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हम अब और तमाशबीन नहीं बने रह सकते! एक ही रास्ता-मज़दूर इंक़लाब! मज़दूर सत्ता!

क्या हम इस बर्बर ग़ुलामी को स्वीकार कर लेंगे? क्या पूरी तरह नग्न हो चुकी पूँजीवादी व्यवस्था को हम अपने आने वाली पीढ़ियों को बर्बाद करने देंगे? क्या हम अपनी ही बर्बादी के तमाशबीन बने रहेंगे? या फिर हम उठ खड़े होंगे और मुनाफे की अन्धी हवस पर टिकी इस मानवद्रोही,आदमख़ोर व्यवस्था को तबाहो-बर्बाद कर देंगे? या फिर हम संगठित होकर इस अन्याय और असमानता का ख़ात्मा करने और न्याय और समानता पर आधारित एक नयी समाजवादी व्यवस्था का निर्माण करने की तैयारियाँ करने में जुट जायेंगे?या फिर हम एक मज़दूर इन्कलाब के लिए एक इन्कलाबी पार्टी के निर्माण में लग जायेंगे?

यह व्यवस्था अनाज सड़ा सकती है लेकिन भुख से मरते लोगों तक नहीं पहुँचा सकती है!

प्रधानमन्त्री ने कहा कि सरकार के लिए सड़ रहे अनाज को ग़रीबों में वितरित कर पाना मुमकिन नहीं है। यानी कि अनाज सड़ जाये तो सड़ जाये, वह भूख से मरते लोगों के बीच नहीं पहुँचना चाहिए। लेकिन क्यों? सामान्य बुद्धि से यह सवाल पैदा होता है कि जिस समाज में लाखों लोग भुखमरी और कुपोषण के शिकार हों वहाँ आख़िर क्यों हर साल लाखों टन अनाज सड़ जाता है, उसे चूहे खा जाते हैं या फिर न्यायालय ही उसे जला देने का आदेश दे देता है? हाल में ही एक अन्तरराष्ट्रीय एजेंसी की रिपोर्ट आयी जिसमें यह बताया गया कि भुखमरी के मामले में भारत 88 देशों की तालिका में 67वें स्थान पर है। श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान और अफ्रीका के कई बेहद ग़रीब देश भी भुखमरी से ग्रस्त लोगों की संख्या में भारत से पीछे हैं। पूरी दुनिया के 42 प्रतिशत कुपोषित बच्चे और 30 प्रतिशत बाधित विकास वाले बच्चे भारत में पाये जाते हैं। लेकिन इसके बावजूद इस देश में लाखों टन अनाज गोदामों में सड़ जाता है। आख़िर क्यों? ऐसा कौन-सा कारण है?

यह महँगाई ग़रीबों के जीने के अधिकार पर हमला है!

ग़रीबों तक सस्ता अनाज पहुँचाने के लिए बनी सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार के बावजूद थोड़ा बहुत अनाज आदि नीचे तक पहुँच जाता था, पर उदारीकरण के दौर में उसे धीरे-धीरे धवस्त किया जा चुका है। पूँजीपतियों को हज़ारों करोड़ की सब्सिडी लुटाने वाली सरकार ग़रीबों को भुखमरी से बचाने के लिए दी जाने वाली खाद्य सब्सिडी में लगातार कटौती कर रही है। इस महँगाई ने यह भी साफ कर दिया है कि जनता की खाद्य सुरक्षा की गारण्टी करना सरकार अब अपनी ज़िम्मेदारी मानती ही नहीं है। लोगों को बाज़ार की अन्‍धी शक्तियों के आगे छोड़ दिया गया है। यानी, अगर आप अपनी मेहनत, अपना हुनर, अपना शरीर या अपनी आत्मा बेचकर बाज़ार से भोजन ख़रीदने लायक पैसे कमा सकते हों, तो खाइये, वरना भूख से मर जाइये!

जानलेवा महँगाई ग़रीबों के जीने के अधिकार पर भी हमला है!

हाल में देश के कई शहरों में किये गये एक सर्वेक्षण में लोगों ने अपने लिये सबसे बड़ा खतरा महँगाई को बताया था। उनकी नज़र में ख़तरों की लिस्ट में आतंकवाद आठवें नंबर पर था। अम्बाला में एक नागरिक ने कहा कि देश की सुरक्षा को खतरा आतंकवाद से नहीं आलू से है। जब आलू 25 रुपये किलो बिकेगा तो लोग आतंकवादी नहीं बनेंगे तो क्या करेंगे? थैलीशाहों की सेवा में लगे देश के हुक्मरानों को तो यह जानलेवा महँगाई कोई समस्या नज़र नहीं आती लेकिन ग़रीबों के भीतर सुलगती गुस्से की आग को अब ज्यादा दिनों तक दबाये नहीं रखा जा सकता।

एक तो महँगाई का साया, उस पर बस किराया बढ़ाया

डीटीसी के किरायों में इस बढ़ोत्तरी का असर सबसे ज्यादा उस निम्नमध्‍यवर्गीय आबादी और मज़दूरों पर पड़ेगा जो बसो के जरिए ही अपने कार्यस्थल पर पहुंचते हैं। मेट्रो के आने से उनके लिए बहुत फर्क नहीं पड़ा है। क्योंकि एक तो मेट्रो अभी सब जगह नहीं पहुंची है, दूसरा, उसका किराया वे लोग उठा नहीं सकते। और मज़दूरों और निम्नमध्‍यवर्ग के लोगों की बड़ी आबादी बसों से ही सफर करती है और एक अच्छी-खासी आबादी को रोज काम के लिए दूर-दूर तक सफर करना पड़ता है क्योंकि दिल्ली के सौंदर्यीकरण आदि के नाम पर गरीबों-मज़दूरों की बस्तियों को उजाड़कर दिल्ली के बाहरी इलाकों में पटक दिया गया है। अब कॉमनवेल्थ गेम के नाम पर उन्हें दिल्ली से और दूर खदेड़ा जा रहा है। अब डीटीसी के किरायों में सीधे दोगुनी वृद्धि से हर महीने 12-14 घंटे हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद 2000 से 2600 रुपये पाने वाले मज़दूर को किराये पर ही 600 से लेकर 900 रुपये तक खर्च करने होंगे। जो मज़दूर पहले ही अपने और अपने बच्चों का पेट काटकर जी रहा है, वह अब कैसे जियेगा और काम करेगा ये सोचकर भी कलेजा मुँह को आता है।

कमरतोड़ महँगाई और बेहिसाब बिजली कटौती के ख़िलाफ़ धरना

नौजवान भारत सभा, पंजाब के संयोजक परमिन्दर ने कहा कि इस महँगाई और बिजली की कमी के कारण प्राकृतिक नहीं हैं जैसा कि केन्द्र और पंजाब सरकार बकवास कर रही है। असल में यह तो मुनाफ़ाख़ोरी का नतीजा है और सरकार की मुट्टीभर पूँजीपतियों के पक्ष में और विशाल जनता के ख़िलाफ़ अपनायी गयी नीतियों का नतीजा है। पूँजीवादी सरकार जनता की पेट की भूख तक मिटाने को तैयार नहीं तो ऐसे में यह आसानी से समझा जा सकता है कि सरकार जनता के फ़ायदे के लिए बिजली की पूर्ति के लिए कहाँ तक कोई क़दम उठायेगी। उन्होंने कहा कि कहने को तो 1947 में देश आज़ाद हो गया लेकिन यह एक कोरा झूठ है। ग़ैरबराबरी, ग़रीबी, भूख-प्यास, बेरोज़गारी, स्वास्थ्य सुविधाओं का अकाल, अशिक्षा बस यही दिया है इस आज़ादी ने। इसलिए जनता की आज़ादी आनी अभी बाक़ी है। उन्होंने कहा कि इतिहास गवाह है कि जब-जब भी मेहनतकश जनता के संघर्षों का तूफ़ान उठा है नौजवान उनकी अगली कतारों में लड़े हैं और आने वाला समय भी इसी बात की गवाही देगा।

बेहिसाब महँगाई से ग़रीबों की भारी आबादी के लिए जीने का संकट

महँगाई पूँजीवादी समाज में खत्म हो ही नहीं सकती। जब तक चीज़ों का उत्पादन और वितरण मुनाफा कमाने के लिए होता रहेगा तब तक महँगाई दूर नहीं हो सकती। कामगारों की मज़दूरी और चीज़ों के दामों में हमेशा दूरी बनी रहेगी। मज़दूर वर्ग सिर्फ अपनी मज़दूरी में बढ़ोत्तरी के लिए लड़कर कुछ नहीं हासिल कर सकता। अगर उसके आन्दोलन की बदौलत पूँजीपति थोड़ी मज़दूरी बढ़ाता भी है तो दूसरे हाथ से चीज़ों के दाम बढ़ाकर उसकी जेब से निकाल भी लेता है। मज़दूर की हालत वहीं की वहीं बनी रहती है। इसलिए मज़दूरों को मज़दूरी बढ़ाने के लिए लड़ने के साथ-साथ मज़दूरी की पूरी व्यवस्था को खत्म करने के लिए भी लड़ना होगा।