Category Archives: साम्राज्‍यवाद

ज़ियनवादी नरसंहार, फिलिस्तीनी जनता का महाकाव्यात्मक प्रतिरोध और आज की दुनिया

इज़रायली हमले का उद्देश्य अगर फिलिस्तीनियों के प्रतिरोध संघर्ष को ख़त्म करना है तो इसमें वह कभी कामयाब नहीं होगा। अगर हमास ख़त्म भी हो गया तो उसकी जगह कोई उससे भी ज़्यादा कट्टरपन्थी संगठन ले सकता है। दूसरी सम्भावना यह भी है कि धार्मिक कट्टरपन्थ के नतीजों को देखने के बाद फिलिस्तीनी जनता के बीच से रैडिकल वामधारा को मज़बूती मिले। लेकिन इतना तय है कि फिलिस्तीनियों का प्रतिरोध संघर्ष थमेगा नहीं। फिलिस्तीन का बच्चा-बच्चा यह जानता है कि अगर उन्होंने लड़ना बन्द कर दिया तो इज़रायल उन्हें नेस्तनाबूद कर देगा।

गाज़ा में इज़रायल द्वारा जारी इस सदी के बर्बरतम जनसंहार के विरुद्ध देशभर में विरोध प्रदर्शन

इस सदी के बर्बरतम नरसंहार, यानी गाज़ा के नागरिकों पर जारी इज़रायल के हवाई हमलों के विरुद्ध दुनियाभर में विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं। भारत में बिगुल मज़दूर दस्ता से जुड़े साथियों ने इसपर पहल लेने में अहम भूमिका निभायी और देश के कई शहरों में विरोध-प्रदर्शन आयोजित करने में आगे रहे।

सैन्य तानाशाही और खुले पूँजीवादी शोषण के विरुद्ध एक बार फिर सड़कों पर आ रहे हैं मिस्र के मज़दूर

आज एक बार फिर पूँजीवादी साम्राज्यवादी शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध मिस्र के मज़दूरों का असन्तोष एक के बाद एक जुझारू हड़तालों के रूप में उभरकर सामने आ रहा है। कपड़ा, लोहा तथा स्टील कम्पनियों में काम करने वाले मज़दूर, डॉक्टर, फ़ार्मासिस्ट, डाकख़ाना-कर्मी, सामाजिक कर्मी, सामाजिक यातायात-कर्मी, तिपहिया ड्राइवर, और अब संवाददाता जैसे दसियों हज़ार मज़दूर काम की परिस्थितियों को बेहतर करने, वेतन बढ़ाने और अन्य मज़दूर अधिकारों से जुड़ी माँगों को लेकर लगातार सड़कों पर आ रहे हैं। जनवरी 2014 से मज़दूर हड़तालों के उभार का यह सिलसिला पूरे मिस्र में दिख रहा है जो अब्दुल अल फ़तह-सिसी के नेतृत्व में साम्राज्यवाद द्वारा पोषित सैन्य तानाशाही के तहत होने वाले नंगे पूँजीवादी शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध जनता की आवाज़ को अभिव्यक्त कर रहा है।

अमेरिकाः दुनिया का सबसे रुग्ण और अपराधग्रस्त समाज

अमेरिका में 22 लाख लोग जेलों में बंद हैं। कैदियों की संख्या के मामले में अमेरिका दुनिया में पहले स्थान पर है। आबादी में कैदियों के प्रतिशत अनुपात के हिसाब से भी यह दुनिया में पहले स्थान पर है। अमेरिका में दुनिया की 5 प्रतिशत आबादी रहती है, पर दुनिया के 25 प्रतिशत सज़ायाफ्ता कैदी सिर्फ अमेरिकी जेलों में रहते हैं। वहाँ की प्रति एक लाख आबादी में से 730 जेल हैं।

ग़रीबी-बदहाली के गड्ढे में गिरते जा रहे अमेरिका के करोड़ों मेहनतकश लोग

अमेरिका में बच्चों की ग़रीबी के बारे में ज़्यादा आँकड़े जारी किये जाते हैं। सरकारी पैमाने के मुताबिक़ अमेरिका के 18 साल से कम उम्र वाले 22 फ़ीसदी बच्चे यानी 1.67 करोड़ बच्चे ग़रीबी रेखा से नीचे हैं। बच्चों के मामले में काली आबादी की हालत और भी बदतर है, क्योंकि इस आबादी में 39 फ़ीसदी बच्चे ग़रीबी रेखा से नीचे हैं। इसी तरह लातिनी बच्चों की हालत भी काफ़ी बुरी है। लातिनी बच्चों का 34 फ़ीसदी ग़रीबी रेखा से नीचे माना गया है। ग़रीबी की हालत में रहने वाले बच्चों को भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, मनोरंजन आदि की न्यूनतम ज़रूरतों की पूर्ति या तो होती ही नहीं या बेहतर तरीक़े से नहीं होती। अमेरिका के पब्लिक स्कूलों में लगभग एक लाख पैंसठ हज़ार बेघर बच्चे हैं। विधवा या पति से अलग हो चुकी औरतों के बच्चों की हालत भी बहुत दयनीय है। 2010 के एक सरकारी आँकड़े के अनुसार अमेरिका में ऐसे बच्चों की संख्या 1.08 करोड़ है यानी कुल बच्चों का 24 फ़ीसदी। इन बच्चों में 42.2 फ़ीसदी बच्चे ग़रीबी रेखा से नीचे हैं। स्पेनी मूल के परिवारों के 50.9 फ़ीसदी बच्चे ग़रीबी झेल रहे हैं। काले लोगों के लिए यह 48.8, एशियाई मूल के लोगों के लिए 32.1 और ग़ैर-स्पेनी लोगों के लिए 32.1 फ़ीसदी है।

राष्ट्रपति मोर्सी सत्ता से किनारे, मिस्र एक बार फिर से चौराहे पर

इस तरह एक वार फिर, मिस्र की घटनाएँ यह साफ कर रही हैं कि पूँजीपति वर्ग की सत्ता का विकल्‍प मज़दूर वर्ग की सत्ता ही है और पूँजीवाद का विकल्‍प आज भी समाजवाद है। और किसी भी तरीके से पूँजीवाद का विरोध हमें ज़्यादा से ज़्यादा किसी चौराहे पर लाकर ही छोड़ सकता है, रास्ता नहीं दिखा सकता। भविष्य का रास्ता मज़दूर वर्ग की विचारधारा मार्क्सवाद और मार्क्सवादी उसूलों पर गढ़ी तथा जनसंघर्षों-आंदोलनों में तपी-बढ़ी मज़दूर वर्ग की क्रांतिकारी पार्टी ही दिखा सकती है। मगर तब भी मिस्र की ताजा घटनाओं का महत्त्व कम नहीं हो जाता, इनसे यह एक बार फिर साबित होता है कि जनता अनंत ऊर्जा का स्रोत है, जनता इतिहास का बहाव मोड़ सकती है, मोड़ती रही है और मोड़ती रहेगी। मिस्र का आगे का रास्ता फिलहाल अँधेरे में डूबा दिखाई दे रहा है, लेकिन यह अकेले मिस्र की होनी नहीं है, तमाम दुनिया में अवाम रास्तों की तलाश कर रहा है।

सीरिया: साम्राज्यवादी हस्तक्षेप और इस्लामी कट्टरपन्थ, दोनों को नकारना होगा जनता की ताक़तों को!

सीरिया में जारी गृहयुद्ध अब क़रीब दो वर्ष पूरे करने वाला है। सीरिया के शासक बशर अल असद की दमनकारी तानाशाह सत्ता के ख़िलाफ़ जनविद्रोह की शुरुआत वास्तव में अरब विश्व में दो वर्ष पहले शुरू हुए जनउभार के साथ ही हुई थी। इस जनविद्रोह ने मिस्र और ट्यूनीशिया में तानाशाह सत्ताओं को उखाड़ फेंका। हालाँकि किसी इंक़लाबी मज़दूर पार्टी की ग़ैर-मौजूदगी में इन देशों में जो नयी सत्ताएँ आयीं उन्होंने जनता की आकांक्षाओं को पूरा नहीं किया और वे साम्राज्यवाद के प्रति समझौतापरस्त रुख़ रखती हैं। लेकिन एक बात तय है कि अरब में उठे जनविद्रोह ने साम्राज्यवादियों की नींदें उड़ा दी हैं। अमेरिकी और यूरोपीय साम्राज्यवादी जानते हैं कि जनता की क्रान्तिकारी चेतना का जिन्न एक बार बोतल से निकल गया तो वह कभी भी ख़तरनाक रुख़ अख्त़ियार कर सकता है। इसलिए अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने इन जनविद्रोहों को कुचलने की बजाय उनका समर्थन करके उन्हें सहयोजित करने का क़दम उठाया है। मिस्र और ट्यूनीशिया में काफ़ी हद तक यह साम्राज्यवादी साज़िश कामयाब भी हुई है। अल असद की सत्ता के खि़लाफ़ जो जनविद्रोह शुरू हुआ था, शुरू में अमेरिका ने उसे समर्थन नहीं दिया था और असद से कुछ सुधार लागू करने के लिए कहा था ताकि यह जनविद्रोह किसी बड़े परिवर्तन की तरफ न बढ़े। लेकिन जल्द ही उसने असद की सत्ता को ख़त्म करने की नीति को खुले तौर पर अपना लिया। दो वर्षों से जारी सीरियाई गृहयुद्ध में क़रीब 8,000 लोग मारे जा चुके हैं और इससे कहीं ज़्यादा विस्थापित हो चुके हैं। अमेरिका विद्रोहियों का समर्थन करके सीरिया में एक ऐसा नियन्त्रित सत्ता परिवर्तन चाहता है जो कि उसके हितों के अनुकूल हो।

ब्रिटेन में ग़रीबों का विद्रोह – संकटग्रस्‍त दैत्‍य के दुर्गों में ऐसे तुफ़ान उठते ही रहेंगे

इतिहास में बार-बार साबित हुआ है कि जहाँ दमन है वहीं प्रतिरोध है। इतिहास इस बात का भी गवाह रहा है कि जब ग़ुलामों के मालिकों पर संकट आता है, ठीक उसी समय ग़ुलाम भी बग़ावत पर आमादा हो उठते हैं। ब्रिटेन का यह विद्रोह उस आबादी का विद्रोह है जिसे उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों ने धकेलते-धकेलते उस मुक़ाम पर पहुँचा दिया है जहाँ उसे अपने अस्तित्व के लिए भी जूझना पड़ रहा है। युवाओं की भारी आबादी को न कोई भविष्य दिखायी दे रहा है और न कोई विकल्प। ऐसे में बीच-बीच में इस तरह के अन्धे विद्रोह फूटते रहेंगे और पूँजीवादी शासकों की नींद हराम करते रहेंगे। ऐसे अराजक विद्रोह जनता को मुक्ति की ओर तो नहीं ले जा सकते लेकिन पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की भीतरी कमज़ोरी को ये सतह पर ला देते हैं और उसके सामाजिक संकट को और गहरा कर जाते हैं। साम्राज्यवादी देशों के भीतर सर्वहारा का आन्दोलन आज कमज़ोर है लेकिन बढ़ता आर्थिक संकट मज़दूरों के निचले हिस्सों को रैडिकल बना रहा है।

अमेरिकी साम्राज्यवाद का कर्ज़ संकट

पिछले लगभग एक दशक से अमेरिकी सरकार द्वारा, चाहे सरकार रिपब्लिकन पार्टी की हो या डेमोक्रेटिक पार्टी की, अमेरिका के पूँजीपतियों को टैक्सों में बड़ी राहत दी जाती रही है। बुश प्रशासन द्वारा 2001, 2003 तथा फिर 2005 में अमेरिकी पूँजीपतियों पर लगने वाले टैक्सों में भारी कटौती की गयी। दिसम्बर 2010 में ओबामा प्रशासन ने भी पूँजीपतियों पर इन टैक्स कटौतियों को जारी रखने का फ़ैसला लिया। पूँजीपतियों के लिए यह टैक्स कटौती लगभग 1 खरब डॉलर तक है। ओबामा के ही शब्दों में पूँजीपतियों पर टैक्स का “यह पिछली आधी सदी में सर्वाधिक निम्न स्तर है।” पूँजीपतियों को टैक्सों में दी जाने वाली इस बड़ी छूट के चलते सरकार की आमदनी कम हुई है। नतीजतन इससे अमेरिकी सरकार का कर्ज़ संकट बढ़ा है।

बंगाल के अकाल पर नयी पुस्तक : ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के बर्बर युद्ध-अपराध पर नयी रोशनी

चर्चिल की नीतियों ने बंगाल के अकाल को जन्म दिया। गाँव के गाँव वीरान हो गये। कलकत्ता की सड़कें लाशों से पटने लगीं। शोरबे और दलिया के लिए जगह-जगह सैकड़ों चलते-फिरते अस्थिपंजर लाइन लगाकर खड़े रहते थे और कई वहीं मर जाते थे। लाखों बेसहारा बच्चे सड़कों पर भटक रहे थे। भूखी माँओं ने अपने बच्चों को ज़िन्दा रखने के लिए शरीर बेचना शुरू किया। वेश्यालयों में भीड़ लग गयी। स्थिति ऐसी हो गयी कि कुलीन मध्य वर्ग के लोग भी इस हालात से निबटने के उपायों पर बात करने लगे। सड़कों पर सड़ती लाशों, अधमरे लोगों और दावतें उड़ाते कुत्तों को देख-देखकर उन्हें भी परेशानी होने लगी। हालाँकि उस समय भी कलकत्ता के ऊँचे दर्ज़े के होटलों में पाँच कोर्स वाले भव्य लंच-डिनर परोसे जा रहे थे।