Category Archives: साम्राज्‍यवाद

मोदी सरकार के “ऑपरेशन मैत्री” की असलियत और नेपाल त्रासदी में पूँजीवादी मीडिया की घृणित भूमिका

नेपाल त्रासदी के सन्दर्भ में मीडियाकर्मियों ने जिस क़दर संवेदनहीनता का परिचय दिया है, उसने पीड़ित नेपाली जनता के जले पर नमक छिड़कने का काम किया है। ज़रा मीडियाकर्मियों के सवालों को देखिये। एक महिला जिसका बेटा मलबे के नीचे दबकर मर गया था उससे मीडियाकर्मी पूछता है कि “आपको कैसा लग रहा है?” पूरी नेपाल त्रासदी को मीडिया ने सनसनीखेज़ धारावाहिक की तरह पेश किया है।

इस्लामिक राजतंत्र और अमेरिकी साम्राज्यवाद के गँठजोड़ ने रचा एक और देश में मौत का तांडव

मार्च के अन्तिम सप्ताह में सऊदी अरब ने अपने दक्षिण-पश्चिम स्थित पड़ोसी मुल्क यमन पर हवाई हमले शुरू कर दिये। इस लेख के लिखे जाने तक सऊदी हमले में 200 बच्चों सहित 1000 से भी ज़्यादा मौतें हो चुकी हैं जिनमें अधिकांश यमन के नागरिक हैं। इस हमले में अमेरिका एवं ‘गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल’ के अरब मुल्क़ सऊदी अरब का साथ दे रहे हैं। अरब जगत के सबसे ग़रीब मुल्क़ की आम जनता के लिए यह हमला बेइन्तहा तबाही और बर्बादी का मंज़र लेकर आया है। पूरे यमन में खाद्य पदार्थों एवं दवा जैसी बुनियादी ज़रूरतों की अनुपलब्धता का भी संकट मंडराने लगा है।

अमेरिका व भारत की “मित्रता” के असल मायने

इस समय पूरी दुनिया में आर्थिक संकट के काले बादल छाये हुए हैं जो दिन-ब-दिन सघन से सघन होते जा रहे हैं। दुनिया की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ, अमेरिका और भारत भी इस संकट में बुरी तरह घिरी हुई हैं। आर्थिक संकट से निकलने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवाद को अपनी दैत्याकार पूँजी के लिए बड़े बाज़ारों की ज़रूरत है। इस मामले में भारत उसके लिए बेहद महत्वपूर्ण है। अमेरिकी पूँजीपति भारत में अधिक से अधिक पैर पसारना चाहते हैं ताकि आर्थिक मन्दी के चलते घुटती जा रही साँस से कुछ राहत मिले। इधर भारतीय पूँजीवाद को आर्थिक संकट से निपटने के लिए बड़े पैमाने पर विदेशी पूँजी निवेश की ज़रूरत है। विदेशों से व्यापार के लिए इसे डॉलरों की ज़रूरत है। भारत में पूँजीवाद के तेज़ विकास के लिए भारतीय हुक्मरान आधारभूत ढाँचे के निर्माण में तेज़ी लाना चाहते हैं। भारतीय पूँजीपति वर्ग यहाँ उन्नत तकनोलॉजी, ऐशो-आराम का साजो-सामान आदि और बड़े स्तर पर चाहता है। इस सबके लिए इसे भारत में विदेशी पूँजी निवेश की ज़रूरत है। मोदी सरकार ने लम्बे समय से लटके हुए परमाणु समझौते को अंजाम तक पहुँचाने का दावा किया है। जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार यह समझौता कर रही थी तो भाजपा ने इसके विरोध का ड्रामा किया था और कहा था कि उसकी सरकार आने पर यह समझौता रद्द कर दिया जायेगा। जैसीकि उम्मीद थी, अमेरिका से परमाणु समझौता पूरा कर लेने का दावा करके भाजपा ने अपना थूका चाट लिया है।

अमेरिकी सत्ताधारियों के पापों का बोझ ढोते सैनिक

पूरे विश्व में मनुष्य को संवेदनहीन, बेरहम बनाने का काम बचपन से ही शुरू हो जाता है। टीवी, मीडिया, किताबें, पत्रिकाओं और फ़िल्मों आदि के द्वारा बेरहम हिंसा की खुराकें देकर शुरू से ही मानव को पशु बनाने की कोशिशें की जाती हैं। फ़िल्में, ख़ासकर हॉलीवुड की फ़िल्मों में हिंसा इतने बड़े स्तर पर और इतने घृणित रूप में पेश की जाती है कि दर्शक धीरे-धीरे उस हिंसा का आदी हो जाता है। अक्सर नायक लोगों को इस तरह मारता है जैसे सलाद काटा जा रहा हो और लोगों को इसमें कुछ भी बुरा नहीं लगता, बल्कि ख़ुशी ही होती है। इस तरह लोगों को यह सिखाने की कोशिश की जाती है कि एक मनुष्य का मारा जाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं। फिल्में तो सिर्फ़ एक उदाहरण हैं, यह हमला मानवता के दुश्मनों की तरफ़ से अनन्त रूपों में किया जाता है। इससे सम्बन्धित इतिहास की एक घटना याद आती है – साण्डर्स के क़त्ल के बाद में जब बाक़ी साथी राजगुरू के निशाने की तारीफ़ कर रहे थे तो उसका कहना था कि वह भी किसी माँ का पुत्र था। इसी तरह भगतसिंह ने साण्डर्स को मारने के बाद बाँटे गये परचे में कहा कि “हमें एक मनुष्य के मारे जाने का अफ़सोस है।” जबकि आजकल परोसी जाती हिंसा की धुन्ध में लोगों को इस हद तक असंवेदनशील बनाने की कोशिश की जाती है कि उनके लिए इज़रायल की तरफ़ से फ़िलिस्तीन में बच्चों समेत हज़ारों लोगों के किये हत्याकाण्ड की ख़बर अख़बार के बीच की बाक़ी ख़बरों से बहुत अलग नहीं होती, उनको यह बात झँझोड़ती नहीं, कोई नफ़रत नहीं जगाती। हिंसा का यह पाठ सिर्फ़ क़त्ल करने के लिए तैयार किये जा रहे सैनिकों के लिए ही नहीं होता, बल्कि उतना ही आम लोगों के लिए भी होता है।

जॉयनवादी इज़रायली हत्यारों के संग मोदी सरकार की गलबहियाँ

हालाँकि पिछले दो दशकों में सभी पार्टियों की सरकारों ने इज़रायली नरभक्षियों द्वारा मानवता के खि़लाफ़ अपराध को नज़रअन्दाज़ करते हुए उनके आगे दोस्ती का हाथ बढ़ाया है, लेकिन हिन्दुत्ववादी भाजपा की सरकार का इन जॉयनवादी अपराधियों से कुछ विशेष ही भाईचारा देखने में आता है। अटलबिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान भी भारत और इज़रायल के सम्बन्धों में ज़बरदस्त उछाल आया था और अब नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद एक बार फिर इस प्रगाढ़ता को आसानी से देखा जा सकता है। नरेन्द्र मोदी और बेंजामिन नेतन्याहू दोनों के ख़ूनी रिकॉर्ड को देखते हुए ऐसा लगता है, मानो ये दोनों एक-दूसरे के नैसर्गिक जोड़ीदार हैं। इस जोड़ी की गर्मजोशी भरी मुलाक़ात सितम्बर में संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेम्बली की बैठक के दौरान न्यूयॉर्क में हुई जिसमें नेतन्याहू ने मोदी को जल्द से जल्द इज़रायल आने का न्योता दिया जिसे मोदी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। नेतन्याहू ने यह भी बयान दिया कि “हम भारत से मज़बूत रिश्ते की सम्भावनाओं को लेकर रोमांचित हैं और इसकी सीमा आकाश है।” इज़रायली मीडिया ने नेतन्याहू-मोदी की इस मुलाक़ात को प्रमुखता से जगह दी।

माइकल ब्राउन हत्याकाण्ड: एक शोकगीत जिसका अन्त निश्चित है

अमेरिकी पुलिस द्वारा इतने बड़े पैमाने पर अश्वेत आबादी की नृशंस हत्या को अंजाम दिए जाने का एक कारण तो श्वेत आबादी के दिलों में बरसों से अश्वेतों के प्रति पैठी गहरी घृणा भावना है। दूसरा, अमेरिका में अश्वेत आबादी के सामाजिक-आर्थिक हालात ने उनके बीच जिस असुरक्षा की भावना को बढ़ावा दिया है उससे उनके दिलों में असंतोष की चिंगारी सुलग रही है। इस असंतोष की बारीक से बारीक अभिव्यक्ति को अमेरिकी शासकों द्वारा बन्दूक की नोक से शांत किया जाता रहा है। अगर अकेले फ़र्ग्यूसन शहर की बात करें तो 21,000 की आबादी वाले इस शहर में 67 प्रतिशत अश्वेत आबादी रहती है। इनमें बेरोज़गारी की दर 13 प्रतिशत है और यहाँ हर चार में से एक अश्वेत ग़रीब है।

इस्लामिक स्टेट (आईएस): अमेरिकी साम्राज्यवाद का नया भस्मासुर

बुर्जुआ मीडिया हमें यह नहीं बता रहा है कि अभी कुछ महीनों पहले तक आईएसआईएस के जेहादी लड़ाके अमेरिकी, ब्रिटिश, फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों एवं अरब जगत में उनके टट्टुओं जैसे सउदी अरब, कतर और कुवैत की शह पर सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद का तख़्तापलट करने के लिए वहाँ जारी गृहयुद्ध में भाग ले रहे थे। उस समय साम्राज्यवादियों की नज़र में वे “अच्छे” जिहादी थे क्योंकि वे उनके हितों के अनुकूल काम कर रहे थे। लेकिन अब जब वे उनके हाथों से निकलते दिख रहे हैं तो वे बुरे जिहादी हो गये हैं और उन पर नकेल कसने की क़वायदें शुरू हो गयी हैं। दरअसल इस्लामिक स्टेट अल-क़ायदा और तालिबान की तर्ज़ पर अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा पैदा किया गया और पाला-पोसा गया नया भस्मासुर है जो अब अपने आका को ही शिकार बनाने लगा है।

ब्रिटिश सैनिकों की अन्धकार भरी ज़िन्दगी की एक झलक

यह दर्दनाक घटनाक्रम सिर्फ एक ब्रिटिश सैनिक के हालात नहीं बताता बल्कि ब्रिटिश सेना के मौजूदा और पूर्व सैनिकों की एक बड़ी संख्या की हालत को बताता है। युवाओं को एक अच्छे, देशभक्तिपूर्ण, बहादुरी और शान वाले रोज़गार का लालच देकर ब्रिटिश सेना में भर्ती किया जाता है। सर्वोत्तम बनो, दूसरो से ऊपर उठो जैसे लुभावने नारों के जरिए युवाओं का ध्यान सेना की तरफ खींचा जाता है। दिल लुभाने वाले बैनरों, पोस्टरों, तस्वीरों के जरि‍ए ब्रिटिश सेना की एक गौरवशाली तस्वीर पेश की जाती है। लेकिन ब्रिटिश सेना की जो लुभावनी तस्वीर पेश की जाती है उसके पीछे एक बेहद भद्दी (असली) तस्वीर मौजूद है। वियतनाम युद्ध के बाद सैनिकों के हालात को लेकर ब्रिटिश सेना के सर्वेक्षण शुरू हुए थे। अक्तूबर 2013 में ब्रिटिश सेना के बारे में ‘फोर्सस वाच संस्था’ ने ‘दी लास्ट ऐम्बुश’ नाम की एक रिपोर्ट जारी की। यह रिपोर्ट डेढ सौ स्रोतों से जानकारी जुटा कर तैयार की गई। इन स्रोतों में ब्रिटिश सेना की तरफ से जारी की गई 41 रिर्पोटें और पूर्व सैनिकों के साथ बातचीत भी शामिल है। फोर्सेस वाच का खुद का कहना है कि सेना के नियंत्रण में होने वाले सर्वेक्षण में पूरी सच्चाई बाहर नहीं आती। लेकिन इनके अधार पर तैयार की गई रिपोर्ट ब्रिटिश सैनिकों की अँधेरी ज़िन्दगी की तस्वीर के एक हिस्से को तो उजागर करती है।

इज़रायली बर्बरता की कहानी – एक डाक्टर की ज़ुबानी

डा. गिल्बर्ट का फिलिस्तीनी लोगों के मुक्ति-संघर्ष से पुराना नाता रहा है। वे 1970 से फिलिस्तीन तथा लेबनान में काम रहे हैं। वे ऐसे डाक्टर हैं जिनके लिए मानवता की सेवा तथा ज़ुल्म के ख़िलाफ़ संघर्षरत लोगों के साथ होकर लड़ने में मेडिकल विज्ञान की सार्थकता है, जिनके लिए मेडिकल विज्ञान जरूरत से ज़्यादा खाने और कोई काम न करने वाले परजीवियों के मोटापे को कम करने का विज्ञान नहीं है, जिनके लिए मेडिकल विज्ञान का ज्ञान पूँजीपतियों के खोले पांच-सितारा अस्पतालों में बेचने की चीज नहीं है और जिनके मेडिकल विज्ञान का ज्ञान समूची मानवता की धरोहर है न कि मुठ्ठीभर अमीरों के घर की रखैल। वे आज के समय में डा. नार्मन बेथ्यून, डा. कोटनिस, डा. जोशुआ हॉर्न जैसे डाक्टरों की परम्परा को बनाए हुए हैं जिन्होंने वक्त आने पर लोगों का पक्ष चुना था। वे और उनके साथ काम करने अन्य कई डाक्टर तथा कर्मी इस बात का उदाहरण हैं कि आज भी ऐसे डाक्टर मौजूद हैं, भले ही अभी इनकी संख्या कम हो, जो बड़े-बड़े पैकेजों, आरामदायक जीवन को छोड़कर आम लोगों और उनके सुख-दुःख से अपने जीवन को लेते हैं और इस लिए सही मायने में डाक्टर कहलवाने के योग्य हैं।

मोदी सरकार ने गाज़ा नरसंहार पर संसद में चर्चा कराने से इंकार किया

किसी भी देश की विदेश नीति हमेशा उसकी आर्थिक नीतियों के ही अनुरूप होती है। पश्चिमी साम्राज्यवादी पूँजी के लिए पलक पाँवड़े बिछाने वाली धार्मिक कट्टरपन्थी फासिस्टों की सरकार से यही अपेक्षा थी कि वे ज़ियनवादी हत्यारों का साथ दें। उन्होंने अपना पक्ष चुन लिया है और हमने भी। जो इंसाफ़पसन्द नागरिक अबतक चुप हैं, वे सोचें कि आने वाली नस्लों को, इतिहास को और अपने ज़मीर को वे क्या जवाब देंगे।