Category Archives: शिक्षा और रोज़गार

‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों से एक अपील

देश में आम मेहनतकश जनता की ऐसी बेहाली कभी नहीं हुई थी। आज साम्प्रदायिकता और धार्मिक कट्टरता में हमें बहाकर वास्तव में मौजूदा निज़ाम अडानियों-अम्बानियों की पायबोसी और सिजदे में लगा है। ऐसे में, देश में संघ परिवार व मोदी-शाह निज़ाम के ख़िलाफ़ देश के दस राज्यों में भगतसिंह जनअधिकार यात्रा को भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी व कई जनसंगठन आयोजित कर रहे हैं। उद्देश्य है पूँजीपरस्त साम्प्रदायिक फ़ासीवादी मोदी सरकार के ख़िलाफ़ और समूची पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़, जिसने अपने संकटकालीन दौर में पूँजीपति वर्ग की इस बर्बर व नग्न तानाशाही को पैदा किया है, जनता में एक जागृति, गोलबन्दी और संगठन पैदा करना; शहीदे-आज़म भगतसिंह और उनके साथियों के वैज्ञानिक सिद्धान्तों और उसूलों से जनता को परिचित कराना।

बढ़ते आर्थिक संकट के बीच बड़ी कम्पनियों से लेकर स्टार्टअप तक छँटनी का सिलसिला जारी

भारत में काम कर रहे ट्विटर के 80 फ़ीसदी कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है। हाल ही में अमेज़न ने अपने 18000 और एचपी ने 6000 से ज़्यादा कर्मचारियों को निकालने की बात कही है।  अमेज़न के नोएडा, गुड़गाँव स्थित कार्यालयों में छँटनी की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी है। जुलाई 2022 से अब तक माइक्रोसॉफ़्ट तीन बार और नेटफ़्लिक्स दो बार छँटनी कर चुका है। हार्डड्राइव निर्माता सीगेट 3000 से ज़्यादा लोगों की छँटनी कर चुका है और आने वाले दिनों में इससे भी बड़े पैमाने पर छँटनी की बात कर रहा है। आईबीएम 3900 कर्मचारियों को बाहर कर चुका है। हालिया रिपोर्ट के मुताबिक बेरोज़गार हुए लोगों में से 10 फ़ीसदी लोगों को भी दुबारा काम नहीं मिल पा रहा है।

लगातार होती छँटनी और गहराता आर्थिक संकट

एक तरफ़ देश के पूँजीपतियों की दौलत अनन्त गति से बढ़ रही है वहीं दूसरी तरफ़ जनता छँटनी और बेरोज़गारी के रसातल में धँसती चली जा रही है। 2008 की विश्वव्यापी मन्दी से उबरने के लिए पूँजीवादी नीम हकीमों और हुक्मरानों ने जो उपाय दिये थे उसी के गर्भ में आनेवाले समय के भीषण संकट का बुलबुला पल रहा था। आज यह बुलबुला बड़ा होकर अपनी सन्तृप्ति तक पहुँच चुका है और यह अब फूटने के कगार पर खड़ा है। दुनियाभर की तमाम बड़ी कम्पनियों ने बड़े पैमाने पर छँटनी का ऐलान किया है।

ईडब्ल्यूएस आरक्षण : मेहनतकश जनता को बाँटने की शासक वर्ग की एक और साज़िश

भाजपा की मोदी सरकार जनता को बाँटने के एक नये उपकरण के साथ सामने आयी है : ईडब्ल्यूएस आरक्षण। इसका वास्तविक मक़सद जनता के बीच जातिगत पूर्वाग्रहों को हवा देना और सवर्ण मध्यवर्गीय वोटों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करना है। यह आरक्षण की पूरी पूँजीवादी राजनीति में ही एक नया अध्याय है। जातिगत आधार पर मौजूद आरक्षण की पूरी राजनीति का भी देश के पूँजीपति वर्ग ने बहुत ही कुशलता से इस्तेमाल किया है, जबकि निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के हावी होने के साथ आरक्षण के पक्ष या विपक्ष में खड़ी राजनीति का आधार लगातार कमज़ोर होता गया है।

हरिद्वार स्थित सिडकुल औद्योगिक क्षेत्र में हर साल बढ़ती बेरोज़गारी – क्या कर रही है सरकार?

हरिद्वार स्थित सिडकुल (SIIDCUL) औद्योगिक क्षेत्र का लेबर चौक दिहाड़ी मज़दूरों के रोज़गार पाने का अड्डा है। इस औद्योगिक क्षेत्र में दो लेबर चौक हैं जहाँ पर आसपास की मज़दूर बस्तियों से मज़दूर काम की तलाश में आते हैं। इन लेबर चौक पर कई प्रकार के काम करने वाले मज़दूर इकट्ठा होते हैं। मशीन चलाने वाले कुशल मज़दूर, फ़ैक्टरी में हेल्पर के तौर पर काम करने वाले, लोडिंग-अनलोडिंग करने वाले, फ़ैक्टरी के कैण्टीन में काम करने वाले, फ़ैक्टरी में सफ़ाई करने वाले, निर्माण मज़दूर, बेलदारी करने वाले मज़दूर। ठेकेदार इन्हीं लेबर चौक पर सस्ती श्रमशक्ति ख़रीदने आते हैं।

बेरोज़गारी और आर्थिक संकट के दौर में बढ़ती आत्महत्याएँ

पिछले साल का कोरोना काल आपको याद होगा। ऑक्सीजन, दवाइयों, बेड की कमी के कारण लोग मारे जा रहे थे। गंगा तक इन्सानों की लाशों से अट गयी थी और श्मशानों के आगे लम्बी-लम्बी क़तारें लगी थीं। इसमें मौत के गर्त में समाने वाले ज़्यादातर मेहनतकश तबक़े के लोग थे। मोदी सरकार इस क़त्लेआम को अंजाम देकर आपदा में अवसर निकालने में लगी हुई थी। इसके साथ ही पूरी पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा मज़दूरों की जा रही हत्याओं के आँकडों में और इज़ाफ़ा हो गया।

बेरोज़गारी की विकराल स्थिति

आज हमारे देश में बेरोज़गारी की जो हालत है, वह कई मायने में अभूतपूर्व है। मोदी सरकार की पूँजीपरस्त नीतियों की क़ीमत देश की मेहनतकश जनता कमरतोड़ महँगाई और विकराल बेरोज़गारी के रूप में चुका रही है। इन दोनों का नतीजा है कि हमारे देश में विशेष तौर पर पिछले आठ वर्षों में ग़रीबी में भी ज़बर्दस्त बढ़ोत्तरी हुई है। हम मेहनतकश लोग जानते हैं कि जब भी बेरोज़गारी, महँगाई और ग़रीबी का क़हर बरपा होता है, तो उसका ख़ामियाज़ा भुगतने वाले सबसे पहले हम लोग ही होते हैं। क्योंकि पूँजीपति और अमीर वर्ग अपने मुनाफ़े की हवस से पैदा होने वाले आर्थिक संकट का बोझ भी हमारे ऊपर ही डाल देते हैं।

आज़ादी का (अ)मृत महोत्सव : अडानियों-अम्बानियों की बढ़ती सम्पत्ति, आम जनता की बेहाल स्थिति

मेहनतकश साथियों, इस साल हमारा देश आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है। हर बार की तरह मोदीजी फिर इस बार लाल क़िले पर चढ़कर लम्बे-लम्बे भाषण देंगे। बड़े-बड़े वायदे करेंगे, जो हर बार की तरह पूरे नहीं होने वाले। इसका कारण भी है क्योंकि मोदी जी के लिए देश का मतलब आम जनता नहीं बल्कि देश के पूँजीपति हैं, इसलिए धन्नासेठों से किये सारे वायदे पूरे होते हैं और जनता को दिये जाते हैं बस जुमले। इस बार ये सरकार आज़ादी का मृत महोत्सव, माफ़ कीजिएगा, “अमृत महोत्सव” मना रही है। पर सवाल है किसके लिए आज़ादी?

हरियाणा सरकार की चिराग योजना : प्राइवेट शिक्षा माफ़ियाओं को एक और तोहफ़ा

हाल ही में हरियाणा सरकार द्वारा चिराग योजना का ऐलान किया गया है जिसमें आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के बच्चों (जिनकी वार्षिक पारिवारिक आय 1.80 लाख से कम है), जो कक्षा दूसरी से बारहवीं तक के छात्र हैं, का सरकारी विद्यालयों से निजी मान्यता प्राप्त विद्यालयों में दाख़िला दिलवाने के लिए इस योजना के तहत वर्ष 2022-23 के लिए कुल 24987 सीटें तय की गयी हैं। इन निजी स्कूलों में सीटों के अनुसार सरकार द्वारा इन बच्चों के दाख़िले के बाद इन्हें सरकारी अनुदान देने का दावा किया गया है, वहीं 134ए के तहत ग़रीब बच्चों के प्राइवेट स्कूलों में दाख़िले के नियम को समाप्त कर दिया गया है।

शिक्षा का भगवाकरण : पाठ्यपुस्तकों में बदलाव छात्रों को संघ का झोला ढोने वाले कारकून और दंगाई बनाने की योजना

फ़ासीवादी विचारधारा और इसे संरक्षण देने वाली पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई हमें तेज़ करनी होगी क्योंकि ऐसी पढ़ाई हमारे मासूम बच्चों को दंगाई और हैवान बनायेगी। हमें अपने बच्चों को बचाना होगा हमें सपनों को बचाना होगा। इन ख़तरनाक क़दमों को मज़दूर वर्ग को कम करके नहीं आँकना चाहिए। ये क़दम एक पूरी पीढ़ी के दिमाग़ों में ज़हर घोलने, उनका फ़ासीवादीकरण करने, उन्हें दिमाग़ी तौर पर ग़ुलाम बनाने और साथ ही मज़दूर वर्ग को वैज्ञानिक और तार्किक चिन्तन की क्षमता से वंचित करने का काम करते हैं। जिस देश के मज़दूर और छात्र-युवा वैज्ञानिक और तार्किक चिन्तन की क़ाबिलियत खो बैठते हैं वे अपनी मुक्ति के मार्ग को भी नहीं पहचान पाते हैं और न ही वे मज़दूर आन्दोलन के मित्र बन पाते हैं। उल्टे वे मज़दूर आन्दोलन के शत्रु के तौर पर तैयार किये जाते हैं और शैक्षणिक, बौद्धिक व सांस्कृतिक संस्थाओं का फ़ासीवादीकरण इसमें एक अहम भूमिका निभाता है।