अर्बन कम्पनी की “इंस्टा हेल्प” स्कीम: घरेलू कामगारों की सस्ती श्रमशक्ति से मुनाफ़ा कमाने की स्कीम!
रोज़गार के नाम पर शोषण और बदहाली को बढ़ावा देता ‘प्लेटफ़ॉर्म कम्पनियों’ का नेटवर्क!
अदिति (दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन)
हाल ही में ‘अर्बन कम्पनी’ ने एक और नयी सेवा शुरू की है। अब तक लोगों के घरों तक 15 मिनट में सामान पहुँचाने का बीड़ा उठाने वाली प्लेटफ़ॉर्म कम्पनी अब घरेलू कामगारों की सेवाएँ भी 15 मिनट की फास्ट डिलिवरी के ज़रिये करेगी! जी हाँ, चौकिए मत! ‘इंस्टा हेल्प’ स्कीम के ज़रिये अब इन्सानों को भी इन डिलिवरी सिस्टम के तहत उपलब्ध कराया जायेगा, जिनसे हाउस हेल्प के काम कराये जा सकते हैं! इस “सेवा” की शुरुआती क़ीमत 49 रुपये प्रति घण्टा है। इसमें बर्तन धोना, झाड़ू, पोछा और खाना बनाने जैसी सेवाएँ शामिल हैं। हाल के दिनों में देश के कई बड़े शहरों में इस स्कीम को लागू भी कर दिया गया। इस स्कीम को घरेलू कामगारों के लिए तोहफ़ा बताना न सिर्फ़ घरों में काम करने वाले कामगारों (स्त्री-पुरुष) के साथ एक भद्दा मज़ाक हैं, बल्कि यह पूँजीवादी अमानवीयता और शोषण की नयी बानगी पेश करता है।
“इंस्टा मेड” ही “इंस्टा हेल्प” है, यानी गंगाधर ही शक्तिमान है
अर्बन कम्पनी के कर्ताधर्ता वरुण खेतान पर मोदी सरकार का बहुत गहरा असर पड़ा है। जैसे मोदी सरकार देशभर में बस शहरों-गाँव के बस नाम बदल देती है, ठीक इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए अर्बन कम्पनी के वरुण ने “इंस्टा मेड” स्कीम का भी नाम बदल कर “इंस्टा हेल्प” कर दिया है। स्कीम का नाम बदलने के पीछे कम्पनी का तर्क बहुत हास्यास्पद है। इंस्टा हेल्प नाम रखने में घरेलू कामगारों के श्रम की “गरिमा” को ठेस नहीं पहुँचेगी और उन्हें “सम्मानजनक” ज़िन्दगी मिल सकेगी! यानी काम उसी तरह से अपमानजनक तरीक़े से करवाया जायेगा, गरिमा को ठेस पहुँचायी जायेगी, लेकिन अब “मेड” यानी “नौकर” शब्द का इस्तेमाल नहीं किया जायेगा! यानी यह वही बात हो गयी कि कूड़ेदान का नाम बदलकर अगर इत्रदान रख देंगे तो उसमें से ख़ुशबू आने लगेगी! भाषा या नाम बदल देने से सच्चाई नहीं बदल जाती है।
घरेलू कामगारों की सस्ती श्रमशक्ति पर गिद्ध निगाह लगाये बैठी अर्बन कम्पनी उनके श्रम के ज़रिये मुनाफ़ा बनाने के लिए ही अपनी ‘इंस्टा हेल्प ’ स्कीम को लेकर आयी है।
घरेलू कामगार मध्यवर्गीय, उच्च मध्यवर्गीय कॉलोनियों, अपार्टमेंण्टों, बड़ी हाउसिंग बिल्डिंगों में रहने वाले लोगों के घरों में झाड़ू-पोछा, बर्तन साफ़ करने, गाड़ी साफ़ करने से लेकर माली का काम करते हैं। अब तक घरों में काम करने वाली महिलाएँ सीधे निजी उपभोक्ताओं को अपनी सेवाएँ प्रदान कर मज़दूरी पाती थीं। बतौर नियोक्ता यह मध्यवर्गीय व उच्चवर्गीय आबादी घरेलू कामगारों को अपनी आय से मज़दूरी देते हैं। ये आबादी इन घरेलू कामगार के श्रम के उत्पाद को माल के तौर पर किसी और को नहीं बेचते बल्कि उसका व्यक्तिगत उपभोग करते हैं। पूँजीपति मज़दूर के श्रम का इस्तेमाल उत्पादक उपभोग, यानी मालों के उत्पादन में करता है और उस माल को बाज़ार में बेचता है। घरेलू कामगार के श्रम को भाड़े पर इस्तेमाल करने वाले उच्च व मध्यवर्गीय परिवार उसे माल उत्पादन में लगाकर बाज़ार में माल बेचकर मुनाफ़ा नहीं कमाते। वे इस श्रम द्वारा पैदा सेवाओं का स्वयं उपभोग करते हैं। इसलिए घरेलू कामगारों की श्रमशक्ति वैयक्तिक उपभोक्ता परिवारों को सीधे वैयक्तिक उपभोग के लिए बेचे जाने की सूरत में माल उत्पादन में नहीं ख़र्च होती है और इसलिए मूल्य व बेशी मूल्य नहीं पैदा करती है। इसलिए यह मूल्य पैदा करने वाला श्रम, यानी पूँजी के लिए उत्पादक श्रम नहीं है। इस सूरत में भी घरेलू कामगार एक मज़दूर ही होता है, क्योंकि वह अपनी श्रमशक्ति बेचता है जो कि एक माल में तब्दील हो चुकी है। लेकिन वह उत्पादक श्रम में नहीं लगता, बल्कि ग़ैर-उत्पादन श्रम में लगता है। वह सामाजिक रूप से इन वर्गों के लिए ज़रूरी है, लेकिन पूँजी के लिए मूल्य का उत्पादन करने वाला उत्पादक श्रम नहीं है। क्या ऐसे में घरेलू कामगारों का शोषण होता है? हाँ होता है। क्योंकि उसकी श्रमशक्ति माल में तब्दील हो चुकी है और औसत सामाजिक उत्पादकता के अनुसार साधारण श्रम (अकुशल श्रम) एक निश्चित श्रमकाल में जितना मूल्य पैदा करता है, घरेलू कामगार की श्रमशक्ति भी उत्पादक गतिविधि में लगने पर उतना ही मूल्य पैदा करती, जबकि उसकी श्रमशक्ति का मूल्य उससे कम होता है। शोषण एक सामाजिक सम्बन्ध है और ग़ैर-उत्पादन श्रम में लगे मज़दूरों के शोषण को समझने के लिए इस बात को समझना अनिवार्य है।
अब स्थिति बदल रही है। तमाम कम्पनियाँ पैदा हो चुकी हैं जो पहले से ही घरेलू कामगार मुहैया कराने का काम कर रही हैं और अब अर्बन कम्पनी जैसे प्लेटफॉर्म चलाने वाले पूँजीपति भी इस क्षेत्र में मुनाफ़ा पीटने के उद्देश्य से घुस रहे हैं। लूटने के मक़सद से ही अर्बन कम्पनी इन कामगारों का अपने प्लेटफ़ॉर्म बेस्ड ऐप पर पंजीकरण करेगी और इस सेवा को मुहैया करने की एवज़ में उपभोक्ताओं द्वारा किये जाने वाले भुगतान यानी सेवा की बाज़ार क़ीमत का एक हिस्सा मुनाफ़े के रूप में अर्बन कम्पनी को मिलेगा। चूँकि घरेलू कामगार अब स्वयं अपनी श्रमशक्ति वैयक्तिक उपभोक्ता को नहीं बेच रहे हैं, जो इसका व्यक्तिगत उपभोग करने वाले हैं, बल्कि अब एक कम्पनी उन्हें भाड़े पर रखती है और उनकी श्रमशक्ति का इस्तेमाल एक उपयोगी सेवा के उत्पादन में किया जाता है और उस सेवा को व्यक्तिगत उपभोक्ता को यह कम्पनी बेच रही है, इसलिए यह पूँजी के लिए उत्पादक श्रम बन गया और उसके लिए बेशी मूल्य पैदा कर रहा है। हमें यह भी समझना चाहिए कि कोई कम्पनी जब किसी मज़दूर को काम पर रखती है और उसके द्वारा उत्पादित सेवा (जो एक माल ही है) को बेचती है, तो वह कम्पनी माल उत्पादन करवा रही है, उसे बेच रही है और उस मज़दूर के बेशी श्रम का शोषण कर रही है। कम्पनी मज़दूर को सिर्फ़ उसकी श्रमशक्ति का मूल्य देती है, जबकि उसके द्वारा उत्पादित माल या सेवा का मूल्य उससे कहीं ज़्यादा है। यह अन्तर ही बेशी मूल्य है जो कम्पनी के मुनाफ़े का स्रोत है।
अर्बन कम्पनी का दावा और हक़ीक़त
अर्बन कम्पनी यह दावा कर रही है कि इससे घरेलू कामगारों को “फ़ायदा” होगा! उन्हें सिर्फ़ 15 मिनट के भीतर काम मुहैया कराया जायेगा! कम्पनी यह भी दावे कर रही है कि इसके ज़रिये घरेलू कामगार ख़ूब कमाई करेंगी और यह उनके श्रम को गरिमा देगा! लेकिन इन दावों के पीछे की हक़ीक़त क्या है इसको देखते हैं!
घरेलू कामगारों के तहत काम करने वाली आबादी में अधिकांश संख्या स्त्री मज़दूरों की है। काम के दौरान घरेलू कामगारों की सुरक्षा की गारण्टी सुनिश्चित करने की कोई जवाबदेही कम्पनी अपने ऊपर नहीं लेगी। गुडगाँव से लेकर नोएडा और दिल्ली के अलग-अलग मध्यवर्गीय कॉलोनियों में घरेलू कामगारों के साथ होने वाली जघन्य घटनाओं, यौन-उत्पीड़न, छेड़खानी, जातिगत भेदभाव इत्यादि ख़बरों के हम साक्षी बनते रहते हैं। कई मसले तो पैसों के ढेर के नीचे दबा दिये जाते हैं और सामने तक नहीं आते। 15 मिनट में सेवा मुहैया कराने वाली इस स्कीम के आने के बाद ऐसी घटनाएँ और बढ़ेंगी क्योंकि भारत का खाया-पीया-अघाया और मानवीय मूल्यों से रहित खाता-पीता मध्य वर्ग कम से कम समय में अधिक से अधिक काम करवाने की लालसा के साथ इंस्टा हेल्प का इस्तेमाल करेगा और प्लेटफ़ॉर्म कम्पनियाँ क्योंकि औपचारिक तौर पर नियोक्ता की भूमिका में नहीं हैं, इसलिए उनकी कोई जवाबदेही इन तमाम मसलों पर नहीं होगी। प्लेटफ़ॉर्म कम्पनी से पहले यह काम तमाम प्लेसमेण्ट एजेंसियाँ करती रही हैं, जो उचित मज़दूरी या सुरक्षा की गारण्टी दिये बिना रोज़गार के लिए उच्च शुल्क वसूल कर घरेलू श्रमिकों का शोषण करती हैं। श्रमिकों को अक्सर उनके रोज़गार की शर्तों (जिनमें वेतन या नौकरी की ज़िम्मेदारियाँ शामिल हैं) के बारे में जानकारी नहीं दी जाती है।
आज इंस्टामार्ट, ब्लिंकिट, जोमैटो इत्यादि जैसी प्लेटफ़ॉर्म कम्पनियों के गिग मज़दूरों के उदाहरण भी हमारे सामने हैं। इंस्टा हेल्प स्कीम की हक़ीक़त समझने से पहले हम गिग अर्थव्यवस्था में काम कर रहे मज़दूरों की हालत पर एक बार ग़ौर करते हैं। स्विगी, ज़ोमैटो, इंस्टामार्ट, अर्बन कम्पनी आदि जैसे प्लेटफ़ॉर्मस के लिए काम करने वाले चालक, होम डिलिवरी मज़दूर आदि को हम प्लेटफ़ॉर्म आधारित गिग वर्कर्स कहते हैं। ये प्लेटफ़ॉर्म कम्पनियाँ ख़ुद को नियोक्ता नहीं बताती हैं और इसलिए मज़दूरों को आने वाली किसी भी समस्या के लिए ज़िम्मेदारी नहीं लेती हैं। ये सभी कम्पनियाँ ये दावा करती हैं कि इनका काम सिर्फ़ सूचना जुटाकर उपभोक्ताओं और सेवा-प्रदाताओं तक पहुँचाना होता है। उनके अनुसार मज़दूर उनके कर्मचारी नहीं हैं बल्कि अपने काम के मालिक वे ख़ुद हैं, लेकिन असलियत में सेवा की क़ीमत ये कम्पनियाँ तय करती हैं, सेवा की स्थितियाँ और शर्तें भी ये कम्पनियाँ ही तय करती हैं। ऐसे में, वास्तव में उनकी भूमिका नियोक्ता की ही होती है। इस बात को समझने के लिए हम एक डिलिवरी बॉय का उदाहरण लेते हैं। प्रति डिलिवरी मिलने वाले रुपये को तय करने का काम कम्पनी करती है, समय से डिलिवरी करने से लेकर एक दिन में न्यूनतम डिलिवरी कि संख्या जैसे अन्य तमाम तरह की शर्तें लागू करने का काम यही कम्पनियाँ करती हैं और अगर कोई डिलिवरी बॉय इनके मानकों के हिसाब से काम नहीं कर पाता है तो उसकी रेटिंग कम हो जाती है, जिससे की उसे काम मिलना मुश्किल होता जाता है। कम्पनी की शर्तों को पूरा करने के लिए और गुज़ारे लायक कमाई के लिए इस अर्थव्यवस्था में लगे मज़दूरों को रोज़ाना 12-15 घण्टे काम करना होता है। इसके साथ ही इन मज़दूरों के साथ आए-दिन होने वाले भेदभाव, उत्पीड़न और अमानवीय घटनाओं की भी कहीं कोई सुनवाई नहीं है। अब इस दायरे में घरेलू कामगारों को भी लाया जा रहा है। इंस्टा मेड स्कीम के आने से घरेलू कामगारों का शोषण और उत्पीड़न बरक़रार रहेगा और अब उनके इस शोषण का सीधा फ़ायदा पूँजीपतियों को मिलेगा।
जब तक घरेलू मज़दूरों को आधिकारिक तौर पर मज़दूर का दर्जा नहीं मिलेगा, तब तक ऐसी सभी स्कीम उनके हक़-अधिकारों को कुचलने का ही एक माध्यम बनेगी।
‘दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन’ माँग करती है कि :
- घरेलू मज़दूरों का श्रम विभाग में पँजीकरण किया जाये और वहीं से उनका प्लेसमेण्ट हो।
- बिचौलिये का काम करने वाली प्लेसमेण्ट एजेंसियों और प्लेटफार्म बेस्ड कम्पनी की भूमिका को विनियमित किया जाय और उनके साथ कामगारों के सम्बन्ध को नियोक्ता-मज़दूर सम्बन्ध के रूप में स्वीकारा जाय ताकि उन्हें सारे श्रम अधिकार प्राप्त हो सकें। कालान्तर में ऐसी निजी कम्पनियों की भूमिका को ही समाप्त कर दिया जाना चाहिए।
- घरेलू कामगारों के लिए सरकार ‘लेबर एक्सचेंज’ का गठन करे, जिसके ज़रिये ही कोई उन्हें काम पर रख सकता है।
- घरेलू मज़दूरों का वेतन, ओवरटाइम व अन्य सुविधाएँ सीधे उनके खाते में पहुँचे।
हम अर्बन कम्पनी की इस स्कीम के ख़िलाफ़ घरेलू कामगारों को एकजुट और संगठित होने का आह्वान करते हैं।
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