केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों का संयुक्त तमाशा
शर्म इनको मगर नहीं आती!

लाखों की सदस्य संख्या वाली तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने मिलकर पिछले 28 अक्टूबर को न्यूनतम मज़दूरी सहित मज़दूरों की मांगों पर देशव्यापी प्रदर्शन के नाम पर जो फूहड़ नौटंकी पेश की उस पर हँसा भी नहीं जा सकता। एटक, सीटू,इण्टक, बीएमएस, एचएमएस आदि इन राष्ट्रीय यूनियनों ने कुल मिलाकर जितने लोग इकट्ठा किये उससे ज्यादा तो कोई टुटपूँजिया नेता विधायक का पर्चा भरने जाते समय जुटा लेता है। मगर मज़दूर हितों की लड़ाई को अपनी नपुंसकता के घिनौने प्रदर्शन में तब्दील कर देने में इन दल्लों को शर्म नहीं आयी।

इस बार का ”राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन” भी उन तमाम तमाशों से अलग नहीं था जो नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने के समय से ही ये बीच-बीच में करते रहे हैं। ये सभी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें किसी न किसी चुनावबाज़ पार्टी से जुड़ी हुई हैं और उनके बड़े नेताओं में से कई तो संसद में भी बैठते रहे हैं।

पिछले दो दशकों के दौरान निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों का बुलडोज़र मज़दूरों पर चलता रहा है, पहले से मिले हुए उनके अधिकार भी एक-एक करके छीने जाते रहे हैं और सभी पार्टियों की सरकारें इसमें शामिल रही हैं। काँग्रेस से जुड़ी इण्टक और भाजपा से जुड़ी बीएमएस के नेता तो इन नीतियों का उग्र विरोध करने की बात सोच भी नहीं सकते, मगर मज़दूरों की रहनुमाई का दावा करने वाले नकली वामपंथियों ने भी संसद में गत्तो की तलवार भाँजने और टीवी पर गाल बजाने के अलावा और कुछ नहीं किया है। करें भी कैसे? पश्चिम बंगाल और केरल में जहाँ उनकी सरकारें हैं, वहाँ तो वे उन्हीं नीतियों को ज़ोर-शोर से लागू कर रहे हैं – मज़दूरों को लूटने के लिए पूँजीपतियों की राह में लाल गलीचे बिछा रहे हैं और विरोध करने पर किसानों व आदिवासियों पर गोलियाँ बरसा रहे हैं।

लेकिन इन संशोधनवादी ग़द्दारों की मजबूरी यह है कि अपनी दुकान का शटर डाउन होने से बचाने के लिए उन्हें मज़दूरों के बीच अपनी साख बचाये रखने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। इसीलिए वे बीच-बीच में विरोध के नाम पर कुछ नाटक-नौटंकी करते रहते हैं।

ट्रेड यूनियन की बड़ी-बड़ी दुकानें चलाने वाले मज़दूर-हितों के इन सौदागरों का सबसे बड़ा आधार सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में संगठित मज़दूर तथा निजी क्षेत्र के कुछ बड़े उद्योगों में काम करने वाले संगठित मज़दूरों के बीच था। निजीकरण-उदारीकरण की ऑंधी में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के लाखों संगठित मज़दूरों की नौकरियाँ तो गयीं ही, इन धन्धेबाज़ों के ज्यादातर तम्बू-कनात भी उखड़ गये। आज देश की 45-46 करोड़ मज़दूर आबादी में से करीब 95 प्रतिशत असंगठित मज़दूर हैं जिन्हें संगठित करने की बात तो दूर, उनकी माँग उठाना भी ट्रेड यूनियन के इन मदारियों ने कभी ज़रूरी नहीं समझा। मगर मज़दूरों की इस भारी आबादी में भीतर-भीतर सुलगते ग़ुस्से और बग़ावत की आग को भाँपकर अब ये न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे, ठेका प्रथा जैसी माँगों के सहारे असंगठित मज़दूरों के बीच अपनी नाक बचाने के लिए उछलकूद कर रहे हैं। लेकिन दशकों से टुकड़े माँगते रहने की लिजलिजी अर्थवादी राजनीति करते-करते और ट्रेड यूनियन नौकरशाही की जड़ता के चलते इनके सारे संगठन ऊपर से नीचे तक इतने ठस और जर्जर हो चुके हैं कि चाहकर भी ये अपनी ताकत का ज़ोरदार प्रदर्शन नहीं कर सकते। ये चाहते तो हैं कि असंगठित मज़दूरों के बीच भी अपने संगठन का नया पण्डाल सजा दिया जाये लेकिन काफी काँख-कूँखकर भी ये लपलप डण्डों पर फटी-पुरानी पॉलिथीन की चादर तानने के सिवा कुछ नहीं कर पाते।”विशाल विरोध प्रदर्शन” की घोषणा कर दी जाती है लेकिन उसके लिए मज़दूरों को जगाने और गोलबन्द करने की कोई उत्साही कोशिश नहीं की जाती। बस देशभर में यूनियन की इकाइयों को निर्देश भेज दिया जाता है और दो-चार बयान जारी कर दिये जाते हैं। कुछ प्रतीकात्मक किस्म के धरना-प्रदर्शन करके विरोध का अनुष्ठान सम्पन्न हो जाता है।

इस बार भी ऐसा ही हुआ। राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन की घोषणा कर दी गयी। कुछ अखबारों में बयान छप गये, औद्योगिक इलाकों में कुछ पोस्टर चिपका दिये गये जिनमें ज्यादातर दीवार से उतरकर मरी हुई चिड़िया के पंखों की तरह फड़फड़ाने लगे। यहाँ-वहाँ तम्बू-माइक लगाकर कुछ भाषण-भूषण करने का रिवाज़ भी पूरा कर लिया गया। बस, इससे ज्यादा कुछ करने की बात सोची भी नहीं गयी। मज़दूरों को बड़ी संख्या में जुटाने की कोशिश ही नहीं की गयी। दिल्ली में लाल किले से शुरू हुई कुछ सौ मज़दूरों की रैली आईटीओ के पास शहीद पार्क में जाकर ख़त्म हो गयी जहाँ यूनियनों के बड़े नेताओं ने गरमागरम भाषणों की रस्मअदायगी करके कार्यक्रम निपटा दिया। हर साल होने वाले ऐसे तमाम कार्यक्रमों की तरह यह भी आया और चला गया – न मज़दूरों की भारी आबादी के बीच कोई हलचल हुई और न ही सरकार के कान पर जूँ रेंगी। सच तो यह है कि ऐसे नपुंसक किस्म के कार्यक्रम सरकार और पूँजीपतियों का हौसला बढ़ाने का ही काम करते हैं। वे समझ जाते हैं कि बिखरे और नेतृत्वहीन मज़दूर वर्ग में अभी इतनी ताकत नहीं है कि उनके अन्धाधुन्ध लूट अभियान की राह रोक सके। दूसरी ओर, इनके पोस्टर-बयान आदि देखकर जो मज़दूर कुछ उम्मीद पाल बैठते हैं कार्यक्रम का हश्र देखकर उनकी हताशा-निराशा और बढ़ जाती है।

सवाल उठता है कि लाखों-लाख की सदस्य संख्या का दावा करने वाली ये बड़ी-बड़ी यूनियनें करोड़ों मज़दूरों की ज़िन्दगी से जुड़े बुनियादी सवालों पर एक-दो लाख मज़दूर भी राजधानी की सड़कों पर क्यों नहीं उतार पातीं? अगर ये सवाल इनके नेताओं से पूछा जाये तो ये बड़ी बेशर्मी से इसका दोष भी मज़दूरों पर मढ़ते हुए कह देते हैं कि जी, हमने तो बहुत कोशिश की मगर मज़दूर आने को तैयार ही नहीं होते! इससे बड़ा झूठ कोई नहीं हो सकता। सच तो यह है कि मज़दूरों की भारी आबादी भयंकर शोषण, काम की जानलेवा स्थितियों, अपमान और लगातार छँटनी-तालाबन्दी-बेरोज़गारी का कहर झेल रही है और उसके भीतर असन्तोष का लावा सुलग रहा है। बीच-बीच में वह फूट भी पड़ता है, जैसे अभी गुड़गाँव में हुआ। वहाँ अपनेआप एक से डेढ़ लाख मज़दूर सड़कों पर उतर आये। हालत ये थी कि मज़दूर आगे-आगे थे और नेता पीछे-पीछे।

दरअसल, दुअन्नी-चवन्नी की लड़ाई लड़ते-लड़ते मज़दूरों की जुझारू चेतना की धार भोथरी कर देने वाले और उन्हें इसी पूँजीवादी व्यवस्था में जीते रहने की शिक्षा देने वाले ट्रेड यूनियनों के ये मौकापरस्त, अर्थवादी, सुधारवादी, दलाल, धन्धेबाज़ नेता अब महज़ आर्थिक माँगों के लिए भी दबाव बना पाने की इच्छाशक्ति और ताकत खो चुके हैं। संसदीय वामपंथी और उनके सगे भाई ट्रेड यूनियनवादी मौकापरस्त शुरू से ही मज़दूर आन्दोलन के भितरघातियों के रूप में पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी-तीसरी सुरक्षा पंक्ति की भूमिका निभाते रहे हैं। आज इनका यह चरित्र इतना नंगा हो चुका है कि मज़दूरों को ये ठग और बरगला नहीं पा रहे हैं। मज़दूरों की भारी असंगठित आबादी के बीच तो इनकी उपस्थिति ही बहुत कम है। विकल्पहीनता में कहीं-कहीं मज़दूर इन बगुला भगतों के चक्कर में पड़ भी जाते हैं तो जल्दी ही उनकी असलियत पहचानकर दूर भी हो जाते हैं। यह एक अच्छी बात है। लेकिन चिन्ता और चुनौती की बात यह है कि सही नेतृत्व की कमज़ोरियों और बिखराव के कारण मज़दूरों का क्रान्तिकारी आन्दोलन अभी संगठित नहीं हो पा रहा है। किसी विकल्प के अभाव, अपनी चेतना की कमी और संघर्ष के स्पष्ट लक्ष्य की समझ तथा आपस में एका न होने के कारण बँटी हुई मज़दूर आबादी अभी धन्धेबाज़ नेताओं के जाल में फँसी हुई है।

भाँति-भाँति के चुनावी वामपंथी दलों की ट्रेड यूनियन दुकानदारियों में सबसे बड़े साइनबोर्ड सीटू और एटक के हैं जो क्रमश: माकपा और भाकपा से जुड़े हुए हैं। ये पार्टियाँ मज़दूर क्रान्ति के लक्ष्य और रास्ते को तो पचास साल पहले ही छोड़ चुकी हैं और अब संसद और विधानसभाओं में हवाई गोले छोड़ने के अलावा कुछ नहीं करतीं। जहाँ और जब इन्हें सत्ता में शामिल होने का मौका मिलता है वहाँ ये पूँजीपतियों को मज़दूरों को लूटने की खुली छूट देने में किसी से पीछे नहीं रहतीं। लेकिन अपना वोटबैंक बचाये रखने के लिए इन्हें समाजवाद के नाम का जाप तो करना पड़ता है और नकली लाल झण्डा उड़ाकर मज़दूरों को भरमाते रहना पड़ता है, इसलिए बीच-बीच में मज़दूरों की आर्थिक माँगों के लिए कुछ कवायद करना इनकी मजबूरी होती है।

इनकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि आज पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर मज़दूरों के उन आर्थिक हितों और सीमित राजनीतिक अधिकारों की हिफाज़त करने की भी गुंजाइश लगातार कम होती जा रही है जिनके लिए आवाज़ उठाने की कमाई माकपा-भाकपा जैसी पार्टियाँ और सीटू-एटक जैसी यूनियनें खाती रही हैं। निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों ने अर्थवाद और संशोधनवाद की नकली मज़दूर राजनीति की ज़मीन ही खिसका दी है। जो भी पूँजीवादी व्यवस्था में सरकार चलायेगा, उसे पूँजीवादी संकट का समाधान व्यवस्था की चौहद्दी के भीतर ही ढूँढ़ना होगा। और समाधान के मामले में विकल्प सिकुड़ते जा रहे हैं। इसलिए आज एटक और सीटू जैसी ट्रेड यूनियनों के नेता कुछ हवाई गोले छोड़ने और विरोध के नाम पर अपनी नपुंसकता के प्रदर्शन के सिवा कर भी क्या सकते हैं? मज़दूर वर्ग इन मीरजाफरों और जयचन्दों से पीछा छुड़ाकर ही ऐसी लड़ाई में उतर सकता है जो पूँजीवाद के बूढ़े राक्षस को उसकी कब्र में धकेलने के बाद ही ख़त्म हो।

असली चुनौती मज़दूर वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली क्रान्तिकारी ताकतों के सामने है जो आज भी खण्ड-खण्ड में बिखरी हुई हैं और उनमें आगे बढ़ने के स्पष्ट लक्ष्य और दिशा का अभाव है। उन्हें देश और दुनिया की नयी परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण करने और विचारधारात्मक भटकावों से मुक्त होने के साथ ही मज़दूर आन्दोलन में सही क्रान्तिकारी जनदिशा अपनाकर काम करना होगा। उन्हें विशाल मज़दूर वर्ग के बीच सघन क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार और संगठन काम काम तेज़ करना होगा। मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक प्रचार और उसके राजनीतिक एवं आर्थिक आन्दोलनों में भागीदारी की प्रक्रिया मज़दूर वर्ग की सच्ची हिरावल पार्टी के निर्माण की प्रक्रिया को भी तेज़ करेगी। उन्हें भयंकर पूँजीवादी शोषण-उत्पीड़न और अपमान से कसमसा रहे मज़दूर वर्ग को यह समझा देना होगा कि अपने तमाम लाव-लश्कर के बावजूद पूँजीवाद का कवच अभेद्य नहीं है। यदि मज़दूर वर्ग सही राजनीति पर संगठित होकर लड़े और व्यापक मेहनतकश अवाम की अगुवाई करे तो उसे चूर-चूर किया जा सकता है। इसलिए पराजय की मानसिकता से, निराशा से मुक्त होना होगा और नये सिरे से संघर्ष की ठोस तैयारी में लग जाना होगा।

 

बिगुल, नवम्‍बर 2009


 

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