जज और जेलर तक उनके, सभी अफ़सर उनके…
मारुति मज़दूरों के केस का फ़ैसला : पूँजीवादी व्यवस्था की न्याय व्यवस्था का बेपर्द नंगा चेहरा

10 मार्च को गुडगाँव के ट्रायल कोर्ट ने मारुति मानेसर प्लाण्ट के 148 गिरफ़्तार मज़दूरों में से 31 को दोषी क़रार दिया गया जिसमें 13 मज़दूरों को हत्या के जुर्म का ज़िम्मेदार ठहराया, 18 मज़दूरों को गम्भीर चोट पहुँचाने और अतिक्रमण करने का अपराधी घोषित किया है, बाक़ी 117 लोग जो जेल में चार साल की सज़ा भुगत चुके थे, आरोपमुक्त कर दिया गया। मारुति सुज़ुकी के मानेसर प्लाण्ट में 2011 से ही प्रबन्धन और मज़दूरों के बीच लगातार तनाव और टकराव की स्थिति मौजूद रही थी। मज़दूर अपनी यूनियन पंजीकृत कराने और काम की अमानवीय स्थितियों पर ध्यान दिलाने की ओर भी लगातार संघर्षरत थे। इन्हीं टकराव की स्थितियों के बीच 18 जुलाई 2012 को यह घटना घटी जिसमें मानेसर प्लाण्ट के अन्दर ही एक एचआर मैनेजर अवनीश कुमार देव की मृत्यु हो गयी। तब से अभी तक 147 मज़दूरों को हत्या व हत्या के प्रयास के जुर्म में जेल में डाल दिया गया। इन 147 के इतर 66 मज़दूरों पर अलग से मुक़दमे दायर किये गये। घटना के तुरन्त बाद 546 स्थायी व 1800 ठेका मज़दूरों को काम से निकाल बाहर किया गया। इस पूरे मामले की जब 10 मार्च को सुनवाई हुई तो उसमें 31 में से 13 लोगों पर हत्या, हत्या के प्रयास, आगजनी, षडयन्त्र का आरोप तय हुआ। बाक़ी 18 पर मारपीट, चोट पहुँचाने और अनाधिकृत प्रवेश, जमघट लगाने का आरोप तय हुआ है। 31 दोषी मज़दूरों में से 13 मज़दूरों – राममेहर, सन्दीप ढिलों, राम विलास, सरबजीत, पवन कुमार, सोहन कुमार, अजमेर सिंह, सुरेश कुमार, अमरजीत, धनराज, योगेश, प्रदीप गुर्जर, जियालाल को 302, 307, 427,436, 323, 325, 341, 452, 201, 120B जैसी धाराओं के अन्तर्गत दोषी ठहराया गया है। दूसरी कैटेगरी में शामिल 14 लोगों को धारा 323, 325, 148, 149, 341, 427 के तहत आरोपी ठहराया गया है। तीसरी कैटेगरी में शामिल 4 लोगों को धारा 323, 425, 452, के तहत आरोपी ठहराया गया है। जिन 31 मज़दूरों को अपराधी घोषित किया गया है उनकी सज़ा की मियाद 17 मार्च को सुनाई जायेगी।

इस फ़ैसले ने पूँजीवादी न्याय व्यवस्था के नंगे रूप को उघाड़कर रख दिया है! यह तब है जब हाल ही में अपने जुर्म कबूलने वाले असीमानन्द और अन्य संघी आतंकवादियों को ठोस सबूत होने और असीमानन्द द्वारा जुर्म कबूलने के बाद भी बरी कर दिया जाता है। ये दोनों मुक़दमे बुर्जुआ राज्य के अंग के रूप में न्याय व्यवस्था की हक़ीक़त दिखाते हैं। यह राज्य व्यवस्था और इसलिए यह न्याय व्यवस्था पूँजीपतियों और उनके मुनाफ़े की सेवा में लगी है, मज़दूरों को इस व्यवस्था में न्याय नहीं मिल सकता है। मारुति के 148 मज़दूरों पर चला मुक़दमा, उनकी गिरफ़्तारी और 4 साल से भी ज़्यादा जेल में बन्द रखा जाना इस पूँजीवादी न्यायिक व्यवस्था के चेहरे पर लगा नकाब पूरे तरह से उतारकर रख देता है। यह साफ़ कर देता है कि मारुति के 31 मज़दूरों को कोर्ट ने इसलिए सज़ा दी है ताकि तमाम मज़दूरों के सामने यह मिसाल पेश की जा सके कि जो भी पूँजीवादी मुनाफ़े के तंत्र को नुक्सान पहुँचाने का जुर्म करेगा उसे बख़्शा नहीं जायेगा।

 जिन 13 लोगों के ख़िलाफ़ 302 व 307 की धाराएँ लगायी गयी हैं उनके ि‍ख़‍लाफ़ बहुत कमज़ोर साक्ष्य मौजूद थे। कोर्ट में हुई कार्यवाही के दौरान पेश की गयी दलीलों की एक संक्षिप्त रिपोर्ट नीचे दी गयी है जिससे यह साफ़ जाहिर हो जाता है कि किस प्रकार सरकार व यह पूरी न्याय व्यवस्था दरअसल पूँजीपतियों के लिए ही है!

1) यह ताज्जुब की बात है कि जिन 13 मज़दूरों पर हत्या का आरोप है वे सभी यूनियन के नेतृत्व में शामिल थे। कोर्ट में चली कार्यवाही के दौरान हत्या व आगजनी के आरोप में गिरफ़्तार मज़दूरों के ि‍ख़‍लाफ़ कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं पाया गया, न ही कोई सीसीटीवी की रिकॉर्डिंग थी और न ही अभियोजन पक्ष का गवाह किसी भी मज़दूर को पहचान ही सका! ताज्जुब की बात है कि दीपक आनन्द जिसके द्वारा 55 मज़दूरों के ि‍ख़‍लाफ़ एफ़आईआर दायर किया गया, उनमें से किसी को भी वह व्यक्ति नहीं पहचान पाया। सलिल विहारी जिसने ‘जियालाल’ नामक एक मज़दूर को हत्या का मुख्य आरोपी बताया था, वह उसे पहचानता तक नहीं था!

2) 18 जुलाई 2012 को मुठभेड़ की घटना करीब 7:20 पर शाम में हुई परन्तु प्लाण्ट के बाहर सुबह 11 बजे से ही पुलिस फ़ोर्स की तैनाती थी पर पुलिस को तब तक अन्दर नहीं घुसने दिया गया जब तक हालात नियंत्रण से बाहर नहीं हो गये। यह बिलकुल साफ़ दिख रहा है कि यह प्रशासन द्वारा रचा गया षड्यन्त्र था। यहाँ तक कि मज़दूरों के कपड़ों में कम्पनी के कुछ बाउंसर भी उस मुठभेड़ में शामिल थे।

3) एक तरफ एफ़आईआर में यह उल्लेख किया गया है कि करीब 400-500 की संख्या में मज़दूर लाठियों व डण्डों के साथ एचआर में  प्रवेश किये थे व प्रशासन के लोगों को मारा, परन्तु कोर्ट में गवाही देते वक़्त किसी गवाह ने अपने बयान में डण्डों व लाठियों का उल्लेख नहीं किया है!

4) एक और दलील जो दी गयी वह यह कि प्लाण्ट में हर मैनेजर को करीब 4-5 मज़दूरों ने घेरकर हथियारों से मारा जिससे प्रशसन पक्ष यह साबित करने की कोशिश करता है कि मज़दूरों ने जान से मारने का प्रयास किया था। पर यदि ऐसा ही था तो हर मैनेजर को गम्भीर चोटों की शिकायत होनी चाहिए थी पर उनमें से ज़्यादातर को कोई चोट नहीं आयी थी, ऐसा कैसे सम्भव है? बचाव पक्ष द्वारा इस पर सवाल करने पर यह कहा गया कि चूँकि ख़ुद मज़दूरों ने उन्हें छोड़ दिया इसलिए उन्हें कोई चोट नहीं आयी। इस बयान से यही साबित होता है कि मज़दूरों ने जान से मारने का प्रयास नहीं किया था।

5) इस पूरी कार्यवाही के दौरान एक और बात ग़ौर करने लायक थी। 147 में से 89 मज़दूरों के नाम 4 ठेकेदारों द्वारा वर्णानुक्रम के अनुसार दिया गया था। कोर्ट में पेश किये गये पेपर के आधार पर यह पाया गया कि वीरेन्दर नामक एक गवाह ने उन 25 मज़दूरों के नाम दिये जिनका नाम A-G तक से शुरू होता है, इसी प्रकार एक दूसरे गवाह याद राम ने अन्य 25 मज़दूरों के नाम दिये जिनके नाम G-P तक से शुरू होते  थे, अशोक राना ने 26 मज़दूरों के नाम दिये जो P-S से शुरू होते थे व अन्य एक गवाह ने बाक़ी 13 मज़दूरों के नाम दिये जो S-Y से शुरू होते थे। ऐसा भला कैसे सम्भव है? इस प्रकार वर्णानुक्रम के अनुसार नाम दिया जाना यह दर्शाता है कि पुलिस को ये नाम कम्पनी द्वारा दिये गये होंगे। यानी नंगे तौर पर पुलिस प्रशासन के साथ मिलकर मज़दूरों को झूठे केस में फँसाने की कोशिश कर रही थी।

6) बाक़ी जिस आगजनी की घटना का आरोप मज़दूरों पर लगाया गया है, उस घटना में कोई प्रमाण नहीं मिला है और न ही कोई गवाह ही बता पाया कि आग कैसे लगी व किसने लगायी। पहले तो पूछताछ के दौरान विरोधाभासी गवाही सुनने को मिली। मृतक अवनीश देव की बॉडी एम 1 रूम से बरामद हुई थी और गवाहों ने पहले यह दावा किया कि रूम में आग अन्दर से ही लगायी गयी थी, जहाँ मुठभेड़ हुई थी। परन्तु जाँच करते हुए उनके तर्क फिर बदल गये, वे बात बदलकर यह कहने लगे कि आग बाहर से लगायी गयी थी। इसके साथ ही यहाँ जिस माचिस से आग लगाने की बात की गयी है वह भी सन्देहास्पद है। घटना के अगले दिन यानी 19 जुलाई को सुबह 6 बजे जब सिक्यूरिटी गार्ड ओम प्रकाश ने उस रूम की तलाशी ली तब कोई माचिस नहीं मिली थी, फिर अचानक से उसी दिन 12 बजे एफ़एसएल के अधिकारी को उस रूम में एक माचिस की डिब्बी मिली। इस आगजनी की घटना की गवाही देने वाले 16 व्यक्तियों में से जिन 3 व्यक्ति ने नाम सहित मज़दूरों को दोषी बताया, कोर्ट में वे उन मज़दूरों को चेहरे से पहचान तक नहीं पाये थे!

7) 18 जुलाई की घटना में अवनीश देव जिसकी मौत हुई थी, पोस्टमोर्टम की रिपोर्ट के अनुसार मौत ऑक्सीजन न मिल पाने की कमी से हुई थी। जबकि झड़प के दौरान जो चोट उसे आयी थी वह उसके दाँए पैर के घुटने में थी। इससे कहीं से भी यह साबित नहीं होता कि अवनीश देव की मृत्यु कोई हत्या का मामला है। यानी 302 व 307 की जो धाराएँ लगायी गयी हैं, वे कहीं से भी जायज़ नहीं।

 कोर्ट में चली इस पूरी कार्यवाही के बाद जब 13 मज़दूरों को 302 व 307 की धाराएँ लगायी जाती हैं, तब ज़हन में बेर्टोल्ट ब्रेष्ट के ‘मदर’ नाटक के गीत की पंक्तियाँ याद आती हैं कि जज और जेलर तक उनके, सभी अफ़सर उनके… इस पूरी घटना की मीडिया में रिपोर्टिंग से लेकर मुक़दमे के दौरान मज़दूरों के ख़िलाफ़ दी गयी दलीलों से भी इस केस के सार को समझा जा सकता है। कोर्ट में केस शुरू होने से पहले ही मीडिया ने मज़दूरों को ख़ूनी ठहरा दिया। 2012 में फै़क्टरी में हुई मैनेजर की मौत की ज़िम्मेदारी बिना किसी जाँच के मारुति के मज़दूरों पर मढ़ दी गयी लेकिन जो उत्पीड़न मारुति के मज़दूर सहते आ रहे थे और जो यातनाएँ निर्दोष मज़दूरों ने और उनके परिवारों ने इन 4 सालों के बीच भुगती हैं, उसके लिए यह व्यवस्था किसे ज़िम्मेदार ठहराएगी? मैनेजमेण्ट के व्यक्ति की मौत को बहाना बनाकर 148 मज़दूरों को जेलों में सड़ा दिया जाता है परन्तु क्या कभी आज तक कोई पूँजीपति मज़दूरों को फै़क्टरियों में मौत के घाट उतारने, मज़दूरों के हक़ों को छीनने के जुर्म में गिरफ़्तार भी किया गया या एक रात भी हवालात में गुज़ार कर आया है? कल-कारख़ानों में दमन किसी अख़बार के पन्ने पर ख़बर नहीं बनती जबकि अपने ख़ून-पसीने की कमाई की माँग करने वाले मज़दूरों को सड़क पर उतरने पर मुज़रिम घोषित कर दिया जाता है।

मुनाफ़े के तराजु में मज़दूरों की जि़न्दगी की कोई क़ीमत नहीं है। यह न्यायालय बिना ठोस सबूतों के 4 सालों तक मज़दूरों को जेल में सड़ा सकती है लेकिन ऑटोमोबाइल सेक्टर में आये दिन मज़दूरों पर हो रहे अत्याचारों और श्रम क़ानूनों के नंगे हनन की रोकथाम के लिए उसकी यही तत्परता हवा हो जाती है। मारुति की घटना के ज़रिये मज़दूरों को एक नज़ीर पेश की है कि जो संगठित होने या पूँजी के चक्र को थामने की कोशिश करेगा, उसे यह व्यवस्था कुचल देगी। ख़ुद कोर्ट ने इस दबाव की पुष्टि अपने उस फ़ैसले में की थी, जब मज़दूरों को बेल देने से मना करने के पीछे कोर्ट ने पूँजी के निवेश को ख़तरा होने और फै़क्टरियों के वहाँ से हट जाने की बात करते हुए मज़दूरों को ‘सबक़’ सिखाने की बात की। परन्तु यह मुनाफ़़ाख़ोर मज़दूरों के प्रतिरोध करने की जि़द को नहीं तोड़ पायी है। मारुति मज़दूरों के संघर्ष के आगाज़ के बाद से गुडगाँव-धारूहेड़ा-बवाल-नीमराना-टप्पूकड़ा पूरी ऑटोमोबाइल बेल्ट में मज़दूरों के ऐसे ही स्फुट आन्दोलनों का साक्षी बना जिन्हें पुलिस प्रशासन द्वारा बर्बर तरीक़े से दबाया गया। मारुति मज़दूरों के आन्दोलन के बाद पूँजीपतियों ने किसी भी मज़दूर संघर्ष को दबाने-कुचलने में कोई कोताही नहीं बरती। परन्तु यह दमन इस संघर्ष को रोक नहीं सकता बल्कि यह दावानल भड़क उठेगा। मारुति के मज़दूरों को जेलों में रखकर यह व्यवस्था जिस चिंगारी को हवा दे रही है वो दावानल बन पूँजी के इस जंगल को ख़ाक कर देगी।

 

मज़दूर बिगुल, मार्च 2017


 

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