गुड़गाँव से लेकर धारूहेड़ा तक की औद्योगिक पट्टी के मज़दूरों के जीवन और संघर्ष के हालात

शाम मूर्ति

गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा औद्योगिक पट्टी दरअसल गुड़गाँव से लेकर राजस्थान के जयपुर तक फैली औद्योगिक पट्टी का एक हिस्सा है। देश के विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रों की तरह यह भी कभी “शान्त” नहीं रही है। जगह-जगह मज़दूरों का असन्तोष समय-समय पर फूटता ही रहा है। गुड़गाँव के मज़दूरों, “कर्मचारियों” से लेकर “स्कीम वर्कर्स” तक अपने-अपने मुद्दों को लेकर संघर्षरत रहते हैं। हम पहले भी इन संघर्षों के बारे में ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों को अवगत कराते रहे हैं और आगे भी कराते रहेंगे। इस बार हम ऑटो सेक्टर में संघर्ष के मुद्दों और यहाँ की आम स्थिति पर एक संक्षिप्त चर्चा करेंगे।

यहाँ पर ठेका मज़दूरों का वेतन बढ़ोत्तरी, कार्यस्थलों पर असुरक्षा से लेकर स्थायीकरण की माँगों आदि को लेकर कम्पनी प्रबन्धन व मालिकान से आये-दिन आमना-सामना होता ही रहता है। वहीं स्थायी मज़दूर आँशिक/पूर्ण तालाबन्दी, जबरन वी.आर.एस. (स्वैच्छिक सेवानिवृति) की वजह से छँटनी, अपने समझौता पत्रों व यूनियन अधिकार पर हमले को लेकर भी अक्सर सड़कों पर आ जाते हैं। लेकिन समझौतापरस्त केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों व चुनावी दलों के नेतृत्व के असर के कारण वे मुख्यतः अपनी माँगों के लिए श्रम विभाग से लेकर अदालतों के चक्कर लगाने तक सीमित रहते हैं और उनका आन्दोलन अमूमन इन सीमाओं का अतिक्रमण कर जुझारू संघर्ष तक जा ही नहीं पाता है।

गुड़गाँव-मानेसर में चल रहे बेलसोनिका मज़दूरों का संघर्ष

बेलसोनिका के स्थायी मज़दूर पिछले 55 दिनों से (5 दिसम्बर 2023 को रिपोर्ट लिखने तक) छँटनी व यूनियन पंजीकरण के रद्द करने ख़िलाफ़ प्रबन्धन व शासन-प्रशासन के ख़िलाफ़ गुड़गाँव के लघु सचिवालय में पक्का धरना लगाये हुए हैं। कम्पनी प्रबन्धन पिछले क़रीब दो साल से कम्पनी में स्थायी मज़दूरों की छँटनी करके उनकी जगह सस्ते व अस्थायी मज़दूरों को लाने के मंसूबे पर आगे बढ़ रहा है। फ़र्ज़ी दस्तावेज़ों के नाम पर दशकों पुराने मज़दूरों को काम से निकाला जा रहा है। प्रबन्धन मज़दूरों को डराने-धमकाने और दबाने के लिए विभिन्न तरीकों से प्रपंच रच रहा है और उसके रास्ते में बाधा बन रही संघर्षशील यूनियन को नाकाम करने में लगा हुआ है। अब तक कम्पनी प्रबन्धन हरियाणा के श्रम विभाग से साँठगाँठ करके यूनियन पदाधिकारियों व सक्रिय साथियों के निलम्बन व बर्ख़ास्तगी से लेकर यूनियन के पंजीकरण को रद्द करने की कार्रवाई में कामयाब हो चुका है। कम्पनी में जुझारू यूनियन के समान्तर मज़दूरों में फूट डालकर जेबी यूनियन खड़ी करने का षड्यन्त्र भी कम्पनी का प्रबन्धन रच रहा है।

कम्पनी में फ़िलहाल उत्पादन जारी है। लेकिन यूनियन के बर्ख़ास्त मज़दूर पक्का धरना लगाकर डटे हुए हैं। प्रबन्धन षडयन्त्रकारी तरीके से फ़र्ज़ी हस्ताक्षर करवाकर यूनियन के बैंक अकाउण्ट को जाम करवा चुका है। लेकिन इसके बावजूद मज़दूरों का संघर्ष जारी है। वे मज़बूती से धरना लगाकर मैदान में डटे हुए हैं। बीच-बीच में विभिन्न फ़ैक्ट्री यूनियन, मज़दूर संगठन उनके धरने पर आकर आर्थिक सहयोग से लेकर धरने और प्रदर्शन की गतिविधियों में शामिल होते रहते हैं। लेकिन इसके बावजूद कम्पनी का उत्पादन जारी है। इस तरह के मसले पर केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों को सेक्टरगत हड़ताल का अल्टीमेटम सरकार और प्रबन्धन को देना चाहिए। उनके पास यह ताक़त है। और वे ऐसा कर सकती हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के नेतृत्व का काम वास्तव में संघर्षों और मज़दूरों के जुझारूपन को एक ऐसी सीमा के भीतर बनाये रखना, नियंत्रित रखना और विनियमित रखना है, जो सरकार और पूँजीपति वर्ग के लिए स्वीकार्य हो। यानी, मज़दूर आन्दोलन को सुरक्षित सीमाओं में क़ैद रखना और उसे कभी भी मालिकान और प्रबन्धन तथा सरकार के लिए एक वास्तविक चुनौती न बनने देना।

गुड़गाँव से लेकर बावल तक तमाम यूनियनों के होने के बावजूद अभी तक कोई सेक्टरगत और इलाकाई कार्रवाई नहीं बन पा रही है। इसकी वजह से कम्पनी प्रबन्धन और श्रम विभाग व शासन-प्रशासन की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। पिछले रविवार 3 दिसम्बर को ‘एकजुटता सभा’ में ऑटोमोबाइल इण्डस्ट्री काण्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन (ए.आई.सी.डब्ल्यू.यू.) के साथियो ने कहा कि कम्पनी प्रबन्धन के खिलाफ़ तत्काल बेलसोनिका के मज़दूरों के मुद्दे पर सभी सभी संघर्षशील यूनियनों/संगठनों, मज़दूर कार्यकर्ताओं व सक्रिय जागरूक मज़दूरों को साथ लेकर संयुक्त रूप से संघर्ष को बढ़ाने की ज़रूरत है। लेकिन साथ ही इस इलाक़े में ऑटो सेक्टर की यूनियन और इलाक़ाई एकता को विकसित करने की भी ज़रूरत है। तभी जाकर तमाम कम्पनी प्रबन्धनों, शासन-प्रशासन व सरकार के मज़दूर विरोधी हमले का जवाब दिया जा सकता है। अगर समूचे ऑटो सेक्टर का पूँजीपति वर्ग अपनी आपसी प्रतिस्पर्द्धा के बावजूद ऑटो सेक्टर के मज़दूर वर्ग को लूटने और कुचलने के लिए अपनी मैनेजिंग कमेटी की भूमिका निभाने वाली सरकार के साथ एकजुट है, तो मज़दूर भी तभी जीत सकते हैं जबकि समूचे ऑटो सेक्टर के मज़दूरों की एक यूनियन बने, जो किसी भी चुनावबाज़ पार्टी की पिछलग्गू हो, बल्कि मज़दूर वर्ग की एक क्रान्तिकारी यूनियन की भूमिका अदा करे।

‘एकजुटता सभा’ के बाद उपस्थित बेलसोनिका के संघर्षरत साथियों के धरने के समर्थन में सभी मज़दूर यूनियनों/ संगठनों के प्रतिनिधियों की मीटिंग की गयी, जिसमें तय किया गया कि बेलसोनिका मज़दूरों के संघर्ष के समर्थन में सभी मिलकर संयुक्त कार्रवाइयों को अंजाम देंगे। आने वाला वक़्त ही बतायेगा कि इस संयुक्त कार्रवाई को किस हद तक और किस तरीके से अंजाम दिया जाता है। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि पिछले समय के मारुति के मज़दूरों के संघर्ष के दौरान हुई संयुक्त कार्रवाइयों में कई तरह के ग़ैर-जनवादी तरीक़ों और व्यवहार की वजह से आन्दोलन को काफ़ी नुक़सान पहुँचा था। यही कहानी होण्डा के मज़दूरों के संघर्ष के दौरान दुहरायी गयी थी और यही कहानी बार-बार दुहराई जाती रही है। इसलिए संयुक्त कार्रवाइयों का यह फ़ैसला व्यवहार में उतरकर ही मज़दूरों के भीतर भरोसा और हौसला पैदा कर सकता है।

इस औद्योगिक पट्टी में मज़दूर आन्दोलन की समस्या

ट्रेड यूनियन कार्यवाइयों में “ग़ैर-राजनीतिक” यूनियनवाद व संशोधनवादी पार्टियों के बुर्जुआ सुधारवाद, अराजकतावाद, संघाधिपत्यवाद, अर्थवाद से लेकर दक्षिणपन्थी अर्थवाद तक का बोलबाला है। बेशक़ इनका आधार काफ़ी सिकुड़ भी चुका है क्योंकि व्यापक मज़दूर जनसमुदायों का अन्दर से इन पर भरोसा टूट रहा है, भले ही वे छोटे-मोटे काम या अर्ज़ी आदि लिखवाने के लिए विकल्पहीनता में इनके पास चले जाते हों।

इसके अलावा असंगठित व अनौपचारिक मज़दूरों के संघर्ष नौसिखुआपन, स्वत:स्फूर्ततावाद और अराजकता का शिकार होकर जल्द ख़त्म हो जाते हैं या फिर दूसरे छोर पर जाकर क़ानूनी लड़ाइयों में उलझकर रह जाते हैं। जैसे कि पिछले दिनों धारूहेड़ा के ठेका मज़दूरों का हुण्डई मोबीस व अन्य एक कारख़ाने तक सीमित और केन्द्रित संघर्ष और मानेसर में जे.एन.एस. व प्रोटेरियल के मज़दूरों के संघर्ष में देखा जा सकता है। ताज़ा घटना में पिछले दिनों धारूहेड़ा में एपटिव कम्पनी में गैर-संगठित ठेका मज़दूरों का स्वत:स्फूर्त संघर्ष दो दिन भी टिक नहीं पाया था। उसी कम्पनी के स्थायी मज़दूर जो कि केन्द्रीय ट्रेड यूनियन से जुड़े हैं, संघर्ष में शामिल नहीं हुए।

महत्वपूर्ण बात यह है कि एक बहुत बड़ी अनौपचारिक व औपचारिक क्षेत्र की ग़ैर-संगठित आबादी को संगठित करने का कार्यभार सामने है। “परम्परागत” केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें अपनी आका संशोधनवादी पार्टियों जैसे माकपा और भाकपा की राजनीति के अनुसार मुख्यतः स्थायी मज़दूरों की माँगों तक सीमित रहती हैं। वे अब समझौता पत्रों को मोलभाव के साथ लागू करवा पाने की क्षमता भी खो चुकी हैं। वे जबरन वी.आर.एस. (स्वैच्छिक सेवानिवृति), आंशिक-पूर्ण तालाबन्दी, तबादले के ज़रिये छँटनी तक नहीं रोक पा रही हैं। इनका प्रतिरोध व संघर्ष अब मुख्यत: दो-तीन दिवसीय रस्मी प्रदर्शनों व ज्ञापनों, अर्ज़ियों को देने की कवायद तक सीमित हो चुका है।

वहीं दूसरी ओर “वर्गीय एकता” व “मज़दूरों की पहलक़दमी” के नाम पर कुछ मज़दूर संगठन जुझारू रूप से अर्थवादी, अराजकतावादी और संघाधिपत्यवादी व निम्नस्तरीय एकता की ट्रेड यूनियन नीति को ही लागू कर रहे हैं। इसकी ख़ासियत यह है कि इनका यह मानना है कि मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में एक राजनीतिक नेतृत्व की आवश्यकता नहीं है और उनका नेतृत्व स्वत:स्फूर्त ढंग से बन जायेगा। जबकि इतिहास ने बार-बार यह साबित किया है कि बिना सचेतन राजनीतिक नेतृत्व के कोई भी वर्ग नहीं लड़ सकता और इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि नेतृत्व देने वाले व्यक्तियों का सामाजिक वर्ग मूल क्या है। फ़र्क़ इससे पड़ता है कि उनका राजनीतिक वर्ग क्या है : वे सर्वहारा वर्ग की अवस्थिति पर खड़े हैं, या पूँजीपति वर्ग की अवस्थिति पर। ऐसे अराजकतावादी व अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी संगठनों का संघर्ष और तेवर भी तेज़ी से सिकुड़ता ही जा रहा है।

इस समय समूचे ऑटो सेक्टर के मज़दूर आन्दोलन को संगठित कर ऑटो सेक्टर के पूँजीपति वर्ग और उसकी नुमाइन्दगी करने वाली सरकार के सामने कोई भी वास्तविक चुनौती देना तभी सम्भव है जब अनौपचारिक व असंगठित मज़दूरों को समूचे सेक्टर की एक यूनियन में एकजुट और संगठित किया जाय, उनके बीच से तमाम अराजकतावादी व अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी संगठनों को किनारे किया जाय जो लम्बे समय से उन्हें संगठित होने से वास्तव में रोक रहे हैं; और संगठित क्षेत्र के मज़दूरों को तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के समझौतापरस्त और दाँत व नाखून खो चुके नेतृत्व से अलगकर उस सेक्टरगत यूनियन से जोड़ा जाये। इन दोनों ही कार्यभारों को पूरा करना आज ऑटो सेक्टर के मज़दूर आन्दोलन को जुझारू रूप से संगठित करने के लिए अनिवार्य है।

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2023


 

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