जजों की सम्पत्ति सार्वजनिक करने या न करने के बारे में
परदे में रहने दो, परदा ना उठाओ…

नमिता

आजकल यू.पी.ए. सरकार न्यायाधीशों को उनकी सम्पत्ति सार्वजनिक करने से छूट देने वाले विधेयक को सदन में पारित कराने की जी-तोड़ कोशिश में लगी हुई है। हालाँकि विपक्ष के विरोध के कारण यह विधेयक पारित नहीं हो पा रहा है। लेकिन देर-सवेर तो यह होकर ही रहेगा।

दरअसल कभी-कभी जब जनता को लुभाने और भरमाने के लिए की जाने वाली कवायदें अनजाने ही उन सीमाओं को लाँघ जाती हैं जो व्यवस्था के लिए संकट पैदा कर सकती हैं तो ऐसी कवायदों पर लगाम लगाना व्यवस्था के पैरोकारों के लिए ज़रूरी हो जाता है।

Corruption-and-Cash-at-a-Judges-Doorजजों की सम्पत्ति सार्वजनिक करने से छूट देने वाले जिस विधेयक को लेकर चिल्लपों मची है, उसमें कहा गया है कि किसी सक्षम अधिकारी के समक्ष किसी न्यायाधीश की घोषित सम्पत्ति का ब्योरा सार्वजनिक नहीं किया जायेगा। इस पर कोई नागरिक अदालत या प्राधिकार सवाल नहीं उठा सकेगा। विधेयक में कहा गया है कि न्यायाधीशों, उनकी पत्नी और निर्भर बच्चों की सम्पत्ति और देनदारी का ब्योरा विधेयक में उल्लेखित चुनिन्दा हालात के तहत ही किया जा सकेगा। इस विधेयक में प्रावधान किया गया है कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश अपनी सम्पत्ति का ब्योरा देश के प्रधान न्यायाधीश को देंगे, विभिन्न हाईकोर्टां के न्यायाधीश सम्बन्धित मुख्य न्यायाधीशों को सम्पत्ति का ब्योरा देंगे, लेकिन इन ब्योरों को जनता के सामने सार्वजनिक नहीं किया जा सकेगा।

सरकार द्वारा पेश किया गया यह विधेयक विपक्ष के विरोध के कारण पिट गया और मीडिया के माध्यम से इस मुद्दे ने काफ़ी तूल पकड़ लिया। इस बीच जलती हुई आग में घी डालते हुए कर्नाटक के एक जज ने अपनी सम्पत्ति सार्वजनिक रूप से घोषित कर दी। इस पर मुख्य न्यायाधीश को काफ़ी तकलीफ़ हुई और उन्होंने कर्नाटक के जज पर यह आरोप लगा दिया कि उसने पब्लिसिटी के लिए ऐसा किया है। इन घटनाओं ने जजों के बीच इसे वाद- विवाद का मुद्दा बना दिया। बाद में सुप्रीम कोर्ट के जजों के बीच यह सहमति बनी कि वे अपनी मर्जी से अपनी सम्पत्ति का ब्योरा सार्वजनिक कर सकते हैं, लेकिन वे इसके लिए किसी भी प्रकार से बाध्य नहीं होंगे। विभिन्न हाईकोर्टों के जज इस मुद्दे पर सहमत नहीं थे। जज स्वेच्छा से तो अपनी सम्पत्ति के ब्योरे सार्वजनिक कर सकते हैं लेकिन आम लोग इसे सार्वजनिक करवा सकें और कोई जाँच-पड़ताल हो सके, इसका कोई प्रावधान नहीं है।

अपनी पिछली पारी में यू.पी.ए. सरकार ने व्यवस्था को पारदर्शी बनाने का ढोंग करते हुए सूचना का अधिकार क़ानून बनाया था, तब उसने सोचा भी न होगा कि एक दिन यही क़ानून उसके गले की फ़ाँस बन जायेगा। आम लोगों को भी लगने लगा था कि अब तो नौकरशाही की नकेल बँधके रहेगी। हर चीज़ की जानकारी आसानी से मिल जायेगी।

हालाँकि इस (सूचना अधिकार) क़ानून के अपने बहुत से बचाव के रास्ते (लूप होल्स) थे कि क्या आप जान सकते हैं, क्या नहीं। कितना जान सकते हैं, कितना नहीं। उसकी सीमाएँ भी थीं, लेकिन फिर भी कुछ हद तक लोगों को इसका फ़ायदा मिला। बहुत से विभागों की सूचनाएँ लोगों ने इस क़ानून के तहत हासिल कीं, लेकिन न्याय व्यवस्था अब इस क़ानून के दायरे में आने को तैयार नहीं। और सरकार भी नहीं चाहती कि न्यायपालिका इस क़ानून के तहत आये।

ग़ौरतलब है कि दिल्ली के एक नागरिक ने सूचना क़ानून के तहत यह जानकारी इकट्ठा की कि पिछले 2 सालों में सुप्रीम कोर्ट के जजों ने 1.4 करोड़ रुपये सिर्फ़ विदेश-यात्राओं पर ख़र्च किये। उसने जब जजों के होटल में ठहरने, यात्रा भत्तों और रोज़मर्रा के ख़र्चों की जानकारी चाही तो क़ानून और न्याय मन्त्रालय ने इसे देने से इन्‍क़ार कर दिया।

अब सोचने की बात यह है कि आख़िर क्यों सरकार न्याय व्यवस्था को सूचना के अधिकार के क़ानून के दायरे के बाहर रखना चाहती है?

बात एकदम शीशे की तरह साफ़ नज़र आती है कि आज जब व्यवस्था के सारे अंग एकदम खोखले हो चुके हैं। उसकी सारी गलाजत और नीचता एकदम खुले तौर पर जनता के सामने आ चुकी है। पुलिस, प्रशासन, सरकार, नौकरशाही के सारे भ्रष्टाचार सतह पर उभरकर आ गये हैं, तो व्यवस्था का कोई अंग तो ऐसा होना चाहिए जिस पर जनता भरोसा कर सके। इसीलिए न्याय व्यवस्था को सरकार इन सभी चीज़ों से अलग बचाये रखना चाहती है।

पूँजीवादी शोषक व्यवस्था के सभी अंगों की तरह यहाँ की न्याय व्यवस्था भी पूरी तरह भ्रष्टाचार में लिप्त है। अदालतों में न्याय बिकता है, गवाह बिकते हैं, वकील बिकते हैं और जज भी बिकते हैं। हाईकोर्टों और सुप्रीम कोर्ट के वकील जिनकी “प्रैक्टिस” ठीक-ठाक चलती है, वे करोड़पति बन चुके हैं। ऐसे में जजों की सम्पत्ति का अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। अगर हाईकोर्टों और सुप्रीम कोर्ट के जजों की अकूत सम्पत्ति के ब्योरे जनता के सामने आयेंगे तो निश्चय ही सवाल उठेगा कि उनके पास इतना धन कहाँ से आया? और इसका जवाब पाना आम जनता के लिए मुश्किल नहीं होगा। इसीलिए सरकार न्याय व्यवस्था की गन्दगी को परदे में ढँकना चाहती है।

चूँकि न्याय व्यवस्था कभी-कभी जनता को भी न्याय दिला देती है। कुछेक मामलों में किसी एक नेता-मन्त्री तथा नौकरशाहों को भी सजाएँ सुनाकर यह व्यवस्था अपने कुछेक सड़े-गले अंगों को काटकर जनता की नज़रों में पाक-साफ़ बनने की कोशिश करती है तो लोगों को लगता है कि न्याय व्यवस्था निष्पक्ष है। वह किसी के साथ ग़ैर-बराबरी नहीं करती, उसकी नज़र में सभी एकसमान हैं। और अब अगर न्याय व्यवस्था की कलई भी जनता के सामने खुलने लगेगी तो इस शोषक पूँजीवादी व्यवस्था का अन्जाम क्या होगा? यही डर सरकार और पूँजीपतियों को सताता रहता है, जिसकी वजह से न्यायालय की निष्पक्षता की कवायद होती रहती है।

पिछले पाँच सालों में सुप्रीम कोर्ट के जजों द्वारा सेमिनारों-कान्फ्रेंसों के लिए की गयी हवाई यात्राओं का विवरण:

अप्रैल 03 से मार्च 04 तक       28,00923 रुपये

अप्रैल 04 से मार्च 05 तक       17,02425 रुपये

अप्रैल 05 से मार्च 06 तक       34,95249 रुपये

अप्रैल 06 से मार्च 07 तक       68,82476 रुपये

अप्रैल 07 से मार्च 08 तक       70,47109 रुपये

कुल      2,19,28182 रुपये

 

 

बिगुल, सितम्‍बर 2009


 

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