मारुति मानेसर प्लाण्ट के मज़दूरों की सज़ा के एक वर्ष पूरा होने पर
पूँजीवादी न्याय-व्यवस्था द्वारा पूँजी की चाकरी की पुरज़ोर नुमाइश

पिछले साल 18 मार्च को गुड़गाँव के ट्रायल कोर्ट ने मारुति मानेसर प्लाण्ट के 148 गिरफ़्तार मज़दूरों में से 31 को दोषी क़रार दिया था जिसमें 13 मज़दूरों को हत्या के जुर्म का ज़िम्मेदार ठहराते हुए आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गयी। इसमें ग़ौर करने वाली बात यह है कि ये 13 मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में थे। बाक़ी 117 लोग जो जेल में चार साल की सज़ा भुगत चुके थे, को आरोपमुक्त कर दिया गया। मारुति सुज़ुकी के मानेसर प्लाण्ट में 2011 से ही प्रबन्धन और मज़दूरों के बीच लगातार तनाव और टकराव की स्थिति मौजूद रही थी। मज़दूर अपनी यूनियन पंजीकृत कराने और काम की अमानवीय स्थितियों पर ध्यान दिलाने की ओर भी लगातार संघर्षरत थे। इन्हीं टकराव की स्थितियों के बीच 18 जुलाई 2012 को यह घटना घटी जिसमें मानेसर प्लाण्ट के अन्दर ही एक एचआर मैनेजर अवनीश कुमार देव की मृत्यु हो गयी। इस आरोप में 148 मज़दूरों को हत्या व हत्या के प्रयास के जुर्म में जेल में डाल दिया गया। इन 148 के इतर 66 मज़दूरों पर अलग से मुक़दमे दायर किये गये। घटना के तुरन्त बाद 546 स्थायी व 1800 ठेका मज़दूरों को काम से निकाल बाहर किया गया। इस पूरे मामले की लम्बी सुनवाई के बाद 10 मार्च को 31 में से 13 लोगों पर हत्या, हत्या के प्रयास, आगजनी, षड्यन्त्र के आरोप तय किये गये थे। बाक़ी 18 पर मारपीट, चोट पहुँचाने और अनधिकृत प्रवेश, जमघट लगाने के आरोप तय हुए थे।

इस फ़ैसले ने पूँजीवादी न्याय-व्यवस्था के नंगे रूप को उघाड़कर रख दिया है! यह मुक़दमा बुर्जुआ राज्य के अंग के रूप में न्याय-व्यवस्था की हक़ीक़त दिखाता है। यह राज्य-व्यवस्था और इसी का एक अंग यह न्याय-व्यवस्था पूँजीपतियों और उनके मुनाफ़े की सेवा में लगी है, मज़दूरों को इस व्यवस्था में न्याय नहीं मिल सकता है। मारुति के 148 मज़दूरों पर चला मुक़दमा, उनकी गिरफ़्तारी और 4 साल से भी ज़्यादा समय के लिए जेल में बन्द रखा जाना, इस पूँजीवादी न्यायिक व्यवस्था के चेहरे पर लगा नक़ाब पूरी तरह से उतारकर रख देता है। यह साफ़ कर देता है कि मारुति के 31 मज़दूरों को कोर्ट ने इसलिए सज़ा दी है ताकि तमाम मज़दूरों के सामने यह मिसाल पेश की जा सके कि जो भी पूँजीवादी मुनाफ़े के तन्त्र को नुक़सान पहुँचाने का जुर्म करेगा पूँजीवादी न्याय की देवी उसे क़तई नहीं बख़्शेगी।

इस पूरे मामले ने राज्यप्रशासन, पुलिस, न्यायपालिका और मारुति कम्पनी के नापाक गँठजोड़ को खुले तौर पर नंगा कर दिया है। किस तरह पूँजीपतियों की चाकरी में लगी राज्य-मशीनरी वक़्त पड़ने पर अपने आकाओं का पक्ष लेते हुए मज़दूरों के खि़लाफ़ किसी भी हद तक जा सकती है, इस मामले में यह साफ़ देखा जा सकता है। मज़दूरों के खि़लाफ़ कोई सबूत न होते हुए भी, पुलिस कम्पनी-मैनेजमेण्ट के द्वारा दी गयी लिस्ट के आधार पर सैकड़ों मज़दूरों को गिरफ़्तार कर लेती है, उन पर झूठे मुक़दमे दर्ज करती है, उन्हें पुलिस हिरासत में बर्बर तरीक़े से टॉर्चर करती है, झूठे तथ्य और सबूत जुटाती है तथा झूठे गवाह खड़े करती है।

इसके बाद सभी शंकाओं-सन्देहों से ऊपर कही जाने वाली न्याय-प्रणाली अपने मज़दूर-विरोधी चरित्र की नुमाईश करती है। सरकारी वकील को मज़दूरों की ज़िन्दगी से ज़्यादा चिन्ता विदेशी पूँजी-निवेश की थी। उसका कहना था कि एक तरफ़ जब मोदी जी देश में ‘मेक इन इण्डिया’ को बढ़ावा दे रहे हैं, ऐसे में मारुति जैसी घटनाएँ इस देश के लिए एक धब्बा हैं। सरकारी वकील साहब के लिए देश का मतलब सिर्फ़ पूँजीपति, नौकरशाह और आम जनता का ख़ून चूसने वाले लुटेरों की एक छोटी-सी जमात है, यह तो साफ़ है। मज़दूर उनके लिए किसी गुलाम से ज़्यादा नहीं जिनका काम बिना सर उठाये चुपचाप पूँजी के जुए तले पिसना है और अगर वह आवाज़ उठाता है तो उसकी जगह सिर्फ़ जेल है। कोर्ट बुर्जुआ क़ानूनों के पहले से ही ढीले-पोले मानकों को भी धता बताते हुए साफ़-साफ़ पूँजी के पक्ष में खड़ा दिखायी  देता है। ग़ौरतलब है कि बुर्जुआ क़ानून भी यह कहता है कि जब तक किसी व्यक्ति का गुनाह साबित नहीं हो जाता, तब तक वह व्यक्ति बेगुनाह माना जाता है और गुनाह साबित करने की जि़म्मेदारी अभियोजन पक्ष (सरकार) की होती है तथा गुनाह को साबित करने का आधार अकाट्य सबूत व तथ्य होते हैं। लेकिन यहाँ कोर्ट उल्टा मज़दूरों को ही अपने को बेगुनाह साबित करने के लिए कहता है, पुलिस के झूठे सबूतों को नज़रअन्दाज़ कर देता है, पुलिस के द्वारा खड़े किये गये झूठे गवाहों की गवाही को तो मान्यता देता है लेकिन मज़दूरों के सही तर्कों को एकदम खारिज़ कर देता है।

इस केस की पूरी कार्यवाही में न्यायपालिका के मज़दूर विरोधी रवैये की बानगी नीचे लिखी घटनाओं से मिलती है:

1) कोर्ट में चली कार्यवाही के दौरान हत्या व आगजनी के आरोप में गिरफ़्तार मज़दूरों के खि़लाफ़ कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं पाया गया, न ही कोई सीसीटीवी की रिकॉर्डिंग थी और न ही अभियोजन पक्ष के गवाह किसी भी मज़दूर को पहचान ही सके!

2) 18 जुलाई 2012 को मुठभेड़ की घटना क़रीब 7:20 पर शाम में हुई परन्तु प्लाण्ट के बाहर सुबह 11 बजे से ही पुलिस फ़ोर्स की तैनाती थी पर पुलिस को तब तक अन्दर नहीं घुसने दिया गया जब तक हालात नियन्त्रण से बाहर नहीं हो गये। यह बिलकुल साफ़ दिखा रहा है कि यह प्रशासन द्वारा रचा गया षड्यन्त्र था। कम्पनी के द्वारा मज़दूरों के कपड़ों में भाड़े के गुण्डे और बाउंसर भी मज़दूरों पर हमला करने के लिए सुनियोजित तरीक़े से प्लाण्ट में बुलाये गये थे।

3) एक तरफ़ एफ़आईआर में यह उल्लेख किया गया है कि क़रीब 400-500 की संख्या में मज़दूर लाठियों, डण्डों और सरियों के साथ प्लाण्ट में प्रवेश हुए थे जिनसे उन्होंने मैनेजमेण्ट के लोगों को मारा, परन्तु जब उन गवाहों से यह पूछा गया कि इतनी बड़ी संख्या में मज़दूर हथियारों के साथ फ़ैक्टरी गेट, जिस पर हमेशा सिक्योरिटी गार्ड रहते हैं, से प्रवेश कैसे कर सकते है तो ये गवाह अपने बयान से पलट गये और कहने लगे कि मज़दूरों ने फ़ैक्टरी के अन्दर से ही शॉकर और दरवाज़ों की चौखटों से हमला किया था। लेकिन कोर्ट ने गवाहों के बयानों की इन सब विसंगतियों पर कोई ध्यान नहीं दिया।

4) इस पूरी कार्यवाही के दौरान एक और बात ग़ौर करने लायक थी। 147 में से 89 मज़दूरों के नाम चार ठेकेदारों द्वारा वर्णानुक्रम के अनुसार दिया गया था। कोर्ट में पेश किये गये पेपर के आधार पर यह पाया गया कि वीरेन्दर नामक एक गवाह ने उन 25 मज़दूरों के नाम दिये जिनका नाम A-G तक से शुरू होता है, इसी प्रकार एक दूसरे गवाह याद राम ने अन्य 25 मज़दूरों के नाम दिये जिनके नाम G-P तक से शुरू होते थे, अशोक राना ने 26 मज़दूरों के नाम दिये जो P-S से शुरू होते थे व अन्य एक गवाह ने बाक़ी 13 मज़दूरों के नाम दिये जो S-Y से शुरू होते थे। ऐसा भला कैसे सम्भव है? FIR में इन लिस्टों को देने का जो समय दिखाया गया है, पुलिस रिकाॅर्ड के अनुसार उससे पहले ही पुलिस मज़दूरों को गिरफ़्तार कर चुकी थी। मज़दूरों की तरफ़ से इस तथ्य को कोर्ट के सामने लाना एक मुख्य कारण था कि कोर्ट को 117 मज़दूरों को बरी करना पड़ा था। लेकिन चूँकि मज़दूरों को सबक़ सिखाना भी ज़रूरी था, इसलिए यूनियन के नेतृत्व के 13 मज़दूरों समेत 31 मज़दूरों के मामले में कोर्ट द्वारा इस तथ्य की अनदेखी कर दी गयी।

5) बाक़ी जिस आगजनी की घटना का आरोप मज़दूरों पर लगाया गया है, उस घटना में कोई प्रमाण नहीं मिला है और न ही कोई गवाह ही बता पाया कि आग कैसे लगी व किसने लगायी। यहाँ पर कोर्ट द्वारा एक बहुत ही विचित्र तर्क पेश किया गया। दरअसल, सरकारी पक्ष यह साबित ही नहीं कर पाया कि आग कब लगी, कैसे लगी और किसके द्वारा लगायी गयी। जब एक मज़दूर ने कोर्ट को यह बताया कि आग कम्पनी के द्वारा बुलाये गये भाड़े के गुण्डों में से एक ने लगायी थी लेकिन वह उस गुण्डे को नहीं पहचानता है तो जज साहब का यह कहना था कि चूँकि यह मज़दूर उस गुण्डे को नहीं पहचान सकता जिसने आग लगायी थी इसलिए इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आग स्वयं मज़दूरों ने ही लगायी हो!!?? ऐसी विचित्र तर्क-प्रणाली को सुनकर तो पूँजीवादी न्याय की मज़दूरों के लिए अन्धी देवी भी अपनी आँखों से काली पट्टी उतारकर इन जज साहब को एक बार घूरकर देखने के लिए कसमसा उठी होंगी।

6) 18 जुलाई की घटना में कम्पनी के मैनेजर अवनीश देव के पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के अनुसार उसकी मौत दम घुटने से हुई थी। गवाही के दौरान डॉक्टरों ने बार-बार यह बताया कि जिन चोटों के निशान उसके शरीर पर थे, वे चोटें किसी कठोर सतह पर गिरने से भी आ सकती हैं और मृत्यु के लिए पर्याप्त नहीं हैं। डाॅक्टरी रिपोर्ट से भी कहीं साबित नहीं होता कि अवनीश देव की मृत्यु कोई हत्या का मामला है। यानी 302 व 307 की जो धाराएँ लगायी गयी हैं, वे कहीं से भी जायज़ नहीं।

7) कोर्ट ने यह भी माना कि पुलिस वालों ने मज़दूरों को बेवजह फँसाने और उनके खि़लाफ़ मामले को और गम्भीर बनाने के लिए बिना डॉक्टर के पास गये अपनी झूठी एमएलसी रिपोर्टें कोर्ट में दाखि़ल कीं। लेकिन यहाँ भी कोर्ट ने एक विचित्र तर्क पेश किया कि हालाँकि यह साफ़ है कि एमएलसी रिपोर्टे झूठी हैं, लेकिन इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि सभी चश्मदीद गवाहों की चोटें झूठी हैं। (अब तो न्याय की देवी के भी सर में दर्द होने लगा होगा और वह अपने स्थान से उतरकर कोर्ट के पीछे की कैण्टीन में चाय पीने के लिए व्याकुल हो रही होंगी।)

पीयूडीआर की एक हालिया रिपोर्ट में भी इस मुक़दमे की सुनवाई के दौरान और इसके फ़ैसले से जुड़ी ऐसे ही तमाम विसंगतियों, विचित्र तर्कों इत्यादि को दिखाया गया है।

लुब्बे-लुबाब यह कि मुनाफ़े के तराजू में मज़दूरों की जि़न्दगी की कोई क़ीमत नहीं है। मैनेजमेण्ट के व्यक्ति की मौत को बहाना बनाकर 148 मज़दूरों को जेलों में सड़ा दिया जाता है परन्तु क्या कभी आज तक कोई पूँजीपति मज़दूरों को फै़क्टरियों में मौत के घाट उतारने, मज़दूरों के हक़ों को छीनने के जुर्म में गिरफ़्तार भी किया गया या एक रात भी हवालात में गुज़ार कर आया है? कल-कारख़ानों में दमन किसी अख़बार के पन्ने पर ख़बर नहीं बनती जबकि अपने ख़ून-पसीने की कमाई की माँग करने वाले मज़दूरों को सड़क पर उतरने पर मुज़रिम घोषित कर दिया जाता है।

यह न्यायालय बिना ठोस सबूतों के 4 सालों तक मज़दूरों को जेल में सड़ा सकती है, लेकिन ऑटोमोबाइल सेक्टर में आये दिन मज़दूरों पर हो रहे अत्याचारों और श्रम क़ानूनों के नंगे हनन की रोकथाम के लिए उसकी यही तत्परता हवा हो जाती है। मारुति की घटना के ज़रिये पूँजीवादी राज्य-मशीनरी ने मज़दूरों को एक नज़ीर पेश की है कि जो भी संगठित होने या पूँजी के चक्र को थामने की कोशिश करेगा, उसे यह व्यवस्था कुचल देगी। ख़ुद कोर्ट ने इस दबाव की पुष्टि अपने उस फ़ैसले में की थी, जब मज़दूरों को जमानत देने से मना करने के पीछे कोर्ट ने पूँजी के निवेश को ख़तरा होने और फै़क्टरियों के वहाँ से हट जाने की बात करते हुए मज़दूरों को ‘सबक़’ सिखाने की बात की। परन्तु यह मुनाफ़ाख़ोर व्यवस्था मज़दूरों के प्रतिरोध करने की जि़द को नहीं तोड़ पायी है। मारुति मज़दूरों के संघर्ष के आगाज़ के बाद से गुड़गाँव-धारूहेड़ा-बवाल-नीमराना-टप्पूकड़ा की पूरी ऑटोमोबाइल बेल्ट मज़दूरों के ऐसे ही स्फुट आन्दोलनों की साक्षी बनी जिन्हें पुलिस-प्रशासन द्वारा बर्बर तरीक़े से दबाया गया। मारुति मज़दूरों के आन्दोलन के बाद पूँजीपतियों ने किसी भी मज़दूर संघर्ष को दबाने-कुचलने में कोई कोताही नहीं बरती। परन्तु यह दमन इस संघर्ष को रोक नहीं सकता बल्कि यह दावानल भड़क उठेगा। मारुति के मज़दूरों को जेलों में रखकर यह व्यवस्था जिस चिंगारी को हवा दे रही है, वह दावानल बन पूँजी के इस जंगल को ही ख़ाक कर देगी।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2018


 

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