अम्बानी का जियो इंस्टीट्यूट – पैदा होने से पहले ही मोदी ने तोहफ़ा दे दिया!

अविनाश

मानव संसाधन विकास मन्त्रालय द्वारा 8 जून 2018 आईआईएससी बेंगलुरु, आईआईटी दिल्ली, आईआईटी बाॅम्बे, बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी पिलानी सहित 6 संस्थानों को उत्कृष्ट संस्थान का दर्जा देने की घोषणा की गयी। मन्त्रालय ने जियो इंस्टीट्यूट को भी उत्कृष्ट संस्थान का दर्जा प्रदान कर दिया जिसका अभी न तो कहीं कोई अस्तित्व है और न ही कोई ब्लूप्रिण्ट तैयार है। सरकार के इस फै़सले का जब चौतरफ़ा विरोध होने लगा तो मन्त्रालय द्वारा इसकी सफ़ाई में जो तर्क पेश किया गया, वह असल में पुरे मुद्दे को घोल-मठ्ठा बना दे रहा है। प्रकाश जावेडकर का कहना है कि जियो इंस्टीट्यूट को ‘इंस्टीट्यूट ऑफ़ एमिनेन्स’ के लिए ग्रीनफ़ील्ड कैटेगरी में चुना गया है। यह एक ऐसी कैटेगरी है, जिसमें उन संस्थानों को शामिल किया है, जो अभी अस्तित्व में नहीं हैं और जल्द ही बनने जा रहे हैं। ग्रीनफ़ील्ड कैटेगरी के लिए आये आवेदनों में 4 मापदण्डों के आधार पर जियो इंस्टीट्यूट को उत्कृष्ट संस्थान का दर्जा देने के लिए चुना गया। 1. संस्थान बनाने के लिए भूमि की उपलब्धता।
2. बहुत उच्च योग्यता। 3. संस्थान बनाने के लिए आवश्यक फ़ण्ड की उपलब्धता। 4. सालाना लक्ष्य और कार्य योजना का होना।

जब तक कोई संस्थान भौतिक तौर पर अस्तित्व में रहेगा ही नहीं तब योग्यता और सालाना लक्ष्य और कार्य योजना की बात करना सही मायने में ख़यालीपुलाव पकाने की बात करना होगा, जोकि भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इससे जुड़े हुए तमाम संगठन पिछले 4 सालों से ख़ुद तो पका ही रहे हैं, बाक़ी देश की जनता से भी यही आशा कर रहे हैं। इस फै़सले से मोदी सरकार ने एक बार फिर अम्बानी के प्रति अपनी वफ़ादारी को सिद्ध कर दिया ताकि आने वाले 2019 के आम चुनाव में ज़्यादा से ज़्यादा फ़ण्ड इकट्ठा किया जा सके।

असल मामला कुछ और ही है जिसको लोगों के सामने नहीं आने दिया जा रहा है। पूँजीवादी अर्थिक संकट के इस दौर में जब हर सेक्टर लगभग सन्तृप्त हो चुका है और मुनाफ़े की दर में लगातार हो रही गिरावट की वजह से पूँजीपति वर्ग परेशान है, तब पूँजी निवेश के लिए अलग-अलग सेक्टरों की तलाश की जा रही है। लेकिन पूँजी की प्रचुरता के कारण नये सेक्टर भी बहुत जल्दी सन्तृप्त हो जा रहे हैं। ऐसे में पूँजीपति वर्ग सरकार पर दबाव बनाती है कि शिक्षा, चिकित्सा जैसे बुनियादी चीज़ों को भी बाज़ार के हवाले कर दिया जाये। जिओ इंस्टीट्यूट खोलने के पीछे की असली बात यह है कि रिलायंस के द्वारा कारपोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी के मद का जो पैसा समाज कल्याण के लिए ख़र्च किया जाना चाहिए, उसे भी पूँजी के रूप में निवेश करके मुनाफ़ा पीटना चाहता है। आगे बढ़ने से पहले यह जान लेते हैं कि कारपोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी क्या है?

पूँजीवादी व्यवस्था में मुनाफ़े की अंधी हवस के लिए पूँजीपति जहाँ एक तरफ़ कल-कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों के श्रम को लूटते हैं, वही दूसरी तरफ़ प्राकृतिक संसाधनों का भी ज़बरदस्त दोहन करते हैं। बड़ी-बड़ी दैत्याकार कम्पनियों से निकलने वाले कचरे और धुएँ से पूरा पर्यावरण तबाह होता जा रहा है। पर्यावरण की इस बर्बादी की वजह से टीबी, कैंसर से लेकर तमाम तरह की त्वचा सम्बन्धी बीमारियाँ बहुत आम हो जाती हैं। इस लूट से लोगों का ध्यान भटकाने के लिए और तमाम कम्पनियों की छवि लोगों के बीच सुधारने के लिए पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी का काम करने वाली सरकारों ने भारत सहित पूरे विश्व में कम्पनियों के लिए यह अनिवार्य बना दिया गया कि वे अपनी मुनाफ़े का कम से कम 2% हिस्सा समाज कल्याण में ख़र्च करें। इसे ही कारपोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी (सीएसआर) कहा गया। भारत में कारपोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी (सीएसआर) के नियम 1 अप्रैल 2014 से लागू हैं। इसके अनुसार जिन कम्पनियाँ की सालाना कुल आय 500 करोड़ रुपये या सालाना आय 1000 करोड़ की या सालाना लाभ 5 करोड़ का हो तो उनको सीएसआर पर ख़र्च करना ज़रूरी होता है। यह ख़र्च तीन साल के औसत लाभ का कम से कम 2% होना चाहिए। कम्पनी मामलों के मन्त्रालय के आँकड़ों के अनुसार 2015-16 में 5097 कम्पनियाँ शामिल हैं जिनमें से सिर्फ़ 2690 ने कारपोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी गतिविधियों पर ख़र्च किया था। नियमों के अनुसार यह पैसा निम्न मदों में ख़र्च किया जाना चाहिए :

  1. भूख, ग़रीबी और कुपोषण को ख़त्म करना; 2. शिक्षा को बढ़ावा देना; 3. मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य सुधारना;
    4. पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित करना; 5. सशस्त्र बलों के लाभ के लिए उपाय; 6. खेल गतिविधियों को बढ़ावा देना; 7. राष्ट्रीय विरासत का संरक्षण; 8. प्रधानमन्त्री राष्ट्रीय राहत कोष में योगदान; 9. स्लम क्षेत्र का विकास और 10. स्कूलों में शौचालय का निर्माण।

सुनने में ये बातें काफ़ी अच्छी लगती हैं, लेकिन सच्चाई इसके ठीक उलट है। पर्यायवरण को दूषित कर रही वेदान्ता ग्रुप की कॉपर स्टरलाइट कम्पनी के खिलाफ़ जब तूतीकोरिन में जनता सड़कों पर उतरी तो निशानेबाजों को बुलाकर अान्दोलन के नेताओं की हत्या करा दी गयी। इन कम्पनियों को न ही पर्यायवरण की चिन्ता है, न ही लोगों की ज़िन्दगी की। वास्तव में, तमाम फ्रेंचाइजी और फ़ाउण्डेशन के माध्यम से शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में पैसा लगाकर भी अकूत मुनाफ़ा कमाने का एक पूरा धन्धा विकसित हो चुका है।

रिलायंस इण्डस्ट्रीज ने अपने सीएसआर फ़ण्ड के इस्तेमाल के लिए रिलायंस फ़ाउण्डेशन, रिलायंस लाइफ़ साइंस, रिलायंस सोलर आदि कई संस्था बनायी हैं, जिनमें से अधिकांश की कमान अम्बानी ने अपनी पत्नी, बेटे या बेटी को दे रखी है। इनमें से भी अधिकांश सीएसआर फ़ण्ड का इस्तेमाल रिलायंस फ़ाउण्डेशन करती है। साल 2017-18 के दौरान रिलायंस का कुल टर्नओवर 3 लाख 15 हज़ार 357 करोड़ का था जिसमें कर आदि का भुगतात करने के बाद उसे शुद्ध मुनाफ़ा 33,612 करोड़ रुपये का हुआ। कम्पनी क़ानून के अनुसार शुद्ध मुनाफ़े का 2% हिस्सा सीएसआर में जाना चाहिए जो लगभग 745 करोड़ रुपये बैठता है। रिलायंस इण्डस्ट्रीज ने 2016-17 में 132 करोड़ रुपये ग्रामीण क्षेत्रों में इन्फ्रास्ट्रक्चर में, 267 करोड़ रुपये चिकित्सा के क्षेत्र में, 221 करोड़ रुपये शिक्षा के क्षेत्र में और 24 करोड़ रुपये खेल पर ख़र्च किया था।

2017-18 के आँकड़ों के अनुसार कम्पनी ने स्वास्थ्य पर किये जाने वाले ख़र्च को 267 करोड़ रुपये से घटाकर 148 करोड़ रुपये कर दिया, लेकिन शिक्षा पर किये जाने वाले ख़र्च को 221 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 371 करोड़ रुपये कर दिया। अब यही रिलायंस फ़ाउण्डेशन, जिसकी अध्यक्ष नीता अम्बानी हैं, जियो यूनिवर्सिटी बनायेगा, जिसे पहले ही भाजपा सरकार ने उत्कृष्ट संस्थान का तमगा दे दिया है। यह यूनिवर्सिटी उच्च शिक्षा के क्षेत्र में काम करेगी, जहाँ पढ़ने के लिए आम जनता के बेटे-बेटियाँ मोटी रक़म फ़ीस के रूप में चुकायेंगे जो मुनाफ़े के रूप में वापस रिलायंस के पास पहुँच जायेगा। ऊपर से अम्बानी के ”प्रधान सेवक” मोदी की सरकार ने उसे जन्म से पहले ही 1000 करोड़ का अनुदान पाने वालों की सूची में डाल दिया है।

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2018


 

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