Category Archives: साम्राज्‍यवाद

जॉयनवादी इज़रायली हत्यारों के संग मोदी सरकार की गलबहियाँ

हालाँकि पिछले दो दशकों में सभी पार्टियों की सरकारों ने इज़रायली नरभक्षियों द्वारा मानवता के खि़लाफ़ अपराध को नज़रअन्दाज़ करते हुए उनके आगे दोस्ती का हाथ बढ़ाया है, लेकिन हिन्दुत्ववादी भाजपा की सरकार का इन जॉयनवादी अपराधियों से कुछ विशेष ही भाईचारा देखने में आता है। अटलबिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान भी भारत और इज़रायल के सम्बन्धों में ज़बरदस्त उछाल आया था और अब नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद एक बार फिर इस प्रगाढ़ता को आसानी से देखा जा सकता है। नरेन्द्र मोदी और बेंजामिन नेतन्याहू दोनों के ख़ूनी रिकॉर्ड को देखते हुए ऐसा लगता है, मानो ये दोनों एक-दूसरे के नैसर्गिक जोड़ीदार हैं। इस जोड़ी की गर्मजोशी भरी मुलाक़ात सितम्बर में संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेम्बली की बैठक के दौरान न्यूयॉर्क में हुई जिसमें नेतन्याहू ने मोदी को जल्द से जल्द इज़रायल आने का न्योता दिया जिसे मोदी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। नेतन्याहू ने यह भी बयान दिया कि “हम भारत से मज़बूत रिश्ते की सम्भावनाओं को लेकर रोमांचित हैं और इसकी सीमा आकाश है।” इज़रायली मीडिया ने नेतन्याहू-मोदी की इस मुलाक़ात को प्रमुखता से जगह दी।

माइकल ब्राउन हत्याकाण्ड: एक शोकगीत जिसका अन्त निश्चित है

अमेरिकी पुलिस द्वारा इतने बड़े पैमाने पर अश्वेत आबादी की नृशंस हत्या को अंजाम दिए जाने का एक कारण तो श्वेत आबादी के दिलों में बरसों से अश्वेतों के प्रति पैठी गहरी घृणा भावना है। दूसरा, अमेरिका में अश्वेत आबादी के सामाजिक-आर्थिक हालात ने उनके बीच जिस असुरक्षा की भावना को बढ़ावा दिया है उससे उनके दिलों में असंतोष की चिंगारी सुलग रही है। इस असंतोष की बारीक से बारीक अभिव्यक्ति को अमेरिकी शासकों द्वारा बन्दूक की नोक से शांत किया जाता रहा है। अगर अकेले फ़र्ग्यूसन शहर की बात करें तो 21,000 की आबादी वाले इस शहर में 67 प्रतिशत अश्वेत आबादी रहती है। इनमें बेरोज़गारी की दर 13 प्रतिशत है और यहाँ हर चार में से एक अश्वेत ग़रीब है।

इस्लामिक स्टेट (आईएस): अमेरिकी साम्राज्यवाद का नया भस्मासुर

बुर्जुआ मीडिया हमें यह नहीं बता रहा है कि अभी कुछ महीनों पहले तक आईएसआईएस के जेहादी लड़ाके अमेरिकी, ब्रिटिश, फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों एवं अरब जगत में उनके टट्टुओं जैसे सउदी अरब, कतर और कुवैत की शह पर सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद का तख़्तापलट करने के लिए वहाँ जारी गृहयुद्ध में भाग ले रहे थे। उस समय साम्राज्यवादियों की नज़र में वे “अच्छे” जिहादी थे क्योंकि वे उनके हितों के अनुकूल काम कर रहे थे। लेकिन अब जब वे उनके हाथों से निकलते दिख रहे हैं तो वे बुरे जिहादी हो गये हैं और उन पर नकेल कसने की क़वायदें शुरू हो गयी हैं। दरअसल इस्लामिक स्टेट अल-क़ायदा और तालिबान की तर्ज़ पर अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा पैदा किया गया और पाला-पोसा गया नया भस्मासुर है जो अब अपने आका को ही शिकार बनाने लगा है।

ब्रिटिश सैनिकों की अन्धकार भरी ज़िन्दगी की एक झलक

यह दर्दनाक घटनाक्रम सिर्फ एक ब्रिटिश सैनिक के हालात नहीं बताता बल्कि ब्रिटिश सेना के मौजूदा और पूर्व सैनिकों की एक बड़ी संख्या की हालत को बताता है। युवाओं को एक अच्छे, देशभक्तिपूर्ण, बहादुरी और शान वाले रोज़गार का लालच देकर ब्रिटिश सेना में भर्ती किया जाता है। सर्वोत्तम बनो, दूसरो से ऊपर उठो जैसे लुभावने नारों के जरिए युवाओं का ध्यान सेना की तरफ खींचा जाता है। दिल लुभाने वाले बैनरों, पोस्टरों, तस्वीरों के जरि‍ए ब्रिटिश सेना की एक गौरवशाली तस्वीर पेश की जाती है। लेकिन ब्रिटिश सेना की जो लुभावनी तस्वीर पेश की जाती है उसके पीछे एक बेहद भद्दी (असली) तस्वीर मौजूद है। वियतनाम युद्ध के बाद सैनिकों के हालात को लेकर ब्रिटिश सेना के सर्वेक्षण शुरू हुए थे। अक्तूबर 2013 में ब्रिटिश सेना के बारे में ‘फोर्सस वाच संस्था’ ने ‘दी लास्ट ऐम्बुश’ नाम की एक रिपोर्ट जारी की। यह रिपोर्ट डेढ सौ स्रोतों से जानकारी जुटा कर तैयार की गई। इन स्रोतों में ब्रिटिश सेना की तरफ से जारी की गई 41 रिर्पोटें और पूर्व सैनिकों के साथ बातचीत भी शामिल है। फोर्सेस वाच का खुद का कहना है कि सेना के नियंत्रण में होने वाले सर्वेक्षण में पूरी सच्चाई बाहर नहीं आती। लेकिन इनके अधार पर तैयार की गई रिपोर्ट ब्रिटिश सैनिकों की अँधेरी ज़िन्दगी की तस्वीर के एक हिस्से को तो उजागर करती है।

इज़रायली बर्बरता की कहानी – एक डाक्टर की ज़ुबानी

डा. गिल्बर्ट का फिलिस्तीनी लोगों के मुक्ति-संघर्ष से पुराना नाता रहा है। वे 1970 से फिलिस्तीन तथा लेबनान में काम रहे हैं। वे ऐसे डाक्टर हैं जिनके लिए मानवता की सेवा तथा ज़ुल्म के ख़िलाफ़ संघर्षरत लोगों के साथ होकर लड़ने में मेडिकल विज्ञान की सार्थकता है, जिनके लिए मेडिकल विज्ञान जरूरत से ज़्यादा खाने और कोई काम न करने वाले परजीवियों के मोटापे को कम करने का विज्ञान नहीं है, जिनके लिए मेडिकल विज्ञान का ज्ञान पूँजीपतियों के खोले पांच-सितारा अस्पतालों में बेचने की चीज नहीं है और जिनके मेडिकल विज्ञान का ज्ञान समूची मानवता की धरोहर है न कि मुठ्ठीभर अमीरों के घर की रखैल। वे आज के समय में डा. नार्मन बेथ्यून, डा. कोटनिस, डा. जोशुआ हॉर्न जैसे डाक्टरों की परम्परा को बनाए हुए हैं जिन्होंने वक्त आने पर लोगों का पक्ष चुना था। वे और उनके साथ काम करने अन्य कई डाक्टर तथा कर्मी इस बात का उदाहरण हैं कि आज भी ऐसे डाक्टर मौजूद हैं, भले ही अभी इनकी संख्या कम हो, जो बड़े-बड़े पैकेजों, आरामदायक जीवन को छोड़कर आम लोगों और उनके सुख-दुःख से अपने जीवन को लेते हैं और इस लिए सही मायने में डाक्टर कहलवाने के योग्य हैं।

मोदी सरकार ने गाज़ा नरसंहार पर संसद में चर्चा कराने से इंकार किया

किसी भी देश की विदेश नीति हमेशा उसकी आर्थिक नीतियों के ही अनुरूप होती है। पश्चिमी साम्राज्यवादी पूँजी के लिए पलक पाँवड़े बिछाने वाली धार्मिक कट्टरपन्थी फासिस्टों की सरकार से यही अपेक्षा थी कि वे ज़ियनवादी हत्यारों का साथ दें। उन्होंने अपना पक्ष चुन लिया है और हमने भी। जो इंसाफ़पसन्द नागरिक अबतक चुप हैं, वे सोचें कि आने वाली नस्लों को, इतिहास को और अपने ज़मीर को वे क्या जवाब देंगे।

ज़ियनवादी नरसंहार, फिलिस्तीनी जनता का महाकाव्यात्मक प्रतिरोध और आज की दुनिया

इज़रायली हमले का उद्देश्य अगर फिलिस्तीनियों के प्रतिरोध संघर्ष को ख़त्म करना है तो इसमें वह कभी कामयाब नहीं होगा। अगर हमास ख़त्म भी हो गया तो उसकी जगह कोई उससे भी ज़्यादा कट्टरपन्थी संगठन ले सकता है। दूसरी सम्भावना यह भी है कि धार्मिक कट्टरपन्थ के नतीजों को देखने के बाद फिलिस्तीनी जनता के बीच से रैडिकल वामधारा को मज़बूती मिले। लेकिन इतना तय है कि फिलिस्तीनियों का प्रतिरोध संघर्ष थमेगा नहीं। फिलिस्तीन का बच्चा-बच्चा यह जानता है कि अगर उन्होंने लड़ना बन्द कर दिया तो इज़रायल उन्हें नेस्तनाबूद कर देगा।

गाज़ा में इज़रायल द्वारा जारी इस सदी के बर्बरतम जनसंहार के विरुद्ध देशभर में विरोध प्रदर्शन

इस सदी के बर्बरतम नरसंहार, यानी गाज़ा के नागरिकों पर जारी इज़रायल के हवाई हमलों के विरुद्ध दुनियाभर में विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं। भारत में बिगुल मज़दूर दस्ता से जुड़े साथियों ने इसपर पहल लेने में अहम भूमिका निभायी और देश के कई शहरों में विरोध-प्रदर्शन आयोजित करने में आगे रहे।

सैन्य तानाशाही और खुले पूँजीवादी शोषण के विरुद्ध एक बार फिर सड़कों पर आ रहे हैं मिस्र के मज़दूर

आज एक बार फिर पूँजीवादी साम्राज्यवादी शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध मिस्र के मज़दूरों का असन्तोष एक के बाद एक जुझारू हड़तालों के रूप में उभरकर सामने आ रहा है। कपड़ा, लोहा तथा स्टील कम्पनियों में काम करने वाले मज़दूर, डॉक्टर, फ़ार्मासिस्ट, डाकख़ाना-कर्मी, सामाजिक कर्मी, सामाजिक यातायात-कर्मी, तिपहिया ड्राइवर, और अब संवाददाता जैसे दसियों हज़ार मज़दूर काम की परिस्थितियों को बेहतर करने, वेतन बढ़ाने और अन्य मज़दूर अधिकारों से जुड़ी माँगों को लेकर लगातार सड़कों पर आ रहे हैं। जनवरी 2014 से मज़दूर हड़तालों के उभार का यह सिलसिला पूरे मिस्र में दिख रहा है जो अब्दुल अल फ़तह-सिसी के नेतृत्व में साम्राज्यवाद द्वारा पोषित सैन्य तानाशाही के तहत होने वाले नंगे पूँजीवादी शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध जनता की आवाज़ को अभिव्यक्त कर रहा है।

अमेरिकाः दुनिया का सबसे रुग्ण और अपराधग्रस्त समाज

अमेरिका में 22 लाख लोग जेलों में बंद हैं। कैदियों की संख्या के मामले में अमेरिका दुनिया में पहले स्थान पर है। आबादी में कैदियों के प्रतिशत अनुपात के हिसाब से भी यह दुनिया में पहले स्थान पर है। अमेरिका में दुनिया की 5 प्रतिशत आबादी रहती है, पर दुनिया के 25 प्रतिशत सज़ायाफ्ता कैदी सिर्फ अमेरिकी जेलों में रहते हैं। वहाँ की प्रति एक लाख आबादी में से 730 जेल हैं।