सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़ों को दिये गये 10 प्रतिशत आरक्षण के मायने

इन्द्रजीत

मोदी सरकार की कैबिनेट ने सामान्य वर्ग में आर्थिक रूप से पिछड़ों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने का फ़ैसला किया है। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मन्त्री थावर चन्द गहलौत ने विगत 7 जनवरी को लोकसभा में 124वाँ संविधान संशोधन विधेयक पेश किया। लोकसभा और राज्यसभा में सरकार द्वारा पेश विधेयक पर यानी सामान्य वर्ग को आर्थिक आधार पर 10 फ़ीसदी आरक्षण देने के सवाल पर विपक्ष की भी सहमति दिखी। या कहा जा सकता है कि शीतकालीन सत्र के अन्तिम दूसरे दिन प्रस्तुत इस विधेयक का विरोध करके कौन अपने वोट बैंक से बुराई मोल ले! क्या लेफ़्ट, क्या राइट और क्या सेण्टर सभी दबी ज़ुबान से कुछ भुनभुनाने के अलावा सरकार के सुर में सुर मिला रहे हैं। लोकसभा और राज्यसभा में बिल पारित होने के बाद संविधान में 124वाँ संशोधन सम्पन्न होने की तरफ़ बढ़ा। राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द ने भी संविधान संशोधन को अपनी मंजूरी दे दी है जिसके साथ ही इस विधेयक को क़ानूनी मान्यता मिल गयी। यही नहीं गुजरात सरकार ने तो इसे लागू भी कर दिया है। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मन्त्रालय इस 10 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधानों से जुड़े नियम-क़ायदे प्रस्तुत नहीं कर पाया है। हालाँकि आर्थिक आधार पर दिये गये 10 प्रतिशत आरक्षण के मसले पर उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिका दाखि़ल की जा चुकी है। इस पर उच्चतम न्यायालय का निर्णय आना अभी बाक़ी है।

आरक्षण के जिन्न के राजनीति की बोतल से बाहर आते ही एक नयी बहस ज़ोर पकड़ जाती है। उच्च शिक्षा की दशा और रोज़गार सृजन के हालात सवालों के घेरे से परे चले जाते हैं। आरक्षण के समर्थन और विरोध की बयार बहने लगती है जिसमें साफ़ तौर पर जातिवाद की बू को महसूस किया जा सकता है। जो चीज़ है ही नहीं या फिर लगातार न होने की तरफ़ तेज़ी से बढ़ रही है, उसके नाम पर आरक्षण का झुनझुना लोगों के हाथ में थमा दिया जाता है। लोग उस झुनझुने को बजाने के साथ-साथ एक-दूसरे के सिर पर भी दे मारने को न केवल तैयार हो जाते हैं, बल्कि गाहे-बगाहे मार भी देते हैं। इस बार देश की आम आबादी के बीच मोदी सरकार भ्रम फैलाने में कामयाब होती दिख नहीं रही है, क्योंकि बड़ी आबादी इस बात को समझ रही है कि मोदी सरकार का यह क़दम 2019 के संसदीय चुनाव को ध्यान में रखकर उठाया गया है। साढ़े चार साल में भाजपा ने शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार, महँगाई, भ्रष्टाचार आदि-आदि के नाम पर केवल लफ़्फ़ाज़ी ही की है। चुनावी वायदों के आधार पर रिपोर्ट कार्ड की ख़ूबियाँ गिनाने के लिए सरकार के पास कुछ भी नहीं है। ऐसे में सामान्य वर्ग में खिसकते जनाधार को बचाने का 10 प्रतिशत आरक्षण एक हताशा भरा क़दम ही अधिक दिखायी देता है।

आमतौर पर आरक्षण की राजनीति और ख़ासतौर पर आर्थिक आधार पर दिये गये 10 प्रतिशत आरक्षण को हम विभिन्न पहलुओं से देख सकते हैं। सबसे पहले आरक्षण के नाम पर होने वाली तुष्टिकरण की राजनीति को भी समझना होगा। आरक्षण को सबसे पहले अफ़रमेटिव एक्शन (सत्ता द्वारा की गयी सकारात्मक कार्रवाई) के तौर पर उठाये जाने वाले एक क़दम के तौर देखना होगा। आरक्षण लागू करने का प्रमुख तर्क था सामाजिक रूप से पिछड़ों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करना। आज़ादी के 71 साल बाद क्या इस बात की पड़ताल नहीं होनी चाहिए कि इसने वास्तव में दलित आबादी के सामाजिक स्तरोन्नयन में कितना योगदान दिया है? आज यह सच है कि दलित आबादी के बीच से बेहद छोटा-सा, मुश्किल से 5 से 7 फ़ीसदी तबक़ा समाज के मलाईदार हिस्से में शामिल हो चुका है! इसमें भी कुछ चुनिन्दा दलित जातियाँ ही तुलनात्मक तौर पर आगे हैं। दलितों की बड़ी आबादी आरक्षण लागू होने के सात दशक के बाद तक भी उच्च शिक्षा क्या माध्यमिक शिक्षा तक भी नहीं पहुँच पाती, आरक्षण के फ़ायदे से रोज़गार हासिल करना तो दूर की कौड़ी है। तमाम विभागों में आरक्षित ख़ाली पड़ी सीटों को आसानी से देखा जा सकता है। यदि चुनावी व्यवस्था में प्रतिनिधित्व की बात की जाये तो भी हम देख सकते हैं कि मायावती, रामविलास पासवान, जीतनराम माँझी, उदित राज, रामदास आठवले इत्यादि जैसे शख्श कहाँ तक दलित आबादी का प्रतिनिधित्व कर पा रहे हैं और किस-किसके साथ गलबहियाँ कर रहे हैं। इस बात को बताने की आश्यकता नहीं है क्योंकि खेल सबके सामने है, हाथ कंगन को आरसी क्या पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या! आज सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक तौर पर दलित आबादी का कितना हिस्सा बराबरी की हैसियत तक पहुँचा है? तथा यही गति रही तो बाक़ी बचे हिस्से के स्तरोन्नयन में कितना समय लग सकता है? बिन्देश्वरी प्रसाद मण्डल की अध्यक्षता में बने मण्डल आयोग की सिफ़ारिशों के अनुसार जाति को आधार बनाकर सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर विभिन्न धर्मावलम्बी 3,743 जातियों में 1 लाख की आय सीमा वालों के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने 1992 में 27 फ़ीसदी आरक्षण लागू कर दिया था। इनमें भी आरक्षण का फ़ायदा बेहद सीमित आबादी को ही हुआ। क्योंकि बड़ी आबादी आरक्षण का फ़ायदा लेने की स्थिति तक ही कभी नहीं पहुँच पायी। कुल-मिलाकर आरक्षण अब 50 फ़ीसदी तक पहुँच चुका था। उसके बाद सरकारों ने आर्थिक आधार पर और विशेष पिछड़ी जाति का नाम देकर आरक्षण देने की क़वायदें जारी रखीं। उदाहरण के लिए 25 जनवरी 2013 को हरियाणा की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने 5 जातियों (जाट, जटसिख, रोड़, बिश्नोई, त्यागी) को विशेष पिछड़ी जाति का दर्जा देकर 10 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की तथा आर्थिक तौर पर पिछड़ों को, जिनमें ब्राह्मण, राजपूत, खत्री, पंजाबी और महाजन जातियों को रखा गया, भी 11 सितम्बर 2013 को 10 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। हालाँकि आगे चलकर पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने इन दोनों ही प्रकार के आरक्षणों को खारिज़ कर दिया था। अभी फडणवीस की महाराष्ट्र सरकार ने मराठा जाति को 16 फ़ीसदी आरक्षण देने की बात कही है। तमिलनाडु में आरक्षण 69 फ़ीसदी तक पहुँच चुका है जिसका मामला उच्चतम न्यायालय में लम्बित है।

कहना नहीं होगा कि तमाम चुनावी पार्टियों और तथाकथित जातियों के ठेकेदारों को आरक्षण के नाम पर जनता की लामबन्दी बेहद आसान काम प्रतीत होता है तथा बहुत बार वे जातीय लामबन्दी को अपने वोटों में तब्दील करने में सफल भी रहे हैं, जो उनका मक़सद भी होता है। कई लोग अब डंके की चोट पर यह बात करते हैं कि सभी जातियों को ही आबादी के प्रतिशत के हिसाब से आरक्षण दे दिया जाये जैसे कि उनकी बुद्धि को लकवा मार गया हो या जैसे वे सोचते हों कि जनता की बुद्धि को ही लकवा मारा हुआ है, इसलिए जो मुँह में आये बको!

बेशक मनुवादी स्वर्ण मानसिकता के आधार पर आरक्षण को देखने को हम ग़लत मानते हैं, किन्तु क्या अपने संघर्षों को केवल आरक्षण हासिल करने और हासिल आरक्षण की हिफ़ाज़त करने तक ही सीमित रखना पर्याप्त होगा? इसी तर्क के आधार पर हम आज के समय आरक्षण को शासक वर्गों के हाथों में जनता को बाँटने का एक हथियार मानते हैं। बेशक अपने क़ानूनी और संवैधानिक अधिकार के तौर पर आरक्षण को ईमानदारी से लागू करवाने, कोटे के तहत ख़ाली पदों को भरने के लिए आन्दोलन खड़े किये जायें, किन्तु आज सबके लिए समान और निःशुल्क शिक्षा और हर काम करने योग्य नौजवान के लिए रोज़गार के समान अवसर का नारा ही सर्वोपरि तौर पर तमाम जातियों की मेहनतकश जनता का साझा नारा बन सकता है। इस सच्चाई को समझने के बाद ही हम आपसी फूट और बँटवारे से बच सकते हैं।

अब आते हैं आर्थिक रूप से पिछड़ों को मिलने वाले 10 प्रतिशत आरक्षण के मसले पर। आर्थिक रूप से ग़रीब सामान्य वर्ग के लोगों के लिए आरक्षण प्राप्त करने के लिए मुख्य तौर पर पाँच अर्हताएँ होनी चाहिए। पहली परिवार की सालाना आय 8 लाख रुपये से कम हो, दूसरी है कृषि योग्य भूमि 5 एकड़ से कम हो, तीसरी है रिहायशी मकान 1,000 वर्ग फुट से कम हो, चौथी है नगर पालिका में प्लॉट 100 गज से कम हो तथा पाँचवीं है रिहायशी प्लॉट नगरपालिका से बाहर हो तो यह 200 गज से कम हो। इस प्रकार से कहने कि आवश्यकता नहीं है कि इस हिसाब से 10 प्रतिशत के दायरे में सामान्य वर्ग की क़रीब 80-85 प्रतिशत आबादी स्वतः ही आ जायेगी। सरकारी नौकरियों के मामले में देखा जाये तो इस आबादी को पहले ही 30-40 फ़ीसदी भागीदारी मिल ही जाती है तो फिर इन्हें सरकार ने नया क्या दे दिया। यदि दो ही मानकों को लें जिनमें एक है परिवार की आय 8 लाख या उससे कम हो तथा दूसरा है ज़मीन 5 एकड़ से कम हो तो देश की 90 प्रतिशत से भी अधिक आबादी किसी न किसी प्रकार के आरक्षण के दायरे में आ जायेगी! क्योंकि अनुसूचित जातियों को 15 फ़ीसदी, अनुसूचित जनजातियों को 7.5 फ़ीसदी, अन्य पिछड़ी जातियों को 27 फ़ीसदी आरक्षण पहले से ही प्राप्त है। अब इसमें 10 प्रतिशत और जुड़ गया। बेशक यह 10 प्रतिशत 50 प्रतिशत से अलग है, किन्तु इसके दायरे में सामान्य वर्ग की 80 से 85 फ़ीसदी आबादी आती है। क्या विडम्बना है कि ढाई लाख से अधिक आय वाला आयकर दाता है और 8 लाख से कम आय वाला ग़रीब बनकर आरक्षण का लाभ ले सकेगा! बहुत से परिवार तो ऐसे भी होंगे, जिनमें कमाने वाला एक ही हो। विभिन्न आँकड़ों और ख़ुद सरकारी आँकड़ों के हिसाब से ही देश की 90 फ़ीसदी से भी अधिक आबादी अपनी आय 8 लाख से कम दर्शाती है। 12 जनवरी 2018 में दिये गये वित्त मन्त्री अरुण जेटली के एक बयान, जो बिज़नेस लाइन में छपा था, के मुताबिक़ भारत में सिर्फ़ 76 लाख लोग ही अपनी सालाना आय 5 लाख रुपये अधिक दर्शाते हैं! पारिवारिक आय के मामले में हम इसी से अनुमान लगा सकते हैं। 2015-16 ताज़ा कृषि गणना के अनुसार 86.2 प्रतिशत आबादी के पास 5 एकड़ से कम ज़मीन है। इस प्रकार से यह देख सकते हैं कि किस तरह से सामान्य वर्ग के बीच आरक्षण का लुकमा फेंक दिया गया है, जबकि उसका बहुत बड़ा हिस्सा इसके दायरे में आता है।

भाजपा ने साढ़े चार साल में जो-जो गुल खिलाये हैं, उनके आधार पर तो जनता के बीच इन्हें जूते ही मिल सकते हैं, वोट तो कहाँ मिलेंगे! इसीलिए भाजपा-संघ परिवार मन्दिर-मस्जिद, आरक्षण, जाति-धर्म, गाय-गोबर जैसे मुद्दों पर ही जनता का ध्रुवीकरण करने में लगे हैं। रोज़गार के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। सेण्टर फ़ॉर मॉनिटरिंग इण्डियन इकॉनमी (सीएमआई) की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार साल 2018 में 1 करोड़ 10 लाख लोगों ने अपनी नौकरी गँवाई है! नयी नौकरी के नाम पर प्रधानमन्त्री मोदी पकौड़े तलने और गन्दे नाले पर उल्टा बर्तन रखकर इसकी गैस से चाय बनाने की शिक्षा दे रहे हैं और संघी इन्द्रेश भीख माँगने को भी 2 करोड़ लोगों के लिए रोज़गार बता रहे हैं। शिक्षा की बात करें तो सरकारी शिक्षा व्यवस्था मृत्यु-शैया पर पहुँचा दी गयी है। स्कूल-कॉलेज और विश्वविद्यालय अध्यापकों और अवरचनागत ढाँचे से महरूम हैं। देश की मेहनतकश जनता और ख़ासतौर पर छात्रों-युवाओं को आरक्षण के नाम पर बँटने की बजाय सबके लिए समान और निःशुल्क शिक्षा और हर काम करने योग्य नौजवान के लिए रोज़गार के समान अवसर के मुद्दे पर एकजुट होकर सरकारों के सामने आवाज़ उठानी चाहिए। बिना शिक्षा और रोज़गार की उपलब्धता के आरक्षण भी अर्थहीन है।

नौकरियों की हालत देखी जाये तो हाल-फ़िलहाल रेलवे पुलिस फ़ोर्स के 10,000 पदों के लिए 95 लाख आवेदन प्राप्त हुए हैं! उससे पहले उत्तर प्रदेश में चपरासी के 62 पदों के लिए 93,000 आवेदन आये थे तथा 5वीं पास की योग्यता होने के बावजूद आवेदकों में क़रीब 5,400 पीएचडी थे! हरेक भर्ती का यही हाल है। सरकारी महकमों में लाखों पद पहले ही ख़ाली पड़े हैं, आरक्षण जैसे मुद्दे उछालकर अपने वोट बैंक के हित साधने की बजाय सरकारों को सबसे पहले तो इन ख़ाली पदों को भरना चाहिए। आज के समय आरक्षण का मुद्दा वोट बैंक को साधने के लिए एक ज़रिया बन चुका है। आर्थिक तौर पर ग़रीब सामान्य वर्ग के सामने 10 प्रतिशत आरक्षण का लुकमा फेंककर भाजपा ने एक और तो जनता का ध्यान असल सवालों से भटकाने का प्रयास किया है तथा दूसरा सामान्य वर्ग और ख़ासतौर पर स्वर्ण जातियों में अपने खिसकते जनाधार को रोकने का एक हताशाभरा क़दम उठाया है।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2019


 

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