सोवियत संघ में सांस्कृतिक प्रगति – एक जायज़ा

मानव

(दूसरी किश्त

पिछली किश्त में हमने सोवियत संघ में पुस्तकालयों की स्थापना और सोवियत सरकार की तरफ़ से इसके फैलाव और आम लोगों तक पहुँचाने के लिए उठाये गये क़दमों के बारे में जाना था। और साथ ही देखा था कि भारत में इसके मुकाबले पुस्तकालयों के विस्तार के लिए प्रयास बहुत ही धीमे रहे हैं और पिछले कुछ समय से तो केन्द्र और राज्य सरकारों का इस ओर बिल्कुल ही ध्यान नहीं है। इस बार हम कला के संस्थानों का जायज़ा लेंगे और इसको भी भारत की स्थिति के मुकाबले में समझने की कोशिश करेंगे।

लाल सेना का थिएटर

पहले हम नाटकघरों और फ़िल्म प्रोजेक्टरों एवं फ़िल्म स्क्रीनों की बात करेंगे। 1917 की समाजवादी क्रान्ति को अंजाम देने वाली बाेल्शेविक पार्टी कला की अहमियत के प्रति पूरी सचेत थी। वह जानती थी कि कला लोगों के आत्मिक जीवन को ऊँचा उठाने, उनको सुसंकृत बनाने में कितनी सहायक होती है। अभी जब सिनेमा अपने शुरुआती दौर में ही था, तो हमें उसी समय पर ही लेनिन का वह प्रसिद्ध कथन मिलता है, जो उन्होंने लुनाचार्स्की के साथ अपनी मुलाक़ात के दौरान कहा था, “सब कलाओं में से सिनेमा हमारे लिए सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है।” क्रान्ति के फ़ौरन बाद ही से सोवियत सरकार की तरफ़ से बाेल्शेविक पार्टी की इस समझ पर अमल का काम भी शुरू हो गया। जल्द ही ये प्रयास किये गये कि पूरे सोवियत संघ में संस्कृति के केन्द्रों का विस्तार किया जाये।

हासिल आँकड़ों के मुताबिक़ साल 1914 में (1956 की सीमाओं के मुताबिक़, न कि 1914 के अकेले रूस की सीमाओं के मुताबिक़) रूस में कुल 172 नाटकघर थे। इनमें घुमन्तू नाटकघर कोई नहीं था। 1949 में यह संख्या बढ़कर 696 नाटकघरों तक पहुँच गयी और 1956 में 508 नाटकघर सोवियत संघ में मौजूद थे जिनमें से 423 तो अचल (स्थायी) थे, जबकि 85 नाटकघर घुमन्तू थे। घुमन्तू नाटकघर स्थापित करने के पीछे मक़सद यह था कि इनको दूर-दराज़ के इलाक़ों में, दुर्गम इलाक़ों में या फिर युद्ध के मोर्चों पर भी भेजा जा सकता था। यह सवाल उठना लाज़िमी है कि 1949 में यदि 696 नाटकघर थे तो 1956 में यह संख्या घटकर 508 क्यों रह गयी? यहाँ हम सोवियत नागरिकों के सामाजिक जीवन के एक अन्य दिलचस्प पहलू से वाबस्ता होते हैं। नाटकघरों की स्थापना और उनमें होते नाटक कोई एकतरफ़ा चीज़ नहीं थी। लोग इन नाटकों को देखते और सराहते थे और साथ ही खराब खेले गये नाटकों को दर्शकों की नापसन्दगी का सामना भी करना पड़ता था। इस तरह सोवियत संघ में नाटकों का मंचन एक जीवन्त अमल था, जिसमें दर्शक भी बराबर के भागीदार थे। इसीलिए साल 1948-49 के दौरान कुछ नाटकघरों का विस्तार होने से और कुछ नाटकघर जो कि दर्शकों के सौन्दर्यात्मक स्तर पर खरे नहीं उतर सके थे, उनके बन्द हो जाने से हमें नाटकघरों की इस कुल संख्या में गिरावट नज़र आती है। संख्या में इस गिरावट का लोगों की रुचि पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ा था, बल्कि नाटकघरों में जाने वाले लोगों की संख्या पहले की अपेक्षा बढ़ती गयी। जैसे कि 1948 में नाटकघरों में जाने वाले लोगों की संख्या 5.90 करोड़ थी जो कि 1955 में बढ़कर 7.8 करोड़ हो गयी।

जिस तरह दूर-दराज़ के और रूस से बाहर के इलाक़ों में भी पुस्तकालयों का प्रसार किया गया था। उसी तरह सोवियत सरकार की तरफ़ से ऐसे इलाक़ों में भी नाटकघरों का विस्तार किया गया जिनमें या तो क्रान्ति से पहले कोई नाटकघर था ही नहीं, या फिर बहुत कम थे। मिसाल के तौर पर तुर्कमेनिस्तान, आर्मीनिया, ताजीकिस्तान, किरग़ीज़स्तान में 1914 में एक भी नाटकघर नहीं था। इन देशों में 1946 तक क्रमवार 12, 28, 16 और 10 नाटकघर स्थापित किये जा चुके थे। जबकि उज़्बेकिस्तान, कज़ाख़स्तान, जार्जिया, अज़रबैजान, लिथुआनिया और लातविया में 1914 में क्रमवार 1, 2, 3, 2, 1 और 2 नाटकघर थे जो कि 1946 में बढ़कर क्रमवार 47, 41, 47, 28, 11 और 13 हो गये। एक अन्य दिलचस्प बात यह है कि कुल नाटकघरों में से कुछ तो ख़ास बच्चों और किशोरों के लिए ही थे। जैसे कि 1954 में कुल 513 नाटकघरों में से 101 ख़ास बच्चों और किशोरों के लिए ही आरक्षित थे।

अब बात करते हैं फ़िल्म प्रोजेक्टरों की। सोवियत संघ में साल 1950 में कुल 21,600 सिनेमाघर थे जिनमें कुल सीटें 30 लाख थीं। यह संख्या पाँच सालों में ही, यानी 1955 तक बढ़कर 33,300 सिनेमाघर और 45 लाख सीटें हो गयीं। सोवियत संघ की यदि 1956 की सीमाओं को मानकर चलें तो यहाँ 1914 में कुल 1510 फ़िल्म प्रोजेक्टर थे। यह संख्या 1933 में 27,578 और 1954 तक 52,288 तक हो गयी थी। यहाँ एक और बात ग़ौरतलब है कि 1941-45 तक, यानी युद्ध के समय में, फ़िल्म प्रोजेक्टरों की संख्या आधी रह गयी थी। यानी वह युद्ध में तबाह हो गये थे। सोवियत सरकार की यह नीति थी कि पुस्तकालय सोवियत संघ के हर क्षेत्र में पहुँचने चाहिए न कि केवल रूस या युक्रेन (जो कि सोवियत संघ के दो सबसे बड़े भू-भाग थे) में ही केन्द्रित होकर रह जाने चाहिए। यह नीति ज़ारशाही के समय से बिलकुल उल्ट थी, क्योंकि उस वक़्त हर सांस्कृतिक गतिविधि का केन्द्र रूस या युक्रेन का इलाक़ा होता था और उसमें भी रूस का वह इलाक़ा जो यूरोप की सीमाओं के साथ लगता था। एशियाई इलाक़े को बिलकुल अनदेखा किया जाता था, उनको ज़बरदस्ती अपने साथ नत्थी करके रखा जाता था और उनके ऊपर रूसी प्रभुत्व क़ायम करके रखा जाता था। लेकिन क्रान्ति के बाद ये हालात बदले। 1914 में ऐसे कई इलाक़े थे जहाँ या तो एक भी फ़िल्म-प्रोजेक्टर नहीं था (जैसे कि ताजिकिस्तान का इलाक़ा) या फिर 5-6 प्रोजेक्टर ही थे (जैसे कि एस्तोनिया, तुर्कमेनिस्तान, आर्मीनिया, किर्गिज़स्तान, लिथुआनिया, आदि)। लेकिन 1954 तक स्थिति काफ़ी बदली हुई थी। ताजिकिस्तान में 1933 तक 44 और 1954 तक 361 फ़िल्म-प्रोजेक्टर आ चुके थे। यही प्रगति ऊपर गिनाये गये इलाक़ों के मामले में भी थी जिनको भी सैकड़ों की गिनती में फ़िल्म-प्रोजेक्टर प्रदान किये गये थे।

सोवियत सरकार की ओर से सिनेमा को, कला के इस सबसे नये और उन्नत रूप को दिये गये बढ़ावे के चलते अच्छा सिनेमा देखना सोवियत लोगों के जीवन का एक ज़रूरी अंग बनता जा रहा था। मिसाल के लिए, साल 1950 में कुल 1,14,39,65,000 टिकटें बिकी थीं, यानी 114 करोड़ से भी ज़्यादा। पाँच साल के अन्दर ही यह संख्या दो गुना से ज़्यादा बढ़कर साल 1955 में 2,50,54,50,000 तक पहुँच चुकी थी! साल 1959 में सोवियत संघ की आबादी लगभग 20 करोड़ थी। यानी, सोवियत संघ की कुल आबादी में से 25% ऐसी थी जो हर हफ़्ते सिनेमा देखने जा रही थी! सोवियत संघ में अमेरिका या भारत के मुकाबले साल में कम ही फ़िल्में बनती थीं, लेकिन उस वक़्त यह एक आम बात थी। सवाल गिनती का नहीं, गुण का है। ग़ौर करने की बात है कि यदि सोवियत संघ में उस वक़्त कम फ़िल्में बनती थीं तो फिर इतनी टिकटें कैसे बिक जाती थीं ? साफ़ है कि सोवियत संघ में दूसरे देशों की फ़िल्में, जिसमें भारत की फ़िल्में भी शामिल थीं, दिखाने को तरजीह दी जाती थी। यह एक सीधा, सरल सा तर्क है लेकिन यह उन कुत्सा-प्रचारकों को एक अच्छा जवाब है जो सोवियत संघ के ऊपर ये दोष लगाते हैं कि वहाँ पश्चिमी देशों के कला-साहित्य को आने नहीं दिया जाता था।

सोवियत संघ के बारे में ऊपर दिये गये आँकड़ों के बाद अब ज़रा भारत की स्थिति पर एक नज़र डालते हैं। हालाँकि भारत में हमें ऐसी संस्थाओं के बारे में कोई भी सरकारी या आधिकारिक आँकड़े नहीं मिलते। नाट्य-घरों के बारे में भारत के लिए हमें कोई आँकड़े नहीं मिलते। लेकिन यदि सीधे प्रेक्षणों के आधार पर अन्दाज़ा लगाना हो तो कोई अच्छी तस्वीर सामने नहीं आती। मिसाल के तौर पर, इस समय चण्डीगढ़ में टैगोर थियेटर और पंजाब कला भवन, दो ही स्थापित नाट्य-घर हैं। यदि पंजाब की बात करें तो अमृतसर, जालन्धर, पटियाला वग़ैरा में ही कोई नाट्य-घर नज़र आते हैं। लेकिन इसके अलावा बाक़ी पंजाब में स्थिति बंजर ही है। यदि दिल्ली को देखें तो इतने बड़े शहर के लिहाज़ से इनकी संख्या बहुत ही कम है। यानी पंजाब और दिल्ली और इसके आस-पास की करोड़ों की आबादी के लिए भी शायद ही 30-35 नाट्य-घर होंगे! इसी तरह उत्तर प्रदेश की कुल आबादी इस समय 20 करोड़ के लगभग है, यानी जितनी कि सोवियत संघ की आबादी 1955 में थी। इतने बड़े राज्य में बमुश्किल 50 या 60 नाट्य-घर होंगे, और उनमें से भी अनेक की हालत खस्ता है। ऊपर से जो नाट्य-घर हैं भी उनमें भी मेहनतकश आबादी तो दूर, निम्न मध्यम वर्ग के लोग भी शायद ही कभी नाटक देखने जा पाते हैं।

यह बात दुरुस्त है कि सालाना फ़िल्में बनाने के मामले में तो भारत का सिनेमा (बाॅलीवुड और अन्य क्षेत्रीय सिनेमा) दुनिया में पहले नम्बर पर है, लेकिन यह सिर्फ़ गिनती के लिहाज़ से है, गुण के लिहाज़ से नहीं! लेकिन इस समय भी सिनेमा स्क्रीन इस देश की आबादी और विस्तार के लिहाज़ से काफ़ी कम हैं। भारत में इस समय कुल सिनेमा स्क्रीन (मल्टीप्लेक्स और सिंगल स्क्रीनों को मिलाकर) 10,000 से कुछ कम हैं। लेकिन इनका फैलाव बहुत असमान है। मिसाल के लिए, यदि हम सिर्फ़ आन्ध्रप्रदेश और केरल को गिनें, तो इन दो राज्यों में ही 4,000 के करीब सिनेमा स्क्रीन हैं। जबकि पूर्वोत्तर में असम को छोड़कर सात राज्यों – अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम, नगालैण्ड, सिक्किम, त्रिपुरा, मणिपुर, मेघालय में कुल फ़िल्म स्क्रीनों की गिनती सिर्फ़ 27 ही है और इसमें से भी अकेले मणिपुर में 10 स्क्रीन हैं। आबादी के लिहाज़ से स्क्रीनों के घनत्व की बात करें तो स्थिति और भी साफ़ होती है। सोवियत संघ में 1955 में 20 करोड़ की आबादी के पीछे 33,300 फ़िल्म स्क्रीनें थीं, जबकि भारत में इस समय 120 करोड़ की आबादी के पीछे 10,000 स्क्रीनें ही हैं। यानी सोवियत संघ में 10 लाख की आबादी के पीछे 166 स्क्रीनें थीं जबकि भारत में 10 लाख की आबादी के पीछे सिर्फ़ 8 स्क्रीनें ही हैं। घनत्व के मामले में तो अमेरिका में भी साल 2014 तक 10 लाख के पीछे 125 स्क्रीनें ही थीं। लोगों की सिनेमा देखने की रुचि को विचारें तो हम देखते हैं कि साल 2016 में भारत में कुल 220 करोड़ टिकटें बिकी थीं। जबकि सोवियत संघ में 1955 में 250 करोड़ से ज़्यादा टिकटें बिकी थीं। याद रहे कि सोवियत संघ में 1955 के समय की आबादी से भारत की अब की आबादी भी 6 गुना से ज़्यादा है। इतना ज़रूर है कि 1955 में टेलीविज़न की परिघटना अभी आम नहीं हुई थी जबकि आज के भारत में इनकी संख्या काफ़ी ज़्यादा है। लेकिन उस समय सोवियत संघ में यदि टीवी आम होता तो सिनेमा जाने वालों की आबादी बढ़ती या कम होती यह एक कयास की बात हो जायेगी। अभी हमारे पास जो तथ्य हैं, उसी के आधार पर बात करना ठीक होगा। इतना ज़रूर है कि सोवियत समाज में अकेले अपने कमरों में बैठकर टीवी के आगे ध्यान लगाने के बजाय सामाजिक जीवन, सामाजिक मनोरंजन को अधिक प्रोत्साहित किया जाता। भारत में लोगों की सिनेमा तक कम पहुँच की एक वजह सिनेमा की टिकटों का महँगा होना भी है। सोवियत संघ में ऐसा नहीं था। वहाँ पर चूँकि सिनेमा पर किसी का निजी स्वामित्व नहीं था, इसीलिए इससे कोई मुनाफ़ा नहीं कमाया जा सकता था, बल्कि इसका मक़सद ही लोगों तक इस आधुनिक और महान ईजाद को पहुँचाना था। इसीलिए इतने कम समय में ही वहाँ पर सिनेमाघरों का इतना जाल बिछा और लोगों तक इसकी इतनी पहुँच हो सकी।

पुस्तकालयों के बाद हमने सोवियत संघ में क्रान्तिकारी दौर के समय में (स्तालिन की मृत्यु तक) नाट्य-घरों और सिनेमा के क्षेत्र में हुई ज़बरदस्त प्रगति को देखा। इन आँकड़ों के बाद हमने इस स्थिति की भारत के साथ तुलना की और देखा कि कैसे भारत में हम 70 साल से पूँजीवादी रास्ते पर चलकर भी अभी सोवियत संघ के महज़ छत्तीस सालों के क्रान्तिकारी, समाजवादी दौर की उपलब्धियों से भी कितना पीछे हैं। इससे यही साबित होता है कि मानवता की असल बेहतरी, साहित्य-कला की प्रगति की असल बुनियाद सिर्फ़ एक ऐसे समाज में रखी जा सकती है जहाँ पर कि बहुसंख्यक आबादी की रोटी, कपड़ा, मकान जैसी बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो चुकी हों। और ऐसा समाज एक समाजवादी समाज ही हो सकता है, ना कि पूँजीवादी समाज जहाँ कि आबादी का बाहुल्य अभी भी अपनी बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति के लिए अपनी ज़िन्दगी का ज़्यादा समय ख़र्च कर देता है। इस लेख के अगले हिस्से में हम सोवियत संघ में हुई सांस्कृतिक प्रगति के एक अन्य पहलू को देखेंगे।

 

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2018


 

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