‘यूएपीए’ संशोधन बिल : काले कारनामों को अंजाम देने के लिए लाया गया काला क़ानून

आनन्द सिंह

आज़ाद भारत में विभिन्न सरकारों द्वारा लाये गये काले क़ानूनों का एक लम्बा इतिहास रहा है। इन काले क़ानूनों की फ़ेहरिस्त में 1950 का प्रिवेण्टिव डिटेंशन एक्ट, 1958 का ऑर्म्ड फ़ोर्सेज़ (स्पेशल पावर्स) एक्ट (आफ्स्पा), 1967 का अनलॉफ़ुल एक्टिविटीज़ (प्रिवेंशन) एक्ट (‘यूएपीए’), 1971 का मेण्टिनेंस ऑफ़ इण्टरनल सिक्योरिटीज़ एक्ट (मीसा), 1980 का नेशनल सिक्योरिटीज़ एक्ट, 1985 का टेररिस्ट एण्ड डिसरप्टिव एक्टिविटीज़ एक्ट (टाडा), 2001 का प्रिवेंशन ऑफ़ टेररिज़्म एक्ट (पोटा) शामिल हैं। हालाँकि हर बार ऐसे काले क़ानूनों को बनाने का मक़सद क़ानून-व्यवस्था और अमन-चैन क़ायम रखना बताया जाता है, लेकिन असलियत यह है कि शासक वर्गों को ऐसे काले क़ानूनों की ज़रूरत अपने शोषणकारी, और दमनकारी शासन के ख़ि‍लाफ़ उठने वाली आवाज़ों को बर्बरता से कुचलने के लिए पड़ती है। अब चूँकि केन्द्र में एक फ़ासीवादी सत्ता काबिज़ है, काले क़ानूनों को बेशर्मी से लागू करने के मामले में पुराने सारे कीर्तिमान ध्वस्त किये जा रहे हैं। मोदी सरकार अब कुख्यात ‘यूएपीए’ क़ानून में संशोधन करके अपनी फ़ासीवादी नीतियों का विरोध करने वालों को आतंकी घोषित करने की पूरी तैयारी कर चुकी है। इसीलिए इस संशोधन के बाद ‘यूएपीए’ को आज़ाद भारत के इतिहास का सबसे ख़तरनाक क़ानून कहा जा रहा है।

‘यूएपीए’ क़ानून सबसे पहले 1967 में लाया गया था, जब कुछ गतिविधियों को अवैध घोषित किया गया था। लेकिन हाल के वर्षों में इस क़ानून में संशोधन करके इसे मुख्य आतंकवादी निरोधक क़ानून के रूप में स्थापित किया गया है। 2004 में तत्कालीन संप्रग सरकार ने आतंकवाद निरोधक कुख्यात क़ानून पोटा को निरस्त करके बड़ी ही चालाकी से उसके कुछ ख़तरनाक प्रावधानों को ‘यूएपीए’ में डाल दिया और अवैध कृत्यों की परिभाषा में “आतंकवादी कृत्य” तथा “आतंकवादी संगठन” को भी शामिल कर लिया। उसके बाद 2008 और 2012 में भी इस क़ानून में संशोधन किये गये और पुलिस हिरासत की अवधि, बिना चार्जशीट के गिरफ़्तारी और जमानत पर पाबन्दी जैसे सख़्त प्रावधान इसमें शामिल कर लिये गये। अब मोदी सरकार ने इस क़ानून में संशोधन करके इसे आज़ाद भारत का सबसे काला क़ानून बना दिया है।

मौजूदा संशोधन के तहत नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) को ऐसे मामलों की जाँच-पड़ताल का अधिकार दे दिया गया है, जो अब तक राज्यों की पुलिस के अधिकार क्षेत्र में रहते थे। यह स्पष्टत: राज्यों के अधिकारों को अतिक्रमण और संघीय ढाँचे के ख़ि‍लाफ़ है तथा फ़ासीवादी सरकार में केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति को ही दिखाता है। दूसरी बात जो ज़्यादा महत्वपूर्ण है, वह यह है कि मौजूदा संशोधन केन्द्र सरकार को अधिकार देता है कि वह न सिर्फ़ किसी संगठन को बल्कि किसी व्यक्ति को भी आतंकवादी घोषित कर सकती है।

गृह मंत्री अमित शाह ने संशोधन बिल प्रस्तुत करते हुए लोकसभा में कहा, “आतंकवाद के साहित्य को और आतंकवाद की थियरी को युवाओं के ज़ेहन में उतारने के लिए जो प्रयास करता है। मान्यवर, मैं मानता हूँ आतंकवाद बन्दूक से पैदा नहीं होता – आतंकवाद को फैलाने के लिए जो अप-प्रचार होता है, उन्माद फैलाया जाता है, वो आतंकवाद का मूल है। और अगर इस सबको आतंकवादी घोषित करते हैं तो मैं मानता हूँ कि सदन के किसी भी सदस्य को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।” ‘यूएपीए’ में कहीं भी यह नहीं स्पष्ट किया गया है कि ‘आतंकवाद का साहित्य’ या ‘आतंकवाद की थियरी’ की परिभाषा क्या है। ऐसे में सरकार को यह अधिकार मिल गया है कि वह ऐसे सभी साहित्य और थियरी को आतंकवादी घोषित कर दे जो उसकी नीतियों को पर्दाफ़ाश करते हों और सरकार की जवाबदेही तय करते हों।

ग़ौरतलब है कि मौजूदा ‘यूएपीए’ क़ानून के चैप्टर 4 में पहले से ही ऐसा प्रावधान है जिसके तहत सरकार ऐसे किसी व्यक्ति के ख़ि‍लाफ़ मुक़दमा चला सकती है, जो आतंकवादी कृत्यों में लिप्त पाया गया हो। अगर सरकार ऐसे साक्ष्य प्रस्तुत करे कि उस व्यक्ति ने वास्तव में किसी आतंकवादी घटना को अंजाम दिया है तो ‘यूएपीए’ के तहत ही अदालत उस व्यक्ति को सज़ा सुना सकती है। इसके बावजूद भी अगर सरकार ने इस क़ानून में व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करने का प्रावधान अलग से जोड़ा है तो इसका सीधा मतलब यह है कि वह इस प्रावधान का इस्तेमाल ऐसे लोगों को भी आतंकवादी घोषित करने के लिए करना चा‍हती है जिनके ख़ि‍लाफ़ उसके पास पर्याप्त प्रमाण नहीं है और जिसे वह बदनाम करना चा‍हती है। हम सभी जानते हैं कि एक बार अगर सरकार किसी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित कर देती है तो उसे कितना सामाजिक अपमान झेलना पड़ता है, ऐसे व्यक्ति को कोई काम मिलना नामुमकिन हो जाता है, उसे रहने के लिए घर नहीं मिलता और उसके बच्चों को स्कूल में दाख़ि‍ला नहीं मिलता।

हिन्दुत्ववादी फ़ासीवादियों के निशाने पर कौन लोग हैं, इसको लेकर किसी को तनिक भी सन्देह हो तो उसे अमित शाह के उस भाषण को ज़रूर सुनना चाहिए जो उन्होंने ‘यूएपीए’ क़ानून में संशोधन प्रस्तुत करते हुए लोकसभा में दिया था। उस भाषण में उन्होंने स्पष्ट कहा था, “उन लोगों को बख्शा नहीं जायेगा जो शहरी माओवादियों के लिए काम करते हैं”। पिछले कुछ अरसे से संघ परिवार और उसके लग्गू-भग्गू ‘अर्बन नक्सल’ और ‘अर्बन माओवादी’ जैसे जुमलों का धड़ल्ले से प्रयोग करते आये हैं। अब संघ परिवार की काली करतूतों का पर्दाफ़ाश करने वालों को आतंकवादी घोषित करने के संघ के एजेण्डे को लागू करने के लिए ‘यूएपीए’ में डाले गये काले प्रावधानों का इस्तेमाल किया जायेगा। हाल ही में आरएसएस की एक अनुषंगी संस्था ‘विश्व संवाद केन्द्र’ ने एक पैम्फ़लेट निकाला है, जिसका शीर्षक है, “कौन हैं अर्बन नक्सल?” इस पैम्फ़लेट में गौतम नवलखा और सुधा भारद्वाज जैसे देश के प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कर्मियों को अर्बन नक्सल बताया गया है जिनके ख़ि‍लाफ़ पहले से ही ‘यूएपीए’ के तहत मुक़दमा चल रहा है। ‘यूएपीए’ में किये गये संशोधन के बाद सरकार के पास अपने विरोधियों को देशद्रोही और आतंकवादी घोषित करने का एक नया औज़ार मिल गया है।

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2019


 

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