Tag Archives: यूरोप

यूनान में फ़ासीवाद का उभार

जब आम लोगों का विरोध इस कदर बढ़ जाता है कि वह पूँजीवाद की लूट की नीतियां को लागू होने में रुकावट बन जाता हैं और पूँजीवाद की पहली कतार की राजनीतिक पार्टियाँ सत्ता संभालने अर्थात लोगों पर डंडा चलाने में असमर्थ हो जाती हैं तो इस काम के लिए पूँजीवाद गोल्डन डॉन जैसी फ़ासीवादी पार्टियों का सहारा लेता है। दूसरी ओर, यही वह ऐतिहासिक क्षण होते हैं जब समाज को आगे लेकर जाने वाली क्रांतिकारी ताकतों के पास लोगों के समक्ष पूँजीवादी ढाँचे के मनुष्य विरोधी चरित्र को पहले से कहीं अधिक नंगा करने और इसके होते हुए मानवता के लिए किसी भी किस्म के अमन-चौन की असंभा‍विता और सब से ऊपर, पूँजीवादी ढाँचे के ऐतिहासिक रूप पर अधिक लम्बे समय के लिए बने रहने की असंभाविता को स्पष्ट करने का अवसर होता है। यही वह समय होता है जब आम लोग बदलाव के लिए उठ खड़े होते हैं और उनकी शक्ति को दिशा देकर क्रांतिकारी ताकतें पूँजीवादी ढाँचे की जोंक को मानवता के शरीर से तोड़ सकती हैं।

मन्दी की मार झेलते मध्‍य और पूर्वी यूरोप के मजदूर

इस वैश्विक मन्दी की सबसे बुरी मार दुनियाभर की गरीब मेहनतकश आबादी पर ही पड़ रही है। उन्हें ही लगातार महँगाई, बेरोजगारी, छँटनी, तालाबन्दी का सामना करना पड़ रहा है, शिक्षा और स्वास्थ्य से बेदखल किया जा रहा है, आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ रहा है। पूँजीपतियों को दिये जाने वाले राहत पैकेजों की कीमत भी जनता से टैक्सों के जरिये वसूली जायेगी और उसे तबाही-बर्बादी के नर्ककुण्ड में ढकेलकर विश्व अर्थव्यवस्था को बचाने में वैश्विक डाकू एक हो जायेंगे। लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है। आम जनता चुपचाप नहीं बैठी है। इसके खिलाफ हर जगह विरोध प्रदर्शनों का ताँता लग गया है। हंगरी, बुल्गारिया, रूस, लिथुआनिया, लातविया, एस्तोनिया जैसे कई देशों में संसदों पर हिंसक हमले हुए। पिछले साल रूस में पिकोलोवा नामक जगह पर स्थानीय लोगों ने स्त्री मजदूरों के नेतृत्व में रोजगार की माँग को लेकर हाईवे जाम किया। इस जगह सीमेण्ट के चार कारखानों में से तीन बन्द हो गये थे और जो उद्योग चल रहे थे उनमें मजदूरों को तनख्वाह नहीं दी जा रही थी। दुनियाभर में मजदूरों के छोटे-बड़े विरोध प्रदर्शनों ने जता दिया है कि जनता के अन्दर सुलग रहा लावा कभी भी फट सकता है।