अब विकल्प मौजूद है! (भाग-2)
चुनावों में रणकौशलात्मक हस्तक्षेप की क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट कार्यदिशा क्या है?

सम्पादक मण्डल

पिछले अंक में हमने ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ (RWPI) के गठन, उसके लक्ष्य और स्वरूप की बात करते हुए स्पष्ट किया था कि ऐसी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी की ज़रूरत लम्बे समय से थी, जो कि दुस्साहसवाद, क्रान्तिकारी आतंकवाद और ‘‘वामपंथी” कार्यदिशा को न लागू करके एक क्रान्तिकारी जनदिशा को लागू करती हो; जो कि पूँजीवादी चुनावों में मज़दूर वर्ग की ओर से रणकौशलात्मक भागीदारी की अनिवार्यता को समझती हो और इस लेनिनवादी कार्यदिशा से परिचित हो कि क्रान्तिकारी परिस्थिति के दौरों को छोड़कर, चुनावों के बहिष्कार के नारे की कोई प्रासंगिकता नहीं होती। भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी एक ऐसी ही पार्टी है।

हमने पिछले अंक में इस पार्टी के उद्देश्यों, इसकी ज़रूरत, इसके चुनाव घोषणापत्र के विषय में विस्तार से चर्चा की थी। इस सम्पादकीय अग्रलेख की इस आख़िरी किश्त में हम इस बात पर चर्चा करेंगे कि चुनावों में कम्युनिस्टों की ओर से रणकौशलात्मक भागीदारी के विषय में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शिक्षकों, जैसे कि मार्क्स, एँगेल्स, लेनिन, माओ आदि की क्या शिक्षा है। भारत में अपने आपको मार्क्सवादी-लेनिनवादी कहने वाले अधिकांश क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट संगठन आम तौर पर बहिष्कारवाद की ग़लत कार्यदिशा को अपनाते हैं, यह मानते हैं कि आज के दौर में हर सूरत में पूँजीवादी चुनावों का बहिष्कार ही किया जाना चाहिए। उनकी इस ग़लती के पीछे भारत की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थिति की उनकी ग़लत समझदारी की प्रमुख भूमिका है। इन संगठनों/पार्टियों का यह मानना है कि भारत आज एक अर्द्धसामन्ती अर्द्धऔपनिवेशिक या नवऔपनिवेशिक देश है। कोई भी व्यक्ति जो समझता है कि अर्द्धसामन्ती अर्द्धऔपनिवेशिक सामाजिक संरचना से माओ का क्या अर्थ था या ‘नवऔपनिवेशिक संरचना’ से लेनिन और फिर माओ का क्या अर्थ था, वह समझ सकता है कि इन क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट संगठनों ने भारत के उत्पादन के सामाजिक सम्बन्धों और भारत के पूँजीपति वर्ग के एक रचनात्मक मार्क्सवादी-लेनिनवादी विश्लेषण की कभी ज़हमत ही नहीं उठायी। उन्होंने केवल 1963 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियों के मूल्यांकन पर पेश आम दिशा को अपना ब्रह्मवाक्य बना लिया है, हालाँकि उसमें भी चीन की पार्टी ने स्पष्ट किया था कि हर देश के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को अपने देश की ठोस परिस्थितियों का विश्लेषण स्वयं ही करना होगा और देखना होगा कि वहाँ क्या परिस्थितियाँ मौजूद हैं। लेकिन लकीर की फकीरी करना भारत के क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन की पुरानी समस्या रही है। यही कारण है कि आज भी तमाम मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट संगठन मौजूदा राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थिति का स्वयं रचनात्मक विश्लेषण करने की बजाय, 1963 में चीन की पार्टी द्वारा पेश आम दिशा पर ही अटके हुए हैं और जूते की नाप से पाँव काटने की कवायद किये जा रहे हैं। लेकिन उससे भी अहम बात यह है कि यदि अर्द्धसामन्ती-अर्द्धऔपनिवेशिक संरचना के सिद्धान्त को भी स्वीकार किया जाय, तो हर सूरत में बहिष्कारवाद की कार्यदिशा को स्वयं माओ ने ही ग़लत माना था और कहा था कि अन्य सभी ज़रियों के चुक जाने और राज्य द्वारा सक्रिय हथियारबन्द प्रतिक्रान्ति का सामना करने के कारण ही चीनी क्रान्ति को दीर्घकालिक लोकयुद्ध का रास्ता अपनाना पड़ा था। माओ इस बाबत स्तालिन के मूल्यांकन को पेश करते हुए उसे सही ठहराते हैं। लेकिन समस्या यह है कि हमारे देश के जल्दबाज़ ”वामपंथी” दुस्साहसवादी माओ के इन विचारों को भी पढ़ने और उस पर विचार करने को तैयार नहीं हैं।

यह समझना आज बेहद ज़रूरी है कि चुनावों में रणकौशलात्मक भागीदारी की कम्युनिस्ट कार्यदिशा क्या है और इस बाबत महान शिक्षकों, यानी कि मार्क्स, एँ गेल्स, लेनिन, स्तालिन और माओ के क्या विचार थे। इन विचारों को आज के सन्दर्भ में समझने और लागू करने का कई कारणों से आज विशेष महत्व है और अब हम इसी पर विचार करेंगे।

 

पूँजीवादी चुनावों के बारे में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट अवस्थिति: मार्क्स से माओ तक

सैद्धान्तिक तौर पर यह सवाल कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के बीच बहुत पहले ही हल किया जा चुका है। लेकिन फिर भी इस सवाल पर चर्चा करना ज़रूरी है कि रणकौशलात्मक भागीदारी की कार्यदिशा क्यों तय की गयी और मार्क्स से लेकर माओ तक ने इस कार्यदिशा को अपने-अपने तरीके से पुष्ट क्यों किया। इसका कारण यह है कि सैद्धान्तिक तौर पर हल होने के बावजूद आज भी हमारे देश के और पूरी दुनिया के कम्युनिस्ट आन्दोलन में इस प्रश्न पर भयंकर विभ्रम की स्थिति बनी हुई है। एक ओर तो दक्षिणपंथी सामाजिक-जनवादी, यानी कि संसदवादी वामपंथी विपथगामिता है, तो दूसरी ओर कई क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट संगठनों/पार्टियों में विविध रूपों में वामपंथी बहिष्कारवाद और साथ ही कुछ अन्य क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट संगठनों/पार्टियों में दक्षिणपंथी संसदवाद का विचलन मौजूद है। ऐसे में, क्लासिकीय मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवस्थिति को एक बार फिर से दुहराना और रेखांकित करना, खास तौर पर ज़रूरी हो गया है।

यह इसलिए भी ज़रूरी है कि ‘माओवाद’ का कैरीकेचर पेश करते हुए हमारे देश में मौजूद वामपंथी दुस्साहसवादी माओ पर बहिष्कारवाद की कार्यदिशा आरोपित कर रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि माओ के अनुसार तत्काल सशस्त्र संघर्ष और दीर्घकालिक लोकयुद्ध की कार्यदिशा वास्तव में लेनिन द्वारा पेश चुनावों में रणकौशलात्मक भागीदारी की कार्यदिशा का नये दौर में निषेध था और अब यही कार्यदिशा कम-से-कम सभी एशिया, अफ्रीका, लातिन अमेरिका के देशों में लागू होने वाली सार्वभौमिक कार्यदिशा है। यह पूरी सोच सिरे से ग़लत है और माओ की समूची कार्यदिशा को न समझने से पैदा हुई है, जैसाकि हम आगे दिखायेंगे। इसका खण्डन आज इसलिए ज़रूरी है कि ऐसी बहिष्कारवादी ”वामपंथी” और अराजकतावादी कार्यदिशा से आज के दौर में उससे कहीं ज़्यादा नुकसान हो रहा है जितना कि मार्क्स या लेनिन के दौर में हो रहा था। इसका कारण यह है कि जब मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन ने पूँजीवादी चुनावों में रणकौशलात्मक भागीदारी की क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट कार्यदिशा पेश की थी, उस समय कहीं भी स्त्री व पुरुष, दोनों के लिए सार्विक वयस्क मताधिकार लागू नहीं हुआ था। आज जबकि वयस्क सार्विक मताधिकार लागू है, तो पूँजीवादी जनवादी विभ्रमों की कहीं ज़्यादा व्यापक ज़मीन भी मौजूद है, हालाँकि साम्राज्यवादी संकट, फासीवादी उभार और जनवादी संस्थाओं और प्रक्रियाओं के क्षरण के साथ एक दूसरे अर्थ में यह ज़मीन कमज़ोर भी हुई है। लेकिन इतना साफ़ है कि आज पूँजीवादी चुनावों में क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों द्वारा रणकौशलात्मक भागीदारी की प्रासंगिकता और महत्व पहले के किसी भी दौर से कहीं ज़्यादा है। अब आइये, इस विषय पर महान शिक्षकों के विचारों पर संक्षेप में निगाह डालते हैं।

मार्क्स और एंगेल्स ने 1848 के ठीक बाद यह कहा था कि जनवादी क्रान्ति की मंजिल में मज़दूरों को चुनावों में उदार बुर्जुआ व निम्न बुर्जुआ उम्मीदवारों को अपना समर्थन देना चाहिए, लेकिन इसके तत्काल बाद ही अपनी अवस्थिति को बदलते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि जनवादी क्रान्ति की मंजिल में भी उदार बुर्जुआ वर्ग अपने ढुलमुल रवैये के कारण मज़दूरों के वर्ग हित की किसी भी रूप में नुमाइन्दगी नहीं कर सकता है। यही कारण था कि 1850 में ही कम्युनिस्ट लीग की केन्द्रीय कमेटी के समक्ष भाषण में मार्क्स ने कहा :

”जब चुने जाने की कोई सम्भावना न भी हो तो भी मज़दूरों को अपने उम्मीदवार अवश्य खड़े करने चाहिए ताकि वे अपनी स्वतन्त्रता को बचाये रख सकें,अपनी शक्ति का आकलन कर सकें, और जनता को अपने क्रान्तिकारी रवैये और पार्टी के दृष्टिकोण तक ला सकें। इस बाबत उन्हें अपने आपको जनवादियों के ऐसे तर्कों के झाँसे में नहीं आने देना चाहिए कि, मसलन, ऐसा करके वे जनवादी दल को तोड़ रहे होंगे और प्रतिक्रियावादियों की विजय को सम्भव बना रहे होंगे। ऐसे सारे जुमलों का अन्तिम उद्देश्य सर्वहारा वर्ग को धोखा देना होता है। ऐसी स्वतन्त्र कार्रवाई से सर्वहारा पार्टी की जो सुनिश्चित उन्नति होगी, वह प्रतिनिधि निकाय में कुछ प्रतिक्रियावादियों की मौजूदगी से होने वाले नुकसान से असीमित रूप से अधिक फ़ायदेमन्द है।”

मज़ेदार बात यह है कि आज हमारे दौर में भी, जबकि हम समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में हैं, न सिर्फ़ आम आदमी पार्टी जैसी टटपुँजिया और छोटे मालिकों की पार्टी मज़दूरों को ऐसा ही धोखा देने का प्रयास कर रही है, बल्कि तमाम तथाकथित वामपंथी बुद्धिजीवी भी यह सलाह दे रहे हैं कि सर्वहारा वर्ग को अपना स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष पेश करने की बजाय, किसी भी ऐसे उम्मीदवार को वोट दे देना चाहिए, जो कि भाजपा और मोदी को हराने की क्षमता रखता हो, चाहे वह कांग्रेस हो, सपा-बसपा का गठबन्धन हो, वाम मोर्चा हो या कोई और छोटे या बड़े पूँजीपतियों की प्रतिनिधि पार्टी हो! ऐसे टटपुँजिया तर्क का मार्क्स ने 1850 में ही विरोध किया था और स्पष्ट किया था कि मज़दूर वर्ग को हर कीमत पर अपनी राजनीतिक स्वायत्तता और स्वतन्त्रता को बरकरार रखना चाहिए।

इसी प्रकार एंगेल्स ने मार्क्स की रचना ‘फ्रांस में वर्ग संघर्ष, 1848-50’ की अपनी 1895 की प्रस्तावना में चुनावों में रणकौशलात्मक भागीदारी के महत्व पर विशेष तौर पर ज़ोर दिया था। इस प्रस्तावना में एँ गेल्स लिखते हैं :

”…अगर सार्विक मताधिकार से और कोई फ़ायदा न भी हुआ हो, तो यह फ़ायदा तो हुआ ही है कि हम हर तीन वर्ष में अपनी संख्या का आकलन कर सकते हैं, नियमित तौर पर तयशुदा तौर पर वोटों की संख्या में होने वाली अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी के साथ इसने उसी अनुपात में मज़दूरों की विजय की निश्चितता को और उनके विरोधियों की निराशा को बढ़ाया है, और इसलिए यह प्रचार का हमारा सर्वश्रेष्ठ ज़रिया बन गया है; कि इसने हमें हमारी शक्ति और साथ ही सभी शत्रुतापूर्ण पार्टियों की शक्ति के बारे में सटीक सूचना दी है, और इस प्रकार हमें हमारी कार्रवाइयों के स्तर का सही आकलन करने का अद्वितीय उपकरण भी दिया है, जो हमें न सिर्फ असमय कातरता से बचाता है, बल्कि असमय दुस्साहसिकता से भी बचाता है – अगर हमें सार्विक मताधिकार से केवलयही फ़ायदे मिले होते तो भी यह काफ़ी होता। लेकिन हमें इससे ज़्यादा फ़ायदा मिला है। चुनाव प्रचार के रूप में इसने हमें जनता के व्यापक जनसमुदायों के साथ सम्पर्क स्थापित करने का अद्वितीय ज़रिया दिया है, जहाँ कहीं भी वे हमसे कटे हुए हैं; अन्य सभी पार्टियों को हमारे हमलों से जनता के समक्ष अपने विचारों कार्रवाइयों का बचाव करने पर मजबूर कर दिया है; और इसके अलावा, इसने राइख़स्टाग (जर्मनी की संसद–सं) में हमारे प्रतिनिधियों के समक्ष एक ऐसा मंच खोल दिया है जहाँ से वे संसद में अपने विरोधियों से और साथ ही संसद के बाहर जनसमुदायों से संवाद कर सकते हैं, और वह भी उससे बिल्कुल अलग किस्म के प्राधिकार और स्वतंत्रता के साथ्, जो कि हमें प्रेस में या जनसभाओं में मिलता है। सरकार और पूँजीपति वर्ग के लिए उनके समाजवाद-विरोधी क़ानून किस काम आये जबकि चुनाव प्रचार और राइखस्टाग में समाजवादी भाषण लगातार उसे भेदते रहे।”

एंगेल्स ने 1895 के काफ़ी पहले से ही संसद का बहिष्कार करने की ”वामपंथी” और अराजकतावादी कार्यदिशा पर चोट की थी। ‘बाकुनिनिस्ट्स एट वर्क’ नामक अपने लेख में एँ गेल्स ने अराजकतावादी बाकुनिनपंथियों की इस कार्यदिशा पर चोट करते हुए लिखा था :

”बाकुनिनपंथी ”राजनीतिक एब्सटेंशन” का यही नतीजा होता है। शान्ति काल में जबकि सर्वहारा वर्ग पहले से ही जानता है कि वह ज़्यादा से ज़्यादा जो हासिल कर सकता है वह है कि अपने कुछ प्रतिनिधियों को वह संसद में पहुँचा सके, और जब उसके द्वारा संसद में बहुमत-प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं है, तो यहाँ-वहाँ मज़दूरों को इस बात पर सहमत करना सम्भव हो सकता है कि चुनावों के दौरान घर बैठे रहना एक महान क्रान्तिकारी कार्रवाई है और सामान्य तौर पर एक ठोस वास्तविक राज्य पर, जिसमें कि हम रहते हैं और जो हमारा दमन करता है, हमला करने की बजाये एक अमूर्त राज्य पर हमला किया जाये जो कि कहीं मौजूद ही नहीं है, और इसलिए वह अपनी रक्षा कर ही नहीं सकता है। यह उस जनता के लिए क्रान्तिकारी होने का नाटक करने का एक आडम्बरपूर्ण तरीका है, जो कि आसानी से हतोत्साहित हो जाती है…

”लेकिन जैसे ही घटनाएँ  स्वयं सर्वहारा वर्ग को अग्रभूमि में ला खड़ा करती हैं, तो मतदान से अलग रहने की नीति एक स्पष्ट रूप से दिखाई देने वाली असंगति के रूप में सामने आ जाती है, और मज़दूर वर्ग द्वारा सक्रिय हस्तक्षेप एक न टाली जा सकतने वाली अनिवार्यता बन जाती है।”

इसी लेख में मज़दूर वर्ग द्वारा स्पेन में चुनावों में भागीदारी कर अपने राजनीतिक प्रचार व शिक्षण-प्रशिक्षण के मौके को बाकुनिनपंथियों की फूटपरस्त ग़लत नीतियों के चलते गँवा देने की आलोचना करते हुए एंगेल्स लिखते हैं :

”स्पेन के मज़दूरों में उस समय इण्टरनेशनल (मज़दूरों का पहला अन्तरराष्ट्रीय राजनीतिक संगठन–सं.) के नाम के प्रति अभी भी जो ज़बरदस्त आकर्षण था और कम से कम राजनीतिक उद्देश्यों के लिए स्पैनिश सेक्शन ने अभी तक जो शानदार संगठन कायम रखा था, उसके मद्देनज़र यह निश्चित था कि कैटालोनिया के कारख़ाना ज़िलों में, वैलेंसिया में, अंदालूसिया के शहरों, आदि में इण्टरनेशनल द्वारा नामित व समर्थित सभी उम्मीदवारों को शानदार जीत मिली होती, जोकि दोनों रिपब्लिकन समूहों के बीच किसी भी मसले पर फैसला लेने के लिए वोटिंग होने की सूरत में कोर्टेस (संसद) में एक पर्याप्त रूप से शक्तिशाली अल्पसंख्या पैदा कर देती। मज़दूर स्वयं इस बात को महसूस कर रहे थे; उन्हें लग रहा था कि अपने शक्तिशाली संगठन को काम में लाने का समय आ चुका है। लेकिन बाकुनिनपंथी स्कूल के सम्माननीय नेतागण लम्बे समय से बिना शर्त मतदान से दूर रहने का मंत्र प्रचारित कर रहे थे, और वे अचानक इस प्रक्रिया को पलट नहीं सके।”

उपरोक्त उद्धरणों से इतना साफ तौर पर देखा जा सकता है कि आम तौर पर बुर्जुआ चुनावों और संसद में रणकौशलात्मक भागीदारी के प्रश्न पर मार्क्स और एंगेल्स के समय में भी कम्युनिस्ट अवस्थिति स्पष्ट थी। जिस प्रकार मार्क्स और एंगेल्स ने अपने समय के अराजकतावादी और ”वामपंथी” भटकावों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए इस अवस्थिति को विकसित किया था, उसी प्रकार लेनिन ने भी अपने दौर में मौजूद वामपंथी और दुस्साहसवादी अवस्थितियों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए इसी अवस्थिति को विकसित किया। लेनिन के दौर में रणकौशलात्मक भागीदारी की कार्यदिशा इसलिए भी अधिक स्पष्टता के साथ विकसित हुई क्योंकि इस दौर में अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में पार्टी का सिद्धान्त भी सांगोपांग रूप ले चुका था। इसका श्रेय भी लेनिन को ही जाता है। कम्युनिस्ट पार्टी कैसी हो, उसका ढाँचा और संगठन कैसा हो, इस बारे में लेनिन का चिन्तन आज भी सभी संजीदा मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रान्तिकारियों के लिए केन्द्रीय महत्व रखता है।

मार्क्स और एंगेल्स के दौर के बाद बहिष्कार  के वामपंथी भटकाव ने फिर से लेनिन के दौर में यानी बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में वापसी की। इस दौर में बहिष्कारवाद के भटकाव ने कई प्रकार के रूप लिये जैसे कि चुनावों से दूर रहने की कार्यदिशा (एब्सटेंशन) या निष्क्रिय बहिष्कार की कार्यदिशा और सक्रिय बहिष्कार की कार्यदिशा। लेनिन ने इन दोनों ही प्रकार के बहिष्कार की कार्यदिशाओं का खण्डन किया और इस प्रक्रिया में पूँजीवादी चुनावों और संसदों के विषय में सही कम्युनिस्ट कार्यदिशा को आगे विकसित किया।

विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन में और साथ ही हमारे देश के कम्युनिस्ट आन्दोलन के इतिहास में एक पुराना ”वामपंथी” कम्युनिस्ट तर्क यह रहा है कि चूँकि बुर्जुआ संसदें राजनीतिक शक्ति का असली केन्द्र नहीं होतीं और चूँकि वास्तविक सत्ता के निकाय सशस्त्र बल, पुलिस, नौकरशाही आदि होते हैं इसलिए बुर्जुआ संसदों को बेनकाब करने और उसके असली राजनीतिक चरित्र को बेनक़ाब करने की कोई ज़रूरत नहीं है। लेनिन ने बताया कि ठीक इसीलिए संसद की असलियत को उजागर करने की आवश्यकता है कि वह पूँजीवादी राज्यसत्ता का असली शक्ति का केन्द्र नहीं होती और असली शक्ति सशस्त्र बलों, पुलिस व नौकरशाही के पास होती है जो कि पूँजीवादी राज्यसत्ता के स्थायी निकाय होते हैं। लेनिन ने जनवादी क्रान्ति के दौर में भी इस बात को साफ शब्दों में बताया था। ‘वर्तमान परिस्थिति का मूल्यांकन’ नामक अपने लेख में लेनिन लिखते हैं :

”तीसरी दूमा (रूसी संसद) कोई समझौते का निकाय नहीं है, बल्कि सीधे तौर पर एक प्रतिक्रियावादी निकाय है जो कि निरंकुश तंत्र को छिपाती नहीं है,बल्कि उसका पर्दाफ़ाश करती है, और जो किसी भी अर्थ में कोई स्वतंत्र भूमिका अदा नहीं करती। कोई भी कपोलकल्पना नहीं करता कि ज़ारशाही की वास्तविक शक्ति दकियानूस कट्टरवादियों की इस सभा में निहित है। सभी सहमत हैं कि ज़ारशाही इस पर टिकी नहीं है, बल्कि इसका इस्तेमाल करती है, कि ज़ारशाही अपनी सम्पूर्ण वर्तमान नीति को हर सूरतमें लागू कर सकती है,चाहे ऐसी दूमा को स्थगित कर दिया जाये (जैसे कि 1878 में तुर्की में संसद को ”स्थगित” कर दिया गया था) और चाहे इसे ‘ज़ेम्स्की सोबोर’ या ऐसी किसी चीज़ से प्रतिस्थापित कर दिया जाये। ‘दूमा मुर्दाबाद’ के नारे का अर्थ होगा मुख्य आक्रमण को एक ऐसी संस्था पर केन्द्रित करना जो कि न तो स्वतन्त्र है और न ही निर्णयकारी, और जो कोई प्रधान भूमिका निभाती ही नहीं है। ऐसा नारा ग़लत होगा। हमें पुराने नारों, यानी ‘निरंकुश तंत्र मुर्दाबाद’ और ‘संविधान सभा जिन्दाबाद’ के नारों को ही कायम रखना चाहिए क्योंकि वास्तव में यह निरंकुश तंत्र ही है जो कि असली प्राधिकार, प्रतिक्रिया का असली समर्थन आधार व समर्थन स्तम्भ बना हुआ है। निरंकुश तंत्र के पतन का अनिवार्य रूप से अर्थ होगा ज़ारशाही की एक संस्था के तौर पर तीसरी दूमा की बर्खास्तगी (और वह भी क्रान्तिकारी बर्खास्तगी) लेकिन अपनेआप में तीसरी दूमा के पतन का अर्थ होगा उसी निरकुश तंत्र का कोई नया गोरखधंधा या सुधार को कोई प्रयास – एक धोखेबाज़ और केवल प्रतीतिगत सुधार – उसी निरंकुशतंत्र द्वारा।”

1912 में लेनिन ने अपने लेख ‘ऑन दि ईव ऑफ़ इलेक्शंस टू दि फ़ोर्थ दूमा’ में बुर्जुआ चुनावों के क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट इस्तेमाल के विषय में लिखा कि पार्टी चुनावों के लिए कोई प्लेटफ़ॉर्म नहीं होती बल्कि कम्युनिस्ट कार्यक्रम के प्रचार-प्रसार के लिए चुनाव एक ज़रिया व मंच होते हैं। इसलिए चुनावों में क्रान्तिकारी हस्तक्षेप को चलते-चलाते किये जाने वाले कार्य के अन्दाज़ में नहीं बल्कि बेहद संजीगदगी के साथ किया जाना चाहिए। लेनिन इसी लेख में लिखते हैं :

” ‘चुनावों के लिए’ कोई मंच नहीं बल्कि क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवादी प्लेटफॉर्म के कार्यान्वयन के लिए चुनाव! – मज़दूर वर्ग की पार्टी इसे इसी प्रकार से देखती है। हमने पहले ही इस लक्ष्य की पूर्ति हेतु चुनावों का इस्तेमाल किया है और हम पूरी तरह उनका इस्तेमाल करेंगे। रूसी सामाजिक जनवादी मज़दूर पार्टी के क्रान्तिकारी प्लेटफ़ॉर्म, रणकौशल कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए हम सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी दूमा का भी इस्तेमाल करेंगे। वास्तव में मूल्यवान वे ही प्लेटफ़ॉर्म होते हैं, जो क्रान्तिकारी प्रचार के लम्बे कार्यभार को पूरा करते हैं…

1919 में लेनिन ने ‘इतालवी, फ्रांसीसी व जर्मन कम्युनिस्टों को शुभकामनाएँ’ नामक लेख में संसद का बहिष्कार करने की नीति पर चोट करते हुए लिखा :

”मार्क्सवादी सिद्धान्त और साथ ही तीन क्रान्तियों (1905, फरवरी 1917 और अक्टूबर 1917) के अनुभवों, दोनों के ही नज़रिये से, मैं किसी बुर्जुआ संसद में, किसी प्रतिक्रियावादी…ट्रेड यूनियन में, किसी अतिप्रतिक्रियावादी मज़दूर परिषद में, जो कि शीडमान सरीखे लोगों द्वारा पंगु बना दी गयी हो, शिरकत करने से इंकार करने को एक निस्संदेह ग़लती मानता हूँ।

”किन्हीं विशिष्ट मौक़ों पर, विशिष्ट देशों में बहिष्कार सही होता है, जैसेकि 1905 में ज़ारवादी दूमा का बोल्शेविकों द्वारा बहिष्कार। लेकिन उन्हीं बोल्शेविकों ने 1907 की कहीं ज़्यादा प्रतिक्रियावादी और सीधे-सीधे प्रतिक्रान्तिकारी दूमा में हिस्सा लिया। 1917 में बोल्शेविक बुर्जुआ संविधान सभा के चुनाव लड़े और 1918 में हमने इसी संविधान सभा को भंग कर डाला, जिससे तमाम टटपुँजिया जनवादी, काऊत्स्की सरीखे लोग और समाजवाद से ग़द्दारी करनेवाले अन्य लोग आतंकित हो उठे थे।…

”केवल बदमाश और नौसिखुआ लोग सोच सकते हैं कि पहले सर्वहारा वर्ग को बुर्जुआ वर्ग के जुवे के नीचे होने वाले, उजरती ग़ुलामी के जुवे के नीचे होने वाले चुनावों में बहुसंख्या जीतनी होगी और केवल तभी वह राजनीति सत्ता जीत सकता है। यह मूर्खता की, या फिर पाखण्ड की पराकाष्ठा है; इसका अर्थ होगा वर्ग संघर्ष और क्रान्ति की जगह पुरानी व्यवस्था के मातहत और पुरानी सत्ता के साथ होने वाले चुनावों को रख देना।

”सर्वहारा वर्ग अपने संघर्ष को चलाता रहता है और कोई हड़ताल शुरू करने से पहले चुनाव का इन्तज़ार नहीं करता है, हालाँकि किसी हड़ताल की पूर्ण सफलता के लिए, मेहनतकश जनता की बहुसंख्या की (और, इससे यह स्वत: ही निकलता है कि आबादी की बहुसंख्या की) हमदर्दी हासिल करना अनिवार्य होता है; पर सर्वहारा वर्ग अपना वर्ग संघर्ष चलाता है और (बुर्जुआ वर्ग की देखरेख में होने वाले और उसके जुवे तले होने वाले) किसी प्रारम्भिक चुनाव का इन्तज़ार किये बिना उसका तख़्तापलट देता है; और सर्वहारा वर्ग को अच्छी तरह से पता होता है कि उसकी क्रान्ति की सफलता के लिए, बुर्जुआ वर्ग के तख्तापलट की सफलता के लिए, यह एकदम ज़रूरी है कि मेहनतकश जनता की…बहुसंख्या की हमदर्दी उसके साथ हो।…

”आपको उन लोगों की ग़लती को समझने के लिए जो कि बुर्जुआ संसदों, प्रतिक्रियावादी ट्रेड यूनियनों, ज़ारवादी या शीडमान शॉप स्टीवर्ड कमेटियों या वर्क्स काउंसिलों आदि में भागीदारी करने को ”निषिद्ध” बना देते हैं, केवल सत्ता के लिए सर्वहारा संघर्षों – एक ऐसा संघर्ष जो कि रूपों की असाधारण विविधता में और तीर्व परिवर्तनों, मोड़ों और एक रूप से दूसरे रूप में जाने के आश्चर्यजनक रूप से भरपूर उदाहरणों में समृद्ध है – के जटिल, मुश्किल और लम्बे इतिहास पर थोड़ा विचार करने की आवश्यकता है। यह एकदम ईमानदार, प्रतिबद्ध और बहादुर मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारियों में क्रान्तिकारी अनुभव की कमी के कारण होने वाली ग़लती है।”

उपरोक्त उद्धरण में लेनिन स्पष्ट तौर पर बताते हैं कि 1905 की दूमा के बहिष्कार के अलावा, बोल्शेविकों ने उससे कहीं ज़्यादा प्रतिक्रियावादी दूमा में हिस्सेदारी की क्योंकि1905 का समय एक क्रान्तिकारी परिस्थिति का समय था। दूसरे शब्दों में, क्रान्तिकारी परिस्थिति के दौर के अलावा बहिष्कार के नारे को किसी भी अन्य दौर में सही नहीं ठहराया जा सकता है। लेनिन बताते हैं कि सर्वहारा वर्ग का सत्ता के लिए वर्ग संघर्ष बहुत से रूप लेता है, जिसमें से बुर्जुआ चुनावों में की जाने वाली रणकौशलात्मक भागीदारी एक रूप है औश्र एक अहम रूप है और इसलिए इस रूप में को सैद्धान्तिक तौर पर निषिद्ध बना देना या इसके पूर्ण रूप से खारिज कर देना एक भयंकर भूल है और राजनीतिक अनुभवहीनता को प्रदर्शित करता है। लेनिन के अनुसार, माकपा व भाकपा जैसी संशोधनवादी पार्टियों के समान संसद के दक्षिणपंथी सुधारवादी इस्तेमाल और संसद के ”वामपंथी” कम्युनिस्ट बहिष्कार दोनों ही भिन्न प्रकार की टटपुंजिया गलतियाँ हैं। एक दक्षिणपंथी टटपुंजिया ग़लती है तो दूसरी ”वामपंथी” टटपुंजिया ग़लती है। भारत में माकपा, भाकपा, भाकपा (माले) आदि जैसी संशोधनवादी पार्टियाँ वामपंथ के दायरे में दक्षिणपंथी टटपुंजिया ग़लती का शिकार हैं, तो भाकपा (माओवादी) व अन्य ”वामपंथी” दुस्साहसवादी कम्युनिस्ट संगठन/पार्टियाँ ”वामपंथी” टटपुंजिया ग़लती का शिकार हैं। इन दोनों छोरों की गलतियों के बारे में लेनिन इसी लेख में लिखते हैं:

”समाजवाद के ग़द्दारों शीडमानों व काऊत्स्कियों के विरुद्ध संघर्ष को निर्ममताके साथ चलाया जाना चाहिए, लेकिन इस मुद्दे पर नहीं कि बुर्जुआ संसदों, प्रतिक्रियावादी ट्रेड यूनियनों आदि में हिस्सेदारी की जाये या की जाये। यह ज़ाहिरा तौर पर एक ग़लती होगी,और इससे भी बड़ी ग़लती होगी मार्क्सवाद के विचारों और उसकी व्यावहारिक कार्यदिशा (एक शक्तिशाली, केन्द्रीकृत राजनीतिक पार्टी) से संघाधिपत्यवाद के विचारों और व्यवहार की ओर पीछे हटना। ऐसी बुर्जुआ संसदों में, प्रतिक्रियावादी ट्रेड यूनियनों में और ”वर्क्स” काउंसिलों में पार्टी की भागीदारी के लिए काम करना अनिवार्य है, जो कि शीडमान-सरीखी शैली से अंग-भंग हो चुकी हों और बधिया बना दी गयी हों, ताकि पार्टी हर उस जगह उपस्थित हो सके जहाँ मज़दूर हैं, जहाँ मज़दूरों से बात करना, मेहनतकश जनसमुदायों कोप्रभावित करना सम्भव हो।

1919 में ही लेनिन ने ‘कॉमरेड सेराती और सभी इतालवी कम्युनिस्टों के नाम’ अपने पत्र में बहिष्कारवाद की दिशा का फिर से निषेध किया और इतालवी कम्युनिस्टों को इस बाबत सही कार्यदिशा अपनाने के लिए बधाई दी :

”मैं सभी इतालवी कम्युनिस्टों को हार्दिक शुभकामनाएँ  भेजता हूँ और आपकी लम्बी सफलता की कामना करता हूँ। इतालवी पार्टी की मिसाल पूरी दुनिया के लिए विशाल महत्व रखेगी। विशेष तौर पर बुर्जुआ संसदों में भागीदारी के विषय में आपकी कांग्रेस में पारित प्रस्ताव मेरी राय में एकदम सही है और मैं उम्मीद करता हूँ कि यह जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी में एकता हासिल करने में मदद करेगी, जिसमें कि इसी मुद्दे पर अभी-अभी फूट पड़ी है।”

1920 में विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन और विशेष तौर पर जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी में संसद में भागीदारी के प्रश्न पर चल रही बहस के सन्दर्भ में लेनिन ने मॉस्को सोवियत के प्रतिनिधियों की एक बैठक में स्पष्ट शब्दों में कहा कि वर्ग संघर्ष के अनुभवों ने बिना शक़ यह दिखला दिया है कि बुर्जुआ संसदों का कम्युनिस्टों द्वारा क्रान्तिकारी इस्तेमाल एक ऐतिहासिक अनिवार्यता है। लेनिन लिखते हैं :

”एक बार फिर से असहमतियाँ सिर उठा रही हैं, मिसाल के तौर पर संसदों के इस्तेमाल के प्रश्न पर, लेकिन रूसी क्रान्ति और गृहयुद्ध के अनुभव, लीब्कनेख्त के व्यक्तित्व और सांसदों के बीच उनकी भूमिका व महत्व जबसे दुनिया को ज्ञात हो चुके हैं, संसदों के क्रान्तिकारी इस्तेमाल को खारिज करना बेतुका हो चुका है। पुराने तरीके से सोचने वाले लोगों को यह स्पष्ट हो गया है कि राज्यसत्ता के प्रश्न को पुराने अन्दाज़ में पेश नहीं किया जा सकता है, कि इस प्रश्न पर पुरानी किताबी पहुँच की जगह व्यवहार पर आधारित और क्रान्तिकारी क्षण से पैदा हुई एक नयी पहुँच ने ले ली है।”

1920 में ‘ऑस्ट्रियाई कम्युनिस्टों को पत्र’ में लेनिन ने उनके द्वारा इस आधार पर संसद के बहिष्कार की कार्यदिशा की आलोचना की कि सोवियतों जैसी संस्थाएँ  अस्तित्व में आ चुकी हैं। लेनिन लिखते हैं :

”ऑस्ट्रियाई कम्युनिस्ट पार्टी ने बुर्जुआ जनवादी संसद के चुनावों के बहिष्कार का निर्णय लिया है। कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल की दूसरी कांग्रेस ने जो कि हाल ही में सम्पन्न हुई है, चुनावों में कम्युनिस्ट भागीदारी और बुर्जुआ संसदों में गतिविधियों को सही रणकौशल के रूप में मान्यता दी है…

”ऑस्ट्रियाई सामाजिक जनवादी बुर्जुआ संसद में वैसा ही बर्ताव कर रहे हैं जैसाकि अपने प्रेस समेत अपने कार्य के हर क्षेत्र में कर रहे हैं, यानी कि ऐसे टटपुँजिया जनवादियों के समान जो कि केवल रीढ़विहीन ढुलमुलपन के काबिल होते हैं, जबकि वास्तव में वे पूँजीपति वर्ग पर पूरी तरह से निर्भर होते हैं। हम कम्युनिस्ट बुर्जुआ संसदों में इसलिए प्रवेश करते हैं ताकि उन्हीं के मंचों से इन पूर्ण रूप से भ्रष्ट पूँजीवादी संस्थाओं द्वारा व्यवहार में लायी जाने वाली धोखेबाज़ी को बेनक़ाब कर सकें, जो कि मज़दूरों और समस्त मेहनतकश जनता को मूर्ख बनाती हैं।

आगे लेनिन स्पष्ट करते हैं कि क्रान्तिकारी परिस्थिति के अपवाद को छोड़कर हर सूरत में बहिष्कार की नीति ग़लत है और वास्तव में संसद और पूँजीवादी चुनावों में रणकौशलात्मक हस्तक्षेप के बिना इस बात की गुंजाइश ही कम है कि क्रान्तिकारी परिस्थिति पैदा होगी। इसी पत्र में लेनिन लिखते हैं :

”जब तक हम कम्युनिस्ट राज्य सत्ता पर क़ब्ज़ा करने और फिर चुनाव आयोजित करने में अक्षम हैं, जिसमें कि हम केवल जनता के साथ काम करेंगे जो कि बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध अपनी सोवियतों के लिए वोट डालेगी; जब तक कि बुर्जुआ वर्ग राज्य सत्ता को चला रहा है और आबादी के विभिन्न वर्गों को चुनावों में हिस्सा लेने के लिए आमन्त्रित कर रहा है, हमारा कर्तव्य है कि हम इन चुनावों में, महज़ सर्वहारा वर्ग के बीच नहीं बल्कि समस्त मेहनतकश जनता के बीच प्रचार आयोजित करने के उद्देश्य से हिस्सा लें। जब तक कि बुर्जुआ संसद मज़दूरों को धोखा देने का ज़रिया बनी रहती है, और वित्तीय जालसाज़ी और हर प्रकार की घूसखोरी… पर पर्दा डालने के लिए जब तक ”जनवाद” के जुमलों का इस्तेमाल किया जाता है, तब तक हम कम्युनिस्ट कर्तव्यबद्ध तौर पर इसी संस्था में रहने के लिए बाध्य हैं…ताकि हम बिना थके इस धोखे को बेनक़ाब कर सकें…संसद में ही बुर्जुआ पार्टियों व ग्रुपों के बीच के सम्बन्ध सबसे अधिक बारंबारता के साथ अपनेआप को प्रकट करते हैं और साथ ही बुर्जुआ समाज के सभी वर्गों के बीच के सम्बन्धों को भी दिखलाते हैं। इसीलिए बुर्जुआ संसद में ही, इसके भीतर से, हम कम्युनिस्टों को वर्गों और पार्टियों के बीच के सम्बन्धों की सच्चाई को, और खेत मज़दूरों के प्रति भूस्वामियों के, ग़रीब किसानों के प्रति अमीर किसानों के, कर्मचारियों और छेाटे मालिकों आदि के प्रति बड़ी पूँजी के रवैये की सच्चाई को जनता को बताना चाहिए।”

इसी लेख में लेनिन ऑस्ट्रियाई कम्युनिस्टों की इस दलील को खारिज करते हैं कि चूँकि उन्होंने सोवियतों के समान मज़दूर परिषदों का निकाय बना लिया है इसलिए वे संसद में जाने की आवश्यकता को नहीं मानते हैं। लेनिन लिखते हैं :

”मैं इस दलील को ग़लत मानता हूँ। जब तक कि हम बुर्जुआ संसद को भंग करने में अक्षम हैं, हमें इसके भीतर से और साथ ही बाहर से भी इसके ख़िलाफ़ काम करना चाहिए। जब तक मेहनतकश जनता (केवल सर्वहारा नहीं, बल्कि अर्द्धसर्वहारा और छोटे किसान भी) की एक विचारणीय संख्या का उन बुर्जुआ जनवादी उपकरणों में अभी भरोसा है जिनका इस्तेमाल बुर्जुआ वर्ग मज़दूरों को धोखा देने में करता है, तब तक हमें इस धोखेबाज़ी का ठीक उसी मंच से पर्दाफ़ाश करना चाहिए जिसे मज़दूर वर्ग के पिछड़े हिस्से, और विशेष तौर पर गैर-सर्वहारा मेहनतकश जनता, सबसे महत्वपूर्ण और प्राधिकारसम्पन्न मानते हैं।”

1920 में ही ‘संसदवाद के बारे में’ नामक अपने भाषण में लेनिन ने स्पष्ट किया कि मज़दूर वर्ग समेत समूची जनता में कुछ उन्नत तत्व होते हैं, लेकिन एक अच्छी-ख़ासी आबादी राजनीतिक रूप से पिछड़े तत्वों की भी होती है। ऐसे तत्व संसद को सबसे अहम राजनीतिक निकाय मानते हैं और यह मानते हैं कि वह जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है। उन्हें महज़ राजनीतिक प्रचार से इस संस्था की ऐतिहासिक अप्रासंगिकता पर सहमत नहीं किया जा सकता है। इसके लिए उनके सामने व्यवहार में यह साबित करने की आवश्यकता होती है कि संसद आम मेहनतकश जनता की इच्छा को अभिव्यक्ति या प्रतिनिधित्व नहीं देती है। लेनिन लिखते हैं : 

”सभी पूँजीवादी देशों में मज़दूर वर्ग के भीतर पिछड़े तत्व होते हैं जो कि इस बात पर सहमत होते हैं कि संसद जनता की सच्ची प्रतिनिधि है और उन बेईमान तौर-तरीक़ों को नहीं समझ पाते हैं जो कि वहाँ अपनाये जाते हैं। आप कहते हैं कि संसद वह उपकरण है जिसकी मदद से बुर्जुआ वर्ग जनसमुदायों को धोखा देता है, लेकिन इस तर्क को ही आपके ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जाना चाहिए और यह वास्तव में आपकी थीसिस के ख़िलाफ़ ही जाता है। आप वास्तव में पिछड़े जनसमुदायों के समक्ष संसद के सच्चे चरित्र को कैसे उजागर करेंगे, जिन्हें बुर्जुआ वर्ग द्वारा ठगा जाता है? आप तमाम संसदीय दाँवपेचों या विभिन्न पार्टियों की अविस्थितियों को किस प्रकार बेनक़ाब करेंगे, अगर आप संसद में ही नहीं हैं, और अगर आप संसद के बाहर बने रहते हैं? अगर आप मार्क्सवादी हैं तो आपको मानना ही होगा कि पूँजीवादी समाज में वर्गों के सम्बन्धों और पार्टियों के सम्बन्धों के बीच करीबी रिश्ता होता है। मैं फिर से दुहराता हूँ, आप ये सब कैसे दिखलायेंगे अगर आप संसद के सदस्य नहीं है, और आप संसदीय कार्रवाई को ही त्याग देते हैं? रूसी क्रान्ति के इतिहास ने साफ़ तौर पर दिखलाया है कि मज़दूर वर्ग के जनसमुदायों, किसानों और निम्न कार्यालय कर्मचारियों को किन्हीं भी तर्कों से सहमत नहीं किया जा सकता है, अगर उनके स्वयं के अनुभवों ने उन्हें सहमत नहीं किया होता।”

इसी भाषण में लेनिन आगे कहते हैं :

”यहाँ पर यह दावा किया गया है कि संसदीय संघर्षों में हिस्सा लेना समय की बरबादी है। क्या आप किसी दूसरी ऐसी संस्था के बारे में सोच सकते हैं जिसमें सभी वर्ग उसी प्रकार दिलचस्पी रखते हों, जैसे कि वे संसद में रखते हैं? इसे कृत्रिम रूप से पैदा नहीं किया जा सकता है। अगर वे सभी वर्ग संसदीय संघर्ष में शामिल होते हैं, तो ऐसा इसलिए है कि उनके हित और उनके टकराव संसद में प्रतिबिम्बित होते हैं। अगर हर जगह और तत्काल ऐसा सम्भव हो ताकि, मिसाल के तौर पर एक आम हड़ताल करके एक ही चोट में पूँजीवाद को उखाड़ फेंका जाये, तो कई देशों में पहले ही क्रान्ति हो चुकी होती। लेकिन हमें तथ्यों का आकलन करना चाहिए, संसद वर्गसंघर्ष का एक स्थान होता है।”

लेनिन ने संसद में कम्युनिस्टों द्वारा रणकौशलात्मक भागीदारी के विषय में और संसद के बहिष्कार की ग़लत कार्यदिशा के अपने खण्डन के विषय में सबसे विस्तार से अपनी प्रसिद्ध रचना ‘वामपंथी कम्युनिज्म: एक बचकाना मर्ज’ में लिखा। इस रचना में उन्होंने मुख्य तौर पर डच कम्युनिस्ट पार्टी के वामपंथी भटकाव की आलोचना की थी, जिन्होंने संसद के बहिष्कार की नीति अपनायी थी। लेनिन इस रचना में लिखते हैं :

”आलोचना—सर्वाधिक तीखी, निर्मम, समझौताविहीन आलोचना—की जानी चाहिए, लेकिन संसदवाद या संसदीय गतिविधियों की नहीं बल्कि उन नेताओं की जो कि संसदीय चुनावों और संसदीय मंच का इस्तेमाल क्रान्तिकारी और कम्युनिस्ट तरीके से करने में अक्षम, या इससे भी महत्वपूर्ण, ऐसा करने के ख़िलाफ़ हैं।

लेनिन आगे डच कम्युनिस्टों के इस तर्क का खण्डन करते हैं कि चूँकि पूँजीवादी संसदें ऐतिहासिक तौर पर अप्रासंगिक हो चुकी हैं और चूँकि ऐतिहासिक तौर पर पूँजीवादी संसदों से अधिक उन्नत सोवियत जनवाद की संस्थाएँ  पैदा हो चुकी हैं, इसलिए पूँजीवादी संसदों में भागीदारी किसी भी रूप में ग़लत है। लेनिन तर्क देते हैं :

”संसदवाद ”ऐतिहासिकरूप से अप्रासंगिक” हो चुका है। यह प्रचारात्मक अर्थों में सही है। लेकिन हर कोई जानता है कि व्यवहार में ऐसा होना अभी एक दूर की कौड़ी है। पूँजीवाद को भी – और पूरी वैधता के साथ ” आज से कई दशकों पहले ही ”ऐतिहासिक रूप से अप्रासंगिक” घोषित किया जा सकता था, लेकिन यह पूँजीवाद के आधार पर ही बहुत लम्बे और दृढ़ संघर्ष की आवश्यकता को कतई समाप्त नहीं करता है। विश्व इतिहास की दृष्टि से संसदवाद ”ऐतिहासिक रूप से अप्रासंगिक” हो चुका है, यानी कि सर्वहारा अधिनायकत्व का युग शुरू हो चुका है। इस पर कोई प्रश्न नहीं उठाया जा सकता है। लेकिन विश्व इतिहास दशकों में गिना जाता है। दस या बीस वर्ष पहले या बाद से कोई फर्क नहीं पड़ता जब कि हम विश्व इतिहास के पैमाने से माप रहें हों; विश्व इतिहास के दृष्टिकोण से यह छोटी-सी बात है जिस पर सन्निकट रूप में भी विचार नहीं किया जा सकता है। लेकिन ठीक इसी कारण से, विश्व इतिहास के पैमाने को व्यावहारिक राजनीतिक पर लागू करना एक सैद्धान्तिक भूल है।

”क्या संसदवाद ”राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक” है? यह एकदम अलग मामला है। अगर यह सच होता तो ”वामपंथियों” की अवस्थिति मज़बूत होती। लेकिन इसे सर्वाधिक गहरे विश्लेषण से सिद्ध किया जाना होगा, और ”वामपंथियों” को यह तक नहीं पता है कि इस मुद्दे को कैसे अप्रोच किया जाये। …

”पहली बात तो यह है कि रोज़ा लक्ज़मबर्ग और कार्ल लीब्कनेख्त जैसे शानदार राजनीतिक नेताओं की राय के विपरीत, जर्मन ”वामपंथी” जैसा कि हम जानते हैं, जनवरी 1919 में ही संसदवाद को ”राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक” मानते थे। हम जानते हैं कि”वामपंथी” ग़लत थे। केवल यह तथ्य ही एक ही प्रहार में, इस विचार की धज्जियाँ उड़ा देता है कि संसदवाद ”राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक” है। यह ”वामपंथियों” को सिद्ध करना होगा कि उस दौर में उनकी जो ग़लती निर्विवाद रूप से एक ग़लती थी, अब वह एक ग़लती कैसे नहीं रह गयी है।…

”…जब लाखों की संख्या में और ”विशाल भीड़” में सर्वहारा न केवल आम तौर पर संसदवाद के पक्ष में है, बल्कि एकदम ”प्रतिक्रान्तिकारी” है, तो आप कैसे कह सकते हैं कि ”संसदवाद राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक” हो गया है!? यह ज़ाहिर सी बात है कि जर्मनी में संसदवाद अभी राजनीतिक तौर पर अप्रासंगिक नहीं हुआ है। यह स्पष्ट है कि जर्मनी में ”वामपंथियों” ने अपनी इच्छा, अपने राजनीतिक-विचारधारात्मक रवैये और वस्तुगत यथार्थ को गड्डमड्ड कर दिया है। क्रान्तिकारियों के लिए ऐसी ग़लती करना सबसे ख़तरनाक किस्म की ग़लती करने के समान है…संसदवाद निश्चित तौर पर जर्मनी के कम्युनिस्टों के लिए ”राजनीतिक तौर पर अप्रासंगिक” है; लेकिन यही तो बात है – हमें किसी ऐसी चीज़ को किसी वर्ग, जनसमुदायों के लिए अप्रासंगिक नहीं मान बैठना चाहिए जो कि हमारे लिए अप्रासंगिक हो चुकी है।…

”अगर ”लाखों” की संख्या और ”विशाल भीड़ों” में नहीं, बल्कि औद्योगिक मज़दूरों की एक अच्छी-खासी बड़ी अल्पसंख्या भी कैथोलिक पादरी वर्ग की अगुवाई के पीछे चलती है – और अगर ग्रामीण मज़दूरों की ऐसी ही अल्पसंख्या जमींदारों और कुलकों का अनुसरण करती है – तो यह साफ़ तौर पर दिखलाता है कि संसदवाद ने जर्मनी में अभी राजनीतिक तौर पर अपना जीवन पूरा नहीं जिया है, कि संसदीय चुनावों में भागीदारी और संसदीय मंच पर संघर्ष में भागीदारी क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग की पार्टी के लिए बाध्यता है, विशेष तौर पर अपने वर्ग के पिछड़े संस्तरों को शिक्षित करने के उद्देश्य से, और अविकसित, दमित और अज्ञानी ग्रामीण जनसमुदायों को जागृत और प्रबोधित करने के उद्देश्य से।”

जैसाकि हम देख सकते हैं, ‘वामपंथी कम्युनिज्म: एक बचकाना मर्ज़’ में लेनिन ने विस्तार से स्पष्ट किया है कि बुर्जुआ चुनावों, संसद और समूची पूँजीवादी व्यवस्था के ऐतिहासिक रूप से अप्रासंगिक होने पर कोई प्रश्न नहीं है, लेकिन क्या वह राजनीतिक रूप से भी अप्रासंगिक हो गयी है? इसका फै़सला इस बात से नहीं होगा कि सर्वहारा वर्ग के उन्नत तत्व और हिरावल पार्टी ऐसा मानते हैं। इसका फै़सला इस बात से भी नहीं होगा कि समूचा सर्वहारा वर्ग क्या मानता है। इसका फै़सला इस बात से होगा कि समूची मेहनतकश जनता की विशाल बहुसंख्या क्या मानती है, या राजनीतिक चेतना के किस धरातल पर है। व्यापक मेहनतकश जनता राजनीतिक चेतना के उस धरातल पर पहुँचे, इसमें कई वस्तुगत और आत्मगत कारक होतेहैं। एक वस्तुगत कारक होता है पूँजीवादी व्वस्था का संकटग्रस्त होना और इस संकट का बुर्जुआ वर्ग की राज्यसत्ता के राजनीतिक संकट के रूप में प्रकट होना। लेकिन इसके साथ ही कई मनोगत कारक भी इसमें शामिल हैं और इनमें सबसे महत्वपूर्ण यह है कि कम्युनिस्ट बुर्जुआ जनवादी विभ्रमों को व्यापक मेहनतकश जनता के बीच से किस हद तक साफ़ कर सकते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं है कि तमाम बुर्जुआ जनवादी विभ्रमों में से सबसे महत्वपूर्ण विभ्रम है बुर्जुआ चुनावों और संसद से जुड़ा हुआ विभ्रम; यही वह राजनीतिक प्रक्रिया है जिससे पूँजीपति वर्ग अपना वर्चस्व स्थापित करता है, यानी शासन करने की सहमति निर्मित करता है। नतीजनत, इस विभ्रम का निवारण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। लेनिन स्पष्ट करते हैं कि यह कार्य केवल संसद के बाहर के जनसंघर्षों से नहीं हो सकता है, बल्कि बुर्जुआ संसद के भीतर भी एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट विपक्ष की मौजूदगी ही इस ऐतिहासिक रूप से अप्रासंगिक हो चुकी बुर्जुआ जनवादी संस्था को राजनीतिक रूप से भी अप्रासंगिक बना सकती है। और लेनिन इसे एक सामान्य कार्यदिशा के रूप में पेश करते हैं न कि किसी विशिष्ट रूसी स्थिति में पैदा हुई विशिष्ट नीति के रूप में। अन्त में समाहार पेश करते हुए लेनिन लिखते हैं :

”इससे जो नतीजा निकलता है कि वह पूरी तरह से अखण्डनीय है : यह सिद्ध किया जा चुका है कि बुर्जुआ जनवादी संसद में भागीदारी क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को नुकसान पहुँचाने से कहीं दूर, सोवियत गणतन्त्र की विजय से कुछ सप्ताह पहले भी और ऐसी विजय के बाद भी, वास्तव में पिछड़े जनसमुदायों के समक्ष यह सिद्ध करने में सहायता करती है कि क्यों ऐसी संसदों को समाप्त कर दिया जाना चाहिए; यह उनके सफलतापूर्वक भंग कर दिये जाने में भी सहायता पहुँचाती है, और बुर्जुआ संसदवाद को ”राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक” बनाने में भी सहायता पहुँचाती है। इस अनुभव की उपेक्षा करने, जबकि साथ ही कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल से सम्बन्ध का दावा करने, जिसे कि अपने रणकौशल को अन्तरराष्ट्रीय तौर पर (न कि संकीर्ण और केवल राष्ट्रीय रणकौशलों के तौर पर, बल्कि अन्तरराष्ट्रीय रणकौशलों के तौर पर) विकसित करना होता है, का अर्थ है एक गम्भीर ग़लती करना और शब्दोंमें अन्तरराष्ट्रीयतावाद को मान्यता देते हुए, व्यवहार में उसका परित्याग करना।”

जैसाकि हम देख सकते हैं कि पूँजीवादी चुनावों और संसद में कम्युनिस्टों द्वारा रणकौशलात्मक भागीदारी के विषय में लेनिन के विचार एकदम सुदृढ़ और स्पष्ट हैं। अब हम माओ के विचारों की ओर रुख करते हैं, जिनकी दीर्घकालिक लोकयुद्ध की विशिष्ट कार्यदिशा को भारत के और दुनिया के कई देशों के कतिपय ”माओवादी” एकमात्र सार्वभौमिक कार्यदिशा के रूप में पेश करते हैं, और यह दावा करते हैं कि लेनिन और तीसरे इण्टरनेशनल द्वारा रणकौशलात्मक भागीदारी की कार्यदिशा पुरानी पड़ चुकी है और चीन की पार्टी द्वारा नवउपनिवेशों व अर्द्धसामन्ती अर्द्धऔपनिवेशिक देशों के लिए तत्काल सशस्त्र संघर्ष, संसद का व चुनावों का बहिष्कार तथा दीर्घकालिक लोकयुद्ध की कार्यदिशा ही एकमात्र सही कार्यदिशा है। अव्वलन तो भारत और भारत सरीखे तथाकथित तीसरी दुनिया के तमाम देश नवउपनिवेश या अर्द्धउपनिवेश हैं ही नहीं, और अगर होते भी तो भी माओ की दीर्घकालिक लोकयुद्ध की नीति एक बेहद विशिष्ट परिस्थिति में सामने आयी थी और यह क्रान्तिकारी जनदिशा का निषेध नहीं थी। आइये माओ के विचारों पर एक संक्षिप्त निगाह डालते हैं।

पूँजीवादी चुनावों व संसद में कम्युनिस्टों की रणकौशलात्मक भागीदारी के विचारों को जानने के पहले यह समझना ज़रूरी है कि तमाम वामपंथी दुस्साहसवादी संगठन/पार्टियाँ इस विषय में माओ की समझदारी को बुरी तरह से विकृत करती हैं। उनका मानना है कि बुर्जुआ चुनावों तथा संसद के रणकौशलात्मक उपयोग का नारा उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध की विशिष्ट यूरोपीय स्थिति के लिए, जहाँ समाजवादी क्रान्ति का कार्यक्रम लागू होता था, दुरुस्त था, लेकिन यह तथाकथित तीसरी दुनिया के देशों के लिए उपयुक्त नहीं है। इन देशों के लिए, जो कि हमारे वामपंथी दुस्साहसवादियों के लिए या तो अर्द्धसामन्ती-अर्द्धऔपनिवेशिक देश हैं या फिर नवऔपनिवेशिक देश, माओ ने दीर्घकालिक लोकयुद्ध की रणनीति बतायी है और इस रणनीति के साथ बुर्जुआ संसद व चुनावों के रणकौशलात्मक उपयोग का नारा मेल नहीं खाता है। उनके अनुसार, दीर्घकालिक लोकयुद्ध की रणनीति में ही यह दर्ज है कि पहली मंज़िल से ही तत्काल सशस्त्र संघर्ष ही किया जायेगा। ऐसे में, बुर्जुआ संसदें हमारे लिए पूर्ण रूप से बेकार हैं। उनका तो यह भी दावा है कि बुर्जुआ संसदें राजनीतिक रूप से अब अप्रासंगिक हो चुकी हैं। यह पूरी समझदारी ही बेहद अधकचरी, तथ्यात्मक तौर पर ग़लत है।

पहली बात तो यह है कि माओ ने दीर्घकालिक लोकयुद्ध के रास्ते को बुर्जुआ संसद व चुनावों के रणकौशलात्मक उपयोग के आम निषेध के तौर पर नहीं पेश किया था। दूसरी बात यह कि चीन में पार्टी के सामने यह प्रश्न ही नहीं था क्योंकि वहाँ कोई बुर्जुआ संसद थी ही नहीं। तीसरी बात यह है कि जब बुर्जुआ जनवादी शक्तियों ने ऐसे प्रातिनिधिक निकाय को खड़ा करने का प्रयास किया था तो माओ स्वयं उसका अंग बने थे। वास्तव में, सुन यात सेन ने जो प्री-पार्लियामेंट गठित की थी, माओ स्वयं उसके सदस्य थे और माओ ने नेशनल असेम्बली, यानी संसद की माँग रखी थी। 1938 में, यानी कि जब दीर्घकालिक लोकयुद्ध की रणनीति पेश की जा चुकी थी, तब माओ ने एक साक्षात्कार में कहा था: ”उस जनवादी गणराज्य में, जिसकी वकालत कम्युनिस्ट पार्टी करती है, संसद को हमारे लोगों द्वारा चुना जायेगा, जो कि औपनिवेशिक ग़ुलामी से इंकार करते हैं। चुनाव बिना किसी रोक-टोक सार्विक मताधिकार पर आधारित होंगे। हमारा राज्य एक जनवादी राज्य होगा। व्यापक रूपरेखा में यह वह राज्य होगा जिसकी स्थापना पर सुन यात-सेन ने काफ़ी पहले बल दिया था। इसी रास्ते पर चीनी राज्य का विकास होना चाहिए।”

1938 में ही चीन की राष्ट्रीय राजनीतिक परिषद के कम्युनिस्ट सदस्यों ने यह घोषणा की थी: ”हालाँकि यह परिषद, जिस पद्धति से वह स्थापित की गयी है उसमें भी और अपने संघटन में भी, जनता का निरपेक्ष रूप से प्रातिनिधि निकाय नहीं है…

”…परिषद के कम्युनिस्ट सदस्य इस आधार पर अपनी ज़िम्मेदारी से इंकार नहीं करते हैं कि इस परिषद के सदस्यों को जनता द्वारा नहीं चुना गया है। हमें इस बात का गहराई से अहसास है कि परिषद के सदस्य जनता के सेवक हैं, और नतीजतन, हम चीन की जनता की इच्छाओं, आशाओं और माँगों को पूरा करने के लिए दृढ़ता से संघर्ष करेंगे।”

सच्चाई यह है कि हमारे वामपंथी दुस्साहसवादी जिसे ”चीनी पथ” का नाम देते हैं, उसका रणनीतिक बहिष्कार के नारे से कोई लेना-देना नहीं है। वे अपने समर्थन में स्तालिन की उस उक्ति का जिक्र करते हैं, जिसमें उन्होंने दीर्घकालिक लोकयुद्ध की रणनीति को सही ठहराया था और इसे वे कोमिण्टर्न की चुनावों में कम्युनिस्टों की भागीदारी-सम्बन्धी थीसीज़ के निषेध के तौर पर पेश करते हैं। सच्चाई यह है कि चीन में कोई संसद नहीं थी और स्तालिन ने दीर्घकालिक लोकयुद्ध की रणनीति को यह कहकर सही ठहराया था कि चीनी क्रान्ति सशस्त्र प्रतिक्रान्ति का सामना कर रही है। हमारे वामपंथी दुस्साहसवादी इस सारे सन्दर्भ को गोल कर जाते हैं, ताकि तत्काल सशस्त्र संघर्ष और दीर्घकालिक लोकयुद्ध की रणनीति को सर्वहारा क्रान्ति की एकमात्र सार्वभौमिक रणनीति के तौर पर पेश कर सकें और जो भी इससे अलग सोच रखता है, वह उनके लिए संशोधनवादी, दक्षिणपंथी विचलन का शिकार आदि हो जाता है। सच्चाई यह है कि चीनी पार्टी ने हरेक कानूनी चैनल का इस्तेमाल करने का पूरा प्रयास किया, जैसाकि राष्ट्रीय राजनीतिक परिषद के कम्युनिस्ट सदस्यों द्वारा दिये गये, उपरोक्त उद्धृत बयान से स्पष्ट है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी उस बुर्जुआ निकाय में भी शिरकत कर रही थी, जो कि सीमित मताधिकार पर भी आधारित नहीं था, जैसे कि दूमा या यूरोपीय संसदें।

हमें न सिर्फ यह ऐतिहासिक सन्दर्भ पता होना चाहिए बल्कि चीनी पार्टी के दीर्घकालिक लोकयुद्ध के रास्ते को अपनाने के विशिष्ट ऐतिहासिक सन्दर्भ और तर्कों का भी ज्ञान होना चाहिए, ताकि हम यह समझ सकें कि दीर्घकालिक लोकयुद्ध या ‘चीनी पथ’ न सिर्फ़ आज भारत और भारत जैसे तमाम देशों में लागू नहीं होता है, बल्कि जब वह जिन देशों में लागू होता था, वहाँ भी वह कोमिण्टर्न और लेनिन की चुनाव में भागीदारी के सन्दर्भ में दी गयी कार्यदिशा का खण्डन नहीं था, बल्कि एक ऐसी स्थिति में लागू की जाने वाली कार्यदिशा थी, जहाँ संसद थी ही नहीं और क्रान्ति और पार्टी को सशस्त्र प्रतिक्रान्ति का शुरुआती मंजिलों से ही सामना करना पड़ रहा था।

आज के दौर में पूँजीवादी चुनावों, संसद व विधानसभाओं में कम्युनिस्टों द्वारा रणकौशलात्मक हस्तक्षेप के लक्ष्य

मार्क्स से माओ तक पूँजीवादी चुनावों और संसद-विधानसभा आदि में कम्युनिस्टों द्वारा रणकौशलात्मक हस्तक्षेप के विषय में पेश विचारों पर चर्चा के बाद अन्त में हम इस रणकौशलात्मक हस्तक्षेप के लक्ष्यों पर विचार करते हुए समाहार कर सकते हैं।

पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीवादी जनवाद को असम्भाव्यता के बिन्दु पर पहुँचाना – जैसा कि हमने उपरोक्त तमाम उद्धरणों में देखा, बुर्जुआ चुनावों और संसद में रणकौशलात्मक हस्तक्षेप का लक्ष्य होता है कि बुर्जुआ संसद व बुर्जुआ जनवाद के क्षरण और विनाश की ऐतिहासिक वस्तुगत प्रक्रिया को मनोगत रूप से बल और गति प्रदान करना, क्योंकि यह प्रक्रिया वस्तुगत तौर पर स्वत:स्फूर्त रूप से पूर्ण नहीं हो सकती है। इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी पूँजीवादी जनवाद और उसके प्रातिनिधिक निकाय यानी कि संसद, को उसके असम्भाव्यता के बिन्दु पर पहुँचाने के लिए संसद के भीतर एक सर्वहारा विपक्ष की भूमिका अदा करते हैं। यह काम कई प्रकार से होता है: पहला, साम्राज्यवाद के दौर में चूँकि पूँजीपति वर्ग अपने जनवादी-संवैधानिक वायदों को भी पूरा नहीं कर सकता है, इसलिए उन वायदों और नारों को पूरा करवाने के लिए सतत संघर्ष करना, यानी कि उन वायदों के साथ अति-अभिज्ञान करना और इस प्रक्रिया में पूँजीपति वर्ग द्वारा उनके पूरा होने की असम्भाव्यता को प्रदर्शित करना। दूसरा, कम्युनिस्ट नागरिक अधिकारों की माँग से आगे जाते हैं, जो कि संविधान में औपचारिक तौर पर दर्ज हैं। वे जो माँगें उठाते हैं, वे यदि क़ानूनन कहीं दर्ज न भी हों तो मज़दूर वर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व करती हैं, उनके जीवन की ज़रूरत हैं और उनके अस्तित्व के लिए आवश्यक हैं। इस प्रक्रिया में वे प्रदर्शित करतेहैं कि मज़दूर वर्ग के हितों की पूर्ति या प्रतिनिधित्व पूँजीवादी व्यवस्था और उसके जनवाद के दायरे के भीतर नहीं हो सकता है। केवल इन दोनों क़दमों से ही क्रान्तिकारी पार्टी समाजवादी व्यवस्था और समाजवादी क्रान्ति की आवश्यकता पर सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश जनता के पिछड़े तत्वों को सहमत कर सकती है, क्योंकि उसे व्यवहार और अनुभव से ही सहमत किया जा सकता है। तीसरा, संसद के भीतर मौजूद कम्युनिस्ट प्रतिनिधि पूँजीवादी समाज की तमाम घटनाओं के ज़रिये समूची पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध राजनीतिक प्रचार करते हैं, समाज में जारी मेहनतकश वर्गों के शोषण, उत्पीड़न का पर्दाफ़ाश करते हैं। साथ ही वे तमाम जनान्दोलनों का समर्थन करते हैं और उनके पक्ष में हस्तक्षेप करतेहैं। इसके ज़रिये पूँजीवादी व्यवस्था की सीमाओं को उजागर किया जाता है और जनसमुदायों के समक्ष इस सच्चाई को लाया जाता है कि मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर वे न्याय और समानता की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। चौथा, पूँजीवादी संसद और पूँजीवादी सरकार द्वारा पूँजीपति वर्ग के हितों की सेवा के लिए संसद के भीतर जो फैसले लिये जाते हैं, जो सौदेबाज़ियाँ होती हैं, पूँजीपति वर्ग के विभिन्न हिस्सों की नुमाइन्दगी करने वाली पूँजीवादी पार्टियों के बीच जिस रूप में अन्तरविरोधों का निपटारा होता है, और संघर्ष होता है, उसके ज़रिये भी कम्युनिस्ट प्रतिनिधि पूँजीवादी सरकार और संसद और तमाम पूँजीवादी पार्टियों के चरित्र को जनता के सामने उजागर करते हैं। इन सभी कार्यों के लिए पूँजीवादी चुनावों और संसद में सर्वहारा वर्ग के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष की मौजूदगी अनिवार्य है। इन चारों कदमों से कम्युनिस्ट प्रतिनिधि पूँजीवादी व्यवस्था, उसकी संसद, उसके जनवाद की असलियत और उसकी सीमाओं को जनता के सामने उजागर करते हैं।

पूँजीवादी संसद के भीतर एक स्वतन्त्र सर्वहारा राजनीतिक पक्ष की अनिवार्यता – जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं, पूँजीवादी संसदें स्वयं वर्ग संघर्ष का एक मंच होती हैं। सर्वहारा वर्ग को यदि अपने विचारधारात्मक व राजनीतिक प्राधिकार तथा वर्चस्व को समाज में व्यापक तौर पर स्थापित करना है, तो उसे वर्ग संघर्ष के हरेक मंच पर अपनी स्वतन्त्र राजनीतिक अवस्थिति के साथ मौजूद होना बेहद आवश्यक होता है। ऐसा न करना वर्ग संघर्ष के उस क्षेत्र को पूँजीवादी वर्चस्वके लिए छोड़ने के समान होता है, जोकि समूचे राजनीतिक वर्ग संघर्ष में सर्वहारा वर्ग की स्थिति को कमज़ोर बनाता है। सर्वहारा वर्ग को अपने वर्ग की राजनीतिक नुमाइन्दगी के कार्य को स्वयं अपने हिरावल के नेतृत्व में अपने हाथों में लेना चाहिए। यह कार्य न तो किसी और पार्टी या दल का समर्थन करके किया जा सकता है और न ही ऐसे दलों से गठजोड़ बनाकर चुनावों में हस्तक्षेप करके किया जा सकता है। इस सूरत में सर्वहारा वर्ग अपनी स्वतन्त्र राजनीतिक अवस्थिति संघटित नहीं कर सकता है और न ही उसे सशक्त बना सकता है। तीसरा, और सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि यदि सर्वहारा वर्ग की अपनी स्वतन्त्र राजनीतिक अवस्थिति संघटित नहीं होगी तो वह किसी न किसी अन्य वर्ग के राजनीतिक दल और इस रूप में उस वर्ग का पिछलग्गू बनेगा। इसीलिए यह आवश्यक है कि सर्वहारा वर्ग पूँजीवादी संसद और चुनावों के क्षेत्र में भी अपने आपको एक स्वतन्त्र राजनीतिक शक्ति के रूप में संघटित करे और अपनी वर्ग अवस्थिति से वर्ग संघर्ष चलाये।

अपनी शक्तियों का आकलन करना – जैसा कि मार्क्स व एंगेल्स ने स्पष्ट किया था, अपनी शक्तियों का सही आकलन करने के तमाम माध्यमों, जैसे कि कोई हड़ताल, कोई जनान्दोलन आदि के साथ संसद और चुनावों में रणकौशलात्मक भागीदारी भी एक महत्वपूर्ण माध्यम है। यह सच है कि आज पूँजीवादी चुनाव व्यवस्था जिस भ्रष्ट स्थिति में पहुँच गयी है, मात्र चुनावों में प्रदर्शन के आधार पर असंगठित अवस्था में सर्वहारा वर्ग अपनी शक्तियों का सही आकलन नहीं कर सकता है और उसके लिए अन्य कई माध्यमों की आवश्यकता होगी। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह भी एक आवश्यक माध्यम है, जिससे कि सर्वहारा वर्ग और उसका हिरावल अपनी स्थिति का एक आंशिक आकलन कर सकता है।

समाजवादी कार्यक्रम का प्रचार और उसे लोकप्रिय बनाना – एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी संसद या विधानसभाओं में सीटें जीते या न जीते, चुनाव प्रचार की प्रक्रिया की शुरुआत के साथ ही उसे न्यूनतम और अधिकतम समाजवादी कार्यक्रम के प्रचार का एक बहुमूल्य अवसर प्राप्त होता है। आम तौर पर भी आम राजनीतिक प्रचार के ज़रिये समाजवाद के आदर्श और कार्यक्रम का प्रचार किया जाता है। लेकिन यह आम उद्वेलनात्मक भाषा में ही हो सकता है। आम राजनीतिक प्रचार अभियानों में समाजवादी कार्यक्रम को ठोस शब्दों में स्पष्टता के साथ लोकप्रिय बनाने के काम की एक गम्भीर सीमा है। यह सीमा चुनाव प्रचार के दौरान समाजवादी कार्यक्रम के प्रचार और उसे लोकप्रिय बनाने में सामने नहीं आती है। दूसरी बात यह है कि चुनाव प्रचार के दौरान हम जनसमुदायों के राजनीतिक रूप से सक्रिय मस्तिष्क तक अपनी बातें पहुँचाते हैं। हम न सिर्फ अधिकतम कार्यक्रम को जनता के बीच पेश करते हैं, बल्कि हम तात्कालिक तौर पर भी उन माँगों पर राजनीतिक चेतना का स्तरोन्नयन करते हैं जो कि ठोस रूप से आम राजनीतिक माँगें हैं, न कि किसी एक सेक्शन (जैसे कि छात्र-युवा, महिलाएँ ,आदि) या वर्ग की तात्कालिक विशिष्ट माँगें, और वह भी महज़ किसी दूरगामी अमूर्त लक्ष्य के तौर पर नहीं बल्कि मेहनतकश जनता की अपरिहार्य और फ़ौरी माँगों व ज़रूरतों को अभिव्यक्त करने वाली माँगों के रूप में। इस रूप में कम्युनिस्ट चुनाव प्रचार जनता की माँगों को सही तरीके से सूत्रबद्ध और अभिव्यक्त करने और उन्हें समाजवादी कार्यक्रम के ढाँचे में अवस्थित करने में और इस रूप में समूचे समाजवादी कार्यक्रम को उसकी तात्कालिकता और साथ ही उसके दूरगामी अधिकतम कार्यक्रम के रूप में जनता के बीच प्रचारित करने और लोकप्रिय बनाने में कम्युनिस्ट पार्टीकी मदद करता है।

क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के सामाजिक आधार का विस्तार – दुनियाभर में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा पूँजीवादी चुनावों व संसद में रणकौशलात्मक हस्तक्षेप का ऐतिहासिक अनुभव इस बात को सिद्ध करता है कि इसके ज़रिये पार्टी के सामाजिक आधारों का विस्तार होता है। इसका कारण यह है कि यह चुनाव प्रचार समूची मेहनतकश जनता के समक्ष एक सामान्य राजनीतिक कार्यक्रम पेश करने, उस कार्यक्रम के इर्द-गिर्द गोलबन्दी करने और जनसमुदायों को संगठित करने और सेक्शनल माँगों से ऊपर उठकर आम मेहनतकश जनता के प्रतिनिधि और हिरावल के रूप में पार्टी को स्थापित करने में मददगार होता है। इसके अलावा, जनता के समक्ष एक तात्कालिक आम राजनीतिक कार्यक्रम पेश करना जनता के बीच पार्टी की मान्यता, उसकी स्वीकार्यता को स्थापित करने और उसकी व्यावहारिकता की पहचान के लिए अपरिहार्य होता है। चुनावों के अतिरिक्त अन्य कोई भी जनसंघर्ष का रूप पार्टी को यह अवसर कम ही प्रदान कर पाता है। चाहे वह श्रम कानूनोंको लेकर चलाया जाने वाला अभियान हो, रोज़गार के अधिकार को लेकर चलाया जाने वाला अभियान हो या फिर शिक्षा व आवास आदि के मसले पर, ऐसा कोई भी जन अभियान चूँकि एक सामान्य राजनीतिक कार्यक्रम पेश नहीं करता है, इसलिए वह पार्टी को आम तौर पर व्यापक मेहनतकश जनता के नेता और हिरावल के तौर पर अधिक से अधिक बेहद आंशिक रूप में ही स्थापित कर सकता है। वर्गों के क्रान्तिकारी संयुक्त मोर्चे को निर्मित करने और उस मोर्चे के अगुवा के तौर पर पार्टी को स्थापित करने में चुनावों में रणकौशलात्मक भागीदारी का विशेष महत्व है और इसीलिए पार्टी के सामाजिक आधार को विकसित करने में भी इसका अत्यधिक महत्व है।

पार्टी नेतृत्व के उच्चतर शिक्षण व प्रशिक्षण का स्तरोन्नयन करना – लेनिन ने बताया था कि चुनावों में रणकौशलात्मक भागीदारी के साथ एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के समक्ष यह चुनौती भी आ जाती है कि वह अपने तमाम क़ानूनी व क़ानूनेतर कार्यों के बीच किस प्रकार समन्वय करे और पार्टी के क्रान्तिकारी ढाँचे की किस प्रकार हिफ़ाज़त करे। जो नेता इस कार्य में सक्षम सिद्ध नहीं होते, जो नेता संसद में सही राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं कर पाते, जो ऐसा कर तो पाते हैं मगर पार्टी सिद्धान्त की सही तरीके से हिफ़ाज़त नहीं कर पाते, पार्टी को उन्हें हटाकर उन नेताओं को इस कार्य के लिए नियुक्त करना होता है जो कि इन कार्यों को कर सकते हैं। यह एक महत्वपूर्ण परीक्षा है जो कि पार्टी के नेतृत्व को अपने आपको परखने का, अपनी राजनीतिक नेतृत्व क्षमताओं को परखने का, उन्हें विकसित करने और निखारने का अवसर देती है। साथ ही, यह समूची पार्टी को व्यापक मेहनतकश जनता के नेतृत्व के तौर पर भी विकसित होने और निखरने का अवसर भी देती है। जैसाकि लेनिन ने लिखा था कि इसी परीक्षा से गुज़रकर पार्टी यह देखती है कि उसके पास अपनेआप को जनता का नेता कहने का अधिकार है या नहीं।

आज के दौर में संसद और पूँजीवादी चुनावों में रणकौशलात्मक भागीदारी से उपरोक्त प्रमुख लक्ष्यों को पूरा करने का प्रयास किया जाना चाहिए। यही मार्क्स से लेकर माओ तक की क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शिक्षा का सबक है और इसे आज के दौर में इसी रूप में लागू किया जाना चाहिए।

हम ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ को एक ऐसी नयी शुरुआत मानते हैं जो यह उम्मीद पैदा करती है कि संशोधनवादी संसदवादी सड़न और साथ ही ”वामपंथी” दुस्साहसवाद और बचकानेपन से अलग एक सही क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट विकल्प और अवस्थिति निर्मित हो सकती है। भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी का चुनाव घोषणापत्र यह उम्मीद पैदा करता है, जिस पर हम पिछले अंक में चर्चा कर चुके हैं। हमें सूचना है कि चुनावों के बाद भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी अपना सम्पूर्ण कार्यक्रम भी प्रकाशित करेगी। इस कार्यक्रम की एक झलक और उसका एक पूर्वानुमान चुनाव घोषणा-पत्र में मौजूद है, लेकिन जब यह कार्यक्रम अपने सांगोपांग रूप में सामने होगा, तो हम उसकी भी विवेचना करेंगे। अभी मौजूद दस्तावेज़ों और पार्टी के बयानात एक कमोबेश सही अप्रोच और पद्धति को प्रदर्शित कर रहे हैं और हम उम्मीद करते हैं कि इस सही कम्युनिस्ट पहुँच और पद्धति पर भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी अमल करना जारी रखेगी।

अन्त में, हम ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों से यह अपील करेंगे कि यदि आपके इलाके में भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी का उम्मीदवार मौजूद है, तो एकजुट होकर जारी लोकसभा चुनावों में उसे वोट दें और पूँजीवादी चुनावों में एक स्वतन्त्र मज़दूर पक्ष को खड़ा करने में अपनी भूमिका निभाएँ साथ ही, इस पार्टी का वालण्टियर बनें और इसे हर प्रकार का सहयोग दें। RWPI सात लोकसभा सीटों से अपने उम्मीदवार खड़े कर रही है: उत्तर-पूर्वी दिल्ली से कॉमरेड योगेश, उत्तर-पश्चिमी दिल्ली से कॉमरेड अदिति, कुरुक्षेत्र (हरियाणा) से कॉमरेड रमेश, रोहतक (हरियाणा) से कॉमरेड इन्द्रजीत, सन्तकबीर नगर (उत्तर प्रदेश) से कॉमरेड मित्रसेन, उत्तर-पूर्वी मुम्बई (महाराष्ट्र) से कॉमरेड बबन ठोके और अहमदनगर (महाराष्ट्र) से कॉमरेड सन्दीप सकत।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2019


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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