Category Archives: साम्राज्‍यवाद

जंग आख़िर जनता ही जीतेगी…

अफगानिस्तान में जिस आतंकवाद के खिलाफ जंग के नाम पर अफगान जनता का क़त्लेआम किया जा रहा है उस आतंकवाद का जन्मदाता खुद अमेरिका है। सन् 1979 में अमेरिका के साम्राज्यवादी प्रतिद्वन्दी सोवियत संघ द्वारा अफगानिस्तान पर कब्ज़ा किया गया। अपने इस प्रतिद्वन्द्वी को हराने के लिए अमेरिका ने तीन अरब डालर से भी अधिक की वित्तीय और हथियारों की मदद कट्टरपन्‍थी इस्लामी गुटों को दी। ओसामा बिन लादेन ने भी अमेरिकी शासकों की मदद से ही आतंकवादी गतिविधियाँ शुरू की थीं। इसलिए अमेरिकी शासकों का यह प्रचार कि अफगानिस्तान जंग आतंकवाद के खिलाफ और शांति के लिए लिए लड़ी जा रही है एक सफेद झूठ है। अफगानिस्तान पर कब्ज़ा करके अमेरिका दक्षिण एशिया में अपनी सैनिक चौकी स्थापित करना चाहता था। कास्पियन सागर में मिलने वाले तेल पर भी उसकी निगाहें लगी थीं।

अरब धरती पर चक्रवाती जनउद्रेक का नया दौर और साम्राज्यवादी सैन्य-हस्तक्षेप

वर्तमान जनविद्रोहों की लहर यदि पीछे धकेल दी जाती है तो हो सकता है कि कुछ समय के लिए अरब जगत में अस्थिरता-अराजकता-गृहयुद्ध जैसा माहौल बन जाये। इस्लामी कट्टरपन्थी ताक़तों का प्रभाव-विस्तार भी हो सकता है। तेल सम्पदा पर इज़ारेदारी के लिए साम्राज्यवादी होड़ (जो आज सतह के नीचे है) कुछ नये समीकरणों को जन्म दे सकती है। फिलिस्तीन के अतिरिक्त लेबनान और सीरिया को भी कुटिल इज़रायली षड्यन्त्रों का शिकार होना पड़ सकता है। बचे हुए साम्राज्यवादी पिट्ठू और अधिक दमनकारी रुख़ अपना सकते हैं। लेकिन ये सभी नतीजे और प्रभाव अल्पकालिक ही होंगे। अरब जगत अब वैसा नहीं रह जायेगा, जैसा वह था। यदि सन्नाटा या उलटाव के दौर आयेंगे भी, तो लम्बे नहीं होंगे। अपेक्षाकृत अधिक छोटे अन्तरालों पर जनज्वार उमड़ते रहेंगे। उनकी आवर्तिता बढ़ती जायेगी और उग्रता भी। वर्तमान जन-विद्रोहों में मज़दूर वर्ग की सक्रियता उल्लेखनीय रही है। आगे, उभार के हर नये चक्र में, मज़दूर वर्ग, वर्ग संघर्ष की पाठशाला से शिक्षा लेगा और अपनी ऐतिहासिक विरासत को याद करेगा। अरब धरती पर वामपन्थ का पुराना इतिहास रहा है।

मज़दूरों और नौजवानों के विद्रोह से तानाशाह सत्ताएँ ध्वस्त

हर ऐसे विद्रोह के बाद ज़नता की राजनीतिक पहलकदमी खुल जाती है और वह चीज़ों पर खुलकर सोचने और अपना रुख तय करने लगती है। यह राजनीतिक उथल-पुथल भविष्य में नये उन्नत धरातल पर वर्ग संघर्ष की ज़मीन तैयार करती है। इसके दौरान ज़नता वर्ग संघर्ष में प्रशिक्षित होती है और आगे की लड़ाई में ऐसे अनुभवों का उपयोग करती है। मिस्र के मज़दूर आन्दोलन में भी आगे राजनीतिक स्तरोन्नयन होगा और मुबारक की सत्ता के पतन के बाद जो थोड़े सुधार और स्वतन्त्रता हासिल होंगे, वे मज़दूर आन्दोलन को तेज़ी से आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध होंगे। लेनिन ने कहा था कि बुर्जुआ जनवाद सर्वहारा राजनीति के लिए सबसे अनुकूल ज़मीन होता है। जिन देशों में निरंकुश पूँजीवादी सत्ताओं की जगह सीमित जनवादी अधिकार देने वाली सत्ताएँ आयेंगी, वहाँ सर्वहारा राजनीति का भविष्य उज्ज्वल होगा। इस रूप में पूरे अरब विश्व में होने वाले सत्ता परिवर्तन यदि क्रान्ति तक नहीं भी पहुँचते तो अपेक्षाकृत उन्नत वर्ग संघर्षों की ज़मीन तैयार करेंगे। हम अरब विश्व के जाँबाज़ बग़ावती मज़दूरों, नौजवानों और औरतों को बधाई देते हैं और उनकी बहादुरी को सलाम करते हैं! हमें उम्मीद है कि यह उनके संघर्ष का अन्त नहीं, बल्कि महज़ एक पड़ाव है और इससे आगे की यात्रा करने की ऊर्जा और समझ वे जल्दी ही संचित कर लेंगे।

इराकी जनता को तबाह करने के बाद अब इराक से वापसी का अमेरिकी ड्रामा

यह साम्राज्यवादी अन्धेरगर्दी, लफ्फाज़ी और बेशर्मी की इन्तहाँ है कि अमेरिका का राष्ट्रपति मंच से बोलता है कि इराकी जनता को मुक्त कर दिया गया है और वहाँ लोकतन्त्र की बहाली कर दी गयी है। यह अपना गन्दा और घायल चेहरा छिपाने के लिए दिया गया कथन मालूम पड़ता है। इराकी जनता ने भारी कुर्बानियों के बावजूद साम्राज्यवाद के विरुद्ध एक नायकत्वपूर्ण संघर्ष किया और अमेरिकी सैन्य गुण्डागर्दी के सामने घुटने नहीं टेके। और अन्तत: उन्होंने अमेरिकियों को अपने नापाक इरादे पूरे किये बग़ैर अपने देश से भगाने में सफलता हासिल करनी भी शुरू कर दी है। यह सच है कि इस थोपे गये साम्राज्यवादी युद्ध ने इराक को तबाह करके रख दिया है। इराक आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से बिखरी हुई स्थिति में है और अतीत में कई वर्ष पीछे चला गया है। लेकिन इराकी जनता ने यह साबित कर दिया है कि साम्राज्यवादी शक्ति के समक्ष कोई क्रान्तिकारी विकल्प न होने की सूरत में अगर जनता जीत नहीं सकती तो वह साम्राज्यवादी शक्तियों से हार भी नहीं मानती है। लेकिन साथ में इसका नकारात्मक सबक यह भी है कि आज साम्राज्यवादी हमले और कब्ज़े को उखाड़ फेंकने और उसे हरा देने की ताकत मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शक्तियों के नेतृत्व में ही हो सकता है।

गाज़ा में इज़रायल की हार

गाजा में टनों गोला-बारूद, मिसाइलें और टैंकों की अपनी पूरी ताकत खर्च कर चुकने के बावजूद इजरायल अपने मकसद में नाकामयाब रहा। उसने जिस मकसद से हमले किये थे वह तो कत्तई हासिल हुआ नहीं उल्टे दुनिया-भर में थू-थू करवाने के बाद मुँह पिटा कर वापस लौटने पर मजबूर होना पड़ा। अन्तरराष्ट्रीय विश्लेषकों का मानना है कि इन हमलों से इजरायल राजनीतिक, कूटनीतिक और सैन्य तरीके से नुकसान ही हुआ है। एक जर्मन दैनिक “स्‍युड़यूश” ने शीर्षक दिया – ‘ओल्मर्ट की कथित जीत, हार है।’

गाज़ा पट्टी में बर्बर इज़रायली हमला

पूरा साम्राज्यवादी मीडिया इज़रायल के इस नंगे झूठ का भोंपू बना हुआ है कि उसने यह हमला “आत्मरक्षा” के लिए किया है। फ़िलिस्तीनी संगठन हमास द्वारा इज़रायल में दागे जाने वाले रॉकेटों से ख़ुद को बचाने के लिए ही उसे मजबूरन दुधमुँहे बच्चों, बूढ़ी औरतों और अस्पतालों में भरती मरीजों की जान लेनी पड़ रही है। हमारे देश का मीडिया भी इसी सुर में सुर मिला रहा है या फिर इस भयानक हत्याकाण्ड को मामूली-सी खबर के तौर पर पेश कर रहा है। आतंकवाद के नाम पर दिनों-रात युद्धोन्माद और अन्धराष्ट्रवादी भावनाएँ भड़काने में लगे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को इज़रायल का यह सरकारी आतंकवाद नज़र नहीं आ रहा है।

द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर को दरअसल किसने हराया?

जब 1941 में नाजियों ने सोवियत संघ पर आक्रमण किया तो पूँजीवादी जगत ने घोषणा कर दी कि साम्यवाद मर गया। लेकिन उन्होंने सोवियत समाजवाद की ताकत और अपने समाज की रक्षा करने वाले सोवियत जनगण की अकूत इच्छाशक्ति को कम करके आँका। स्तालिनग्राद के कंकड़-पत्थरों में आप इस सच्चाई का दर्शन कर सकते हैं कि जनगण हथियारों के जखीरे से लैस और तकनीकी रूप से उन्नत पूँजीवादी शत्रु को कैसे परास्त कर सकते हैं।

द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर को दरअसल किसने हराया? (तीसरी किस्‍त)

यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि युद्ध में महिलाएं हर जगह पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ीं…। मोर्चे पर दौरा करने वाला कोई भी यह देख सकता था कि महिलाएं तोपरोधी इकाइयों में बन्दूकचियों का काम कर रही थीं, जर्मन हवाबाजों के विरुद्ध लड़ाई में विमानचालकों का काम कर रही थीं, हथियारबन्द नावों के कैप्टन के रूप में, वोल्गा जहाजी बेड़ों में काम करती हुईं, उदाहरण के तौर पर, नदी के बायें तट से दायें तट पर सामान नावों में लादकर आने-जाने को काम बेहद कठिन दशाओं में कर रहीं थीं।

द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर को दरअसल किसने हराया? (दूसरी किस्‍त)

लेकिन जब जान की बाजी लगाकर स्तालिनग्राद को बचाये रखने के लिए लड़ाई करने के आदेश आये, तब तो जनसमुदायों को तेजी से समझ में आने लगा कि उनके कन्धों पर एक ऐतिहासिक दायित्व आ पड़ा था। लोगों के दिलों में एक अटूट एकता और दृढ़निश्चय की भावना भर उठी। उनका गर्वीला नारा गूँज उठा: ‘‘स्तालिनग्राद हिटलर की कब्र बनेगा!’’

द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर को दरअसल किसने हराया? (पहली किस्‍त)

दुनिया का पूँजीवादी मीडिया एक ओर नये-नये मनगढ़न्त किस्सों का प्रचार कर मज़दूर वर्ग के महान नेताओं के चरित्र हनन में जुटा रहता है वहीं दूसरी ओर नये-नये झूठ गढ़कर उसके महान संघर्षों के इतिहास की सच्चाइयों को भी उसके नीचे दबा देने की कवायदें भी जारी रहती हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बारे में भी तरह-तरह के झूठ का प्रचार लगातार जारी रहता है। इतिहास की किताबों में भी यह सच्चाई नहीं उभर पाती कि मानवता के दुश्मन, नाजीवादी जल्लाद हिटलर को दरअसल किसने हराया?