही माकपा ने बुर्जुआ चुनाव में हिस्सा लेने को रणकौशल के रूप में नहीं बल्कि अपनी मुख्य रणनीति के रूप में इस्तेमाल किया है जो किसी भी संशोधनवादी पार्टी की ख़ासियत होती है। समीक्षा रिपोर्ट में रणकौशल के रूप में जो बातें कही गयी हैं, वे दरअसल माकपा की रणनीति का हिस्सा हैं। अब माकपा सीधे-सीधे यह बात कह नहीं सकती क्योंकि तब उसको कम्युनिस्ट पार्टी का अपना चोला उतार फेंकना होगा। इसलिए हर घाघ संशोधनवादी पार्टी की तरह माकपा बड़ी ही निर्लज्जता के साथ अपनी रणनीति को रणकौशल के रूप में प्रस्तुत करती है।

समीक्षा रिपोर्ट के बिन्दु 6 में पार्टी अपनी पीठ थपथपाते हुए बताती है कि किस तरह से 13वीं कांग्रेस और उसके बाद की कांग्रेसों में पारित राजनीतिक-रणकौशलात्मक लाइन ने पार्टी को राजीव गाँधी की सरकार और उसके बाद नरसिम्हाराव की सरकार को पराजित करने में मदद की। यही नहीं उसकी मदद से ही पार्टी 1996 में भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए ग़ैर-कांग्रेसी शक्तियों को लामबन्द करने में सफल रही। 2004 में भाजपा नीत एनडीए गठबन्धन को पराजित करने में इस लाइन ने दिशा दी। इसके अलावा कई क़ानूनों को पास करवाने में भी इसकी भूमिका रही। रिपोर्ट में पार्टी ने बुर्जुआ पार्टियों के सत्ता में आने और जाने की सामान्य बात को कुछ इस प्रकार बयान किया है मानो इस चुनावी गटरगंगा में नागनाथ को हटाकर सांपनाथ को लाने से सर्वहारा वर्ग की ज़िन्दगी बेहतर हो गयी हो। सर्वहारा वर्ग के इन ग़द्दारों से पूछा जाना चाहिए कि राजीव गाँधी की सरकार को हटाकर वीपी सिंह और चन्द्रशेखर की सरकार, नरसिम्हाराव की सरकार को हटाकर देवगौड़ा और गुजराल की सरकार और एनडीए की सरकार हटाकर यूपीए की सरकार बनवाने में भूमिका अदा करके इन्होंने सर्वहारा वर्ग का क्या भला किया? ग़ौरतलब है कि पिछले ढाई दशकों में जितनी भी सरकारें आयीं सबने नवउदारवादी नीतियों को आगे ही बढ़ाया जिसकी वजह से इस देश के मज़दूरों की ज़िन्दगी बद से बदतर हुई है। रिपोर्ट में नवउदारवादी हमले पर ख़ूब आँसू बहाये हैं, लेकिन नवउदारवाद की इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में इस संशोधनवादी पार्टी की तिकड़मों, बुर्जुआ पार्टियों के साथ इनकी गलबहियों और पश्चिम बंगाल एवं केरल में इनकी करतूतों की क्या भूमिका रही इसको लेकर कहीं भी आत्मालोचना नहीं की गयी है। ख़ैर जिस पार्टी को संशोधनवाद के रास्ते पर ही तेज़़ी से आगे बढ़ते जाना ही अपनी रणनीति बना ली हो उससे यह उम्मीद करना भी बेमानी होगा कि वह अपनी आत्मालोचना रखेगी।

रिपोर्ट के बिन्दु 7 में पार्टी ने इस बात को लेकर अपने मुँहमियाँ मिट्ठू बनने की हास्यास्पद कोशिश की है कि 1991 से लेकर अब तक नवउदारवादी नीतियों के खि़लाफ़ एकजुट प्रतिरोध खड़ा करने के मक़सद से अखिल भारतीय स्तर की 15 आम हड़तालें हो चुकी हैं। हर कोई जानता है कि जिस तरीक़े से हर तीन साल में ये पार्टी अपनी कांग्रेस करने की रस्मी क़वायद करती है उसी तरीक़े से हर दूसरे साल दिखावे के लिए एक देशव्यापी हड़ताल आयोजित करने की रस्मअदायगी भी करती है जिसमें देश के अलग-अलग हिस्सों में पार्टी के कार्यकर्ता दुकानों और अन्य प्रतिष्ठानों को ज़बरन बन्द करवाते हैं, जन्तर-मन्तर पर पार्टी के बड़े नेता कुछ गरमागरम भाषण देते हैं और मीडिया में दिखाने के गिरफ्तारी की नौटंकी करते हैं, पुलिस की बस में बैठकर फोटो सेशन करवाते हैं और थोड़ी देर बसयात्रा कराने के बाद मीडिया का कैमरा हटते ही पुलिस उन्हें रिहा कर देती है। यह नौटंकी इतनी बार हो चुकी है कि राजनीतिक रूप से सजग कोई भी व्यक्ति जानता है कि इसमें क्या-क्या होने वाला है। इसी नौटंकी को मज़दूर वर्ग के ये ग़द्दार देशव्यापी आम हड़ताल का नाम देते हैं और बेशर्मी से अपनी समीक्षा रिपोर्ट में इसको उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

उसके बाद के कई बिन्दुओं में समीक्षा रिपोर्ट वामपन्थी और जनवादी मोर्चे की अवधारणा के बारे में हमारा ज्ञानवर्धन करती है। बिन्दु 14 में रिपोर्ट यह स्वीकार करती है कि इस अवधारणा को प्रस्तुत किये जाने के साढ़े तीन दशक बीतने के बाद भी अखिल भारतीय स्तर पर कोई वामपन्थी और जनवादी मोर्चा नहीं बन पाया है। इस नंगी सच्चाई को तो हर कोई जानता है कि यह मोर्चा नहीं बन पाया है। किसी अवधारणा को प्रस्तुत किये जाने के साढ़े तीन दशक बाद आयी समीक्षा रिपोर्ट से तो लोग यह अपेक्षा करते हैं कि वह इस बात पर रोशनी डाले कि यह अवधारणा कहाँ तक वास्तविकता से मेल खाती है और इसके लागू न होने पाने के क्या कारण रहे।

आगे के बिन्दुओं में रिपोर्ट इस विफलता के कारण बताते हुए कहती है कि तात्कालिक परिस्थितियों की वजह से पार्टी ने वामपन्थी और लोकतान्त्रिक मोर्चे के अपने रणकौशलात्मक लक्ष्य को छोड़ दिया और वह प्रचारात्मक नारा बनकर रह गया। उसकी बजाय वामपन्थी, जनवादी और धर्मनिरपेक्ष गठबन्धन उसका अन्तरिम नारा बन गया। कालान्तर में चुनाव विशेष के लिए चुनावी तालमेल हेतु धर्मनिरपेक्ष पूँजीवादी पार्टियों को जुटाना उसकी पहली प्राथमिकता बन गयी। दूसरे चरण के रूप में संयुक्त आन्दोलन व संघर्षों के ज़रिये साझा न्यूनतम कार्यक्रम पर आधारित तीसरे विकल्प का निर्माण करना था और वामपन्थी-जनवादी मोर्चे के निर्माण का लक्ष्य तीसरे चरण पर खिसक गया। माकपा तात्कालिक ठोस परिस्थितियों का कितना भी हवाला दे ले, विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन का इतिहास हमें बताता है कि संशोधनवाद की फिसलनभरी ढलान पर जो भी पार्टी पहला क़दम रखती है उसका पतन तय होता है और सभी संशोधनवादी पार्टियाँ अपने पतन को छिपाने के लिए बदली हुई तात्कालिक परिस्थितियों का ही हवाला देती हैं। सच तो यह है कि साढ़े तीन दशक पहले जब माकपा ने वामपन्थी-जनवादी मोर्चे की अवधारणा रखी थी उस वक़्त भी वह संसदीय राजनीति की चौहद्दी के बाहर नहीं सोचती थी। जो भी पार्टी बुर्जुआ संसदीय राजनीति को केन्द्र में रखकर अपनी रणनीति और रणकौशल के बारे में फ़ैसले लेगी, उसका हश्र वही होगा जो माकपा का हुआ। लेकिन समीक्षा रिपोर्ट में कहीं भी पार्टी ने अपनी इस मूल ग़लती को नहीं स्वीकारा है, आखि़र वो स्वीकार भी क्यों करती, उसे तो इस फिसलनभरी ढलान पर अभी और आगे जाना है!

समीक्षा रिपोर्ट के बिन्दु 22 में कहा गया है कि तीसरे विकल्प को खड़ा करने में मशगूल रहने की वजह से पार्टी की स्वतन्त्र ताक़त नहीं बढ़ पायी जिसकी वजह से भी धर्मनिरपेक्ष बुर्जुआ दल उसकी ओर आकर्षित नहीं हो पाये। आगे बहुत अफ़सोस जताते हुए रिपोर्ट कहती है कि पिछले लोकसभा चुनाव में क्षेत्रीय बुर्जुआ दल भी उसके साथ विभिन्न राज्यों में चुनावी गठबन्धन बनाने को तैयार नहीं हुए। क्षेत्रीय बुर्जुआ दलों द्वारा भी घास न दिये जाने पर अफ़सोस जताने वाले इन संसदीय जड़वामनों को बताया जाना चाहिए कि दुनिया के हर मुल्क में संशोधनवादियों की यही गत होती है। वे दावा तो यह करते हैं कि वे बुर्जुआ दलों से गँठजोड़ को वामपन्थ को मज़बूत बनाने के लिए रणकौशल के रूप में इस्तेमाल करते हैं, लेकिन वास्तव में होता यह है कि बुर्जुआ दल उन्हें अपना मोहरा बनाते हैं और काम निकलने के बाद उन्हें दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंकते हैं। रिपोर्ट में आगे क्षेत्रीय दलों से नाराज़गी जताते हुए उनके बुर्जुआ चरित्र और उनकी अवसरवादिता का ब्योरा दिया गया है। मज़दूर वर्ग की नुमाइन्दगी का दावा करने वाले इन लाल तोतों से पूछा जाना चाहिए कि क्या पहले उनके साथ गलबहियाँ करते वक़्त उन्हें उनके चरित्र के बारे में नहीं पता था? हद की बात तो यह है कि उनके चरित्र के बारे में बयान करने के बावजूद भविष्य में उनके साथ चुनावी तालमेल और गँठजोड़ बनाने का विकल्प अभी भी खुला रखा गया है। बिन्दु 30 में साफ़ कहा गया है कि भविष्य में बुर्जुआ दलों के आपसी अन्तरविरोध फिर से उभर सकते हैं। रिपोर्ट में विशेष रूप से रेखांकित किया गया है कि ऐसी परिस्थिति में पार्टी को लचीला रुख़ अपनाना होगा। यानी एक बार फिर से इन्हीं बुर्जुआ दलों का पिछलग्गू बनने की पटकथा लिखी जा चुकी है।

रिपोर्ट में पार्टी ने अपने कुछ छोटे कुकर्मों को तो दबी जबान से स्वीकार किया है लेकिन अपने बड़े कुकर्मों पर चुप्पी साध ली है। मसलन पार्टी ने स्वीकार किया है कि 1996-98 के दौरान तत्कालीन संयुक्त मोर्चा सरकार को बनाये रखने के लिए उसकी नवउदारवादी नीतियों की अनदेखी करना एक ग़लती थी, लेकिन पूरी रिपोर्ट में कहीं भी बेलागलपेट यह बात नहीं स्वीकार की है कि पश्चिम बंगाल में उसकी सरकार ने स्वयं नवउदारवादी नीतियों को निहायत ही बेशर्मी से लागू किया जिसकी वजह से उसका जनाधार ख़त्म हुआ। बिन्दु 38 में दबी जबान में बस इतना कहा गया है कि नन्दीग्राम में भूमि अधिग्रहण को पूरे देश ने कॉरपोरेट के नवउदारवादी एजेण्डे के हिस्से के रूप में देखा और भविष्य में पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा लिए गये फ़ैसलों की आलोचनात्मक पड़ताल करनी होगी। कुल मिलाकर पार्टी के कहने का आशय यह है कि उसकी मंशा तो कॉरपोरेट को फ़ायदा पहुँचाने की नहीं थी, लेकिन लोगों ने उसको ग़लत समझा। संसद के सुअरबाड़े में लोट लगाने को आतुर इन संसदीय खिलन्दड़ों को कोई बताने वाला नहीं है कि उस घटना के इतने साल बीतने के बाद भी उन्हें अपने फ़ैसलों के आलोचनात्मक विश्लेषण करने के लिए समय नहीं मिला तो जनता इन्तज़ार थोड़े ही करेगी, उसने तो ख़ुद की पड़ताल करके अपना फ़ैसला सुना दिया है।

रिपोर्ट के बिन्दु 47 में संसदवाद की परिभाषा देते हुए बताया गया है कि संसदवाद एक सुधारवादी दृष्टिकोण है जो पार्टी की गतिविधियों को चुनावी दायरे में सीमित रखता है और यह भ्रम पैदा करता है कि केवल चुनाव लड़कर ही पार्टी की बढ़त सुनिश्चित की जा सकती है। यह जनान्दोलनों को संगठित करने, पार्टी के निर्माण एवं विचारधारात्मक संघर्ष की अनदेखी की दिशा में ले जाता है। यदि माकपा अपनी ही बतायी गयी इस परिभाषा को ईमानदारी से ख़ुद पर लागू करने का साहस करती तो इस रिपोर्ट में उसने स्वीकार किया होता कि वह ख़ुद एक संसदवादी पार्टी है। लेकिन संशोधनवादी गीदड़ों से क्रान्तिकारी साहस की अपेक्षा करना बेवक़ूफ़ी होगी।

माकपा अपने संशोधनवादी चरित्र को छिपाने की कितनी भी कोशिश करे, उसके ख़ुद के दस्तावेज़ उसके संशोधनवादी चरित्र को उजागर कर देते हैं। मसलन संसदवाद की परिभाषा देने के बाद रिपोर्ट के बिन्दु 47 में आगे जोड़ा गया है कि पार्टी को संसदीय और संसदेतर कामों को एक साथ किये जाने की आवश्यकता है। पार्टी के संसदीय कामों के साथ संसदेतर कामों को जोड़कर अपने संशोधनवादी चरित्र को छिपाने की भरपूर कोशिश की है। लेकिन संसदेतर कामों को संसदीय कामों के समतुल्य रखना अपनेआप में संशोधनवाद की निशानी है। कम्युनिज़्म का सिर्फ़ बुनियादी ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी यह जानता है कि एक कम्युनिस्ट पार्टी संसदेतर कामों को ही अपनी मुख्य रणनीति मानती है और संसदीय काम कभी भी संसदेतर कामों के समतुल्य नहीं हो सकते।

माकपा की 21वीं कांग्रेस में पारित राजनीतिक प्रस्ताव भी उसके संशोधनवादी चरित्र को उघाड़कर रख देता है। मज़दूर वर्ग से अपनी ग़द्दारी को छिपाने-ढाँकने के लिए इस प्रस्ताव में कुछ अन्य देशों में वामपन्थ की बढ़त का गर्वपूर्वक हवाला दिया है। मसलन यूनान में सिरिज़ा की जीत को नवउदारवाद के खि़लाफ़ एक बड़ी जीत बताया गया है, जबकि इस कांग्रेस के पहले ही सिरिज़ा द्वारा नवउदारवाद के सामने घुटने टेकने की ख़बरें आ चुकी थीं। इसी तरह स्पेन में पोदेमॉस नामक नयी पार्टी के उभार की भी ख़ूब तारीफ़ की गयी है। ग़ौरतलब है कि विचारधारात्मक अन्तर्वस्तु के लिहाज़ से पोदेमॉस काफ़ी कुछ भारत की आम आदमी पार्टी से मिलती-जुलती है। वैसे इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। आम आदमी पार्टी को लेकर भी माकपा काफ़ी उत्साहित दिख रही है और उससे काफ़ी कुछ सीखने की बातें कर चुकी है।

राजनीतिक प्रस्ताव में पार्टी ने लातिन अमेरिकी देशों में वामपन्थ की बढ़त को विशेष रूप से रेखांकित किया है। ग़ौरतलब है कि लातिन अमेरिकी देशों में जो वामपन्थी पार्टियाँ शासन कर रही हैं उन्होंने अधिक से अधिक एक कल्याणकारी बुर्जुआ राज्य का निर्माण किया है। कोई कम्युनिस्ट पार्टी ऐसे कल्याणकारी बुर्जुआ राज्य को समाजवाद के मॉडल की तरह प्रस्तुत करके बल्ले-बल्ले करे तो इससे उसका ख़ुद का चरित्र उजागर हो जाता है। यही नहीं माकपा ने इस प्रस्ताव में चीन को एक समाजवादी देशों की श्रेणी में शीर्ष का दर्ज़ा दिया है। ग़ौरतलब है कि माकपा सोवियत संघ को 1991 में उसके विघटन से पहले तक समाजवादी मानती आयी थी। उसी तर्क से वह चीन को आज भी समाजवादी मानती है और तब तक मानती रहेगी जब तक कि वहाँ शासन करने वाली पार्टी अपने आपको कम्युनिस्ट पार्टी कहती रहेगी। यानी माकपा उत्पादन सम्बन्धों के आधार पर नहीं बल्कि शासन करने वाली पार्टी के नामकरण के आधार पर किसी देश को समाजवादी मानती है। तो यह है इस पार्टी का वैचारिक स्तर! वैसे इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नहीं है। एक संशोधनवादी पार्टी से इससे ज़्यादा वैचारिक परिपक्वता की उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए।

Sitaram+Yechury,+the+new+CPM+General-Secretary,+addressing+a+press+conferenceअपने राजनीतिक प्रस्ताव में पार्टी ने वामपन्थी-जनवादी मोर्चा बनाने की अपने भावी योजना के लिए कार्यक्रम की जो रूपरेखा दी है वह कल्याणकारी राज्य का वही कीन्सियाई नुस्ख़ा है जिसे वह अपने जन्मकाल से ही दोहराती आयी है। यानी ढाक के वही तीन पात। पार्टी को अभी भी इस सच्चाई को हलक़ से उतारना मुश्किल हो रहा है कि कल्याणकारी राज्य का दौर समाप्त हो चुका है। लेकिन ‘जब तक बौद्धभिक्षु रहेंगे तब तक घण्टा हिलायेंगे’ की तर्ज़ पर जब तक इन संशोधनवादी लाल तोतों का अस्तित्व रहेगा, तब तक ये कीन्सियाई नुस्खों का घण्टा हिलाकर लोगों में भ्रम पैदा करते रहेंगे। गनीमत यह है कि पूरी दुनिया के पैमाने पर कल्याणकारी बुर्जुआ राज्य बनाने के कीन्सियाई नुस्खे इतिहास की चीज़ बन चुके हैं। माकपा के नये महासचिव सीताराम येचुरी अपने साक्षात्कारों में कहते आये हैं कि मार्क्सवाद ठोस परिस्थितियों को ठोस विश्लेषण करना सिखाता है। अब कोई उन्हें यह बताये कि ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण तो यह बता रहा है कि माकपा बहुत तेज़़ी से इतिहास की कचरापेटी की ओर बढ़ती जा रही है। हाँ यह ज़रूर है कि इतिहास की कचरापेटी के हवाले होने से पहले चुनावी तराजू में पलड़ा भारी करने के लिए बटखरे के रूप में बुर्जुआ दलों के लिए उसकी भूमिका बनी रहेगी।

क्या सीताराम माकपा को मझधार से बाहर निकाल पायेंगे?

yechuryमाकपा की 21वीं कांग्रेस के दौरान पार्टी में नेतृत्व-परिवर्तन ने मीडिया की सुर्खियाँ बटोरीं। महासचिव चुने जाने के बाद सीताराम येचुरी ने एक अंग्रेज़ी टीवी चैनल के कार्यक्रम में यह बताने के लिए कि उन्हें धर्म से कोई परहेज़ नहीं है, गर्व से कहा कि मेरा तो नाम ही सीताराम है! माकपा के समर्थक और भलेमानस भोले वामपन्थी यह उम्मीद लगाये बैठे हैं कि सीताराम पार्टी को मझधार से बाहर निकालेंगे और उसका बेड़ा पार करेंगे। लेकिन इन महानुभाव के पुराने ट्रैकरिकॉर्ड पर एक नज़र दौड़ाने से तो यह बात उभरकर आती है कि इस मझधार से निकालना तो दूर उसे इस मझधार तक लाने में उनकी कम भूमिका नहीं रही है। बुर्जुआ मीडिया सीताराम येचुरी का बखान करते हुए बताता है कि वे बहुत ‘प्रैग्मैटिस्ट’ (दुनियादार) और ‘फ्लेक्सिबल’ (लचीले) किस्म के नेता हैं। उनके बारे में यह प्रसिद्ध है कि वे इतने मिलनसार हैं कि उनके मित्र हर पार्टी में मौजूद हैं। ऐसे दुनियादार, लचीले और मिलनसार व्यक्ति से तो बस यही उम्मीद की जा सकती है कि उसके नेतृत्व में उन भोले वामपन्थियों के भ्रम भी टूट जायेंगे जो माकपा को अभी तक संशोधनवादी नहीं मानते। माकपा के भीतर येचुरी का आधार पश्चिम बंगाल प्रदेश इकाई में सर्वाधिक है जिसके मार्गदर्शन में ही नन्दीग्राम और सिंगूर की घटनाएँ अंजाम दी गयी थीं। ग़ौरतलब है कि पार्टी की राजनीतिक-रणकौशलात्मक लाइन की जो समीक्षा रिपोर्ट 21वीं कांग्रेस में पारित की गयी उसकी तैयारी के दौरान अक्टूबर 2014 में बुलायी गयी पार्टी के पोलित ब्यूरो की एक बैठक में येचुरी ने एक असहमति नोट रखा था जिसमें उनका मानना था कि ऐसी किसी समीक्षा की ज़रूरत ही नहीं है क्योंकि गड़बड़ी पार्टी की राजनीतिक- रणकौशलात्मक लाइन में नहीं बल्कि नेतृत्व द्वारा उसको लागू करने के तरीक़े में रही है। यानी कि समीक्षा रिपोर्ट में पार्टी द्वारा दबी जबान में जो नाममात्र आत्मालोचना की गयी है उससे भी येचुरी इत्तेफ़ाक नहीं रखते। ग़ौरतलब है कि येचुरी माकपा के सापेक्षतः नरम संशोधनवादी खेमे से आते हैं जो नवउदारवादी नीतियों के प्रति अधिक उदार हैं और जिसको हिन्दुत्ववादी भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के नाम पर कांग्रेस से भी गलबहियाँ करने से भी कोई परहेज़ नहीं है। ग़ौरतलब है कि 2004 में यूपीए सरकार बनवाने में इन महानुभाव की बड़ी भूमिका थी। नवउदारवाद के एक्शनमैन चिदम्बरम के साथ मिलकर इन्हीं जनाब ने तथाकथित न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार किया था। याद करने की बात यह भी है कि 1996 में माकपा के भीतर प्रकाश करात की सापेक्षतः गरम संशोधनवादी लाइन के दबाव में जब ज्योति बसु प्रधानमन्त्री नहीं बन पाये थे तो करात के विरोध करने वालों में हरकिशन सिंह सुरजीत और ज्योति बसु के साथ येचुरी भी शामिल थे। वे सुरजीत के योग्य शिष्य माने जाते हैं जो चुनावी राजनीति की तिकड़मों और सरकारें बनाने-गिराने में इतने माहिर थे कि बुर्जुआ मीडिया भी उन्हें भारतीय राजनीति के चाणक्य कहकर तारीफ़ करते नहीं अघाता था। वैसे देखा जाये तो संशोधनवादियों के बीच शुरू से ही सापेक्षतः नरम संशोधनवाद और सापेक्षतः गरम संशोधनवाद की नुमाइन्दगी करने वाले दो खेमे मौजूद रहे हैं। साठ के दशक में अविभाजित भाकपा के भीतर डांगे-राजेश्वर राव गुट नरमपन्थी था और वासवपुनैया-सुन्दरैया-गोपालन -नम्बूदिरीपाद-रणदिवे का धड़ा सापेक्षतः गरमपन्थी संशोधनवादी था। माकपा बनने के बाद सुन्दरैया- गोपालन-वासवपुनैया-प्रमोद दासगुप्ता का गुट गरमदली था जबकि सुरजीत-बसु का गुट नरमदली था। इस प्रकार हम पाते हैं कि सीताराम दरअसल नरमपन्थी संशोधनवाद के नये अवतार हैं जो माकपा को संशोधनवाद के मझधार में और गहराई तक डुबोने की क्षमताओं से लैस हैं। इसका एक मुजाहरा हाल में भूमि अधिग्रहण बिल के मामले में दिखा जब येचुरी सोनिया गाँधी के पिछलग्गू बनकर राष्ट्रपति भवन में विपक्ष के संयुक्त मार्चे के मार्च में शामिल हुए। येचुरी के ‘लचीले’ और ‘मिलनसार’ व्यक्तित्व को देखते हुए बिना किसी जोखिम के यह भविष्यवाणी की जा सकती है कि आने वाले दिनों में संयुक्त मोर्चा बनाने के ऐसे और भी हास्यास्पद नज़ारे देखने को मिलेंगे।

 

 

मज़दूर बिगुल, मई 2015


 

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