Category Archives: साम्राज्‍यवाद

अमेरिका है दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी!

अमेरिकी साम्राज्यवादी पूरी दुनिया के पैमाने पर आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का दावा करते हैं। सच्चाई यह है कि स्वयं अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी देश है। आज जिन इस्लामी कट्टरपन्थियों से लड़ने के नाम पर इराक़, अफगानिस्तान और दुनिया के कई देशों में अमेरिका बमबारी, नरसंहार और सैनिक कब्ज़ों, का सिलसिला जारी रखे हुए है, वे उसी के पैदा हुए भस्मासुर हैं। अमेरिका आतंकवाद के नाम पर दुनिया की जनता के विरुद्ध युद्ध छेड़े हुए है। वह अपने साम्राज्यवादी वर्चस्व के लिए युद्ध और आतंक का क़हर बरपा कर रहा है। अमेरिकी सत्ताधारियों के चुनिन्दा ऐतिहासिक अपराधों की एक सूची इस लेख में दी जा रही है।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की नीतियाँ और जनता का प्रतिरोध

इन नीतियों की घोषणा दर्शाती है कि अमेरिकी जनता के लिए आने वाले दिन आसान नहीं होने जा रहे हैं। यह बात ट्रम्प पर भी लागू होती है। 45 प्रतिशत अमेरिकी जनता जिसका मोहभंग इस व्यवस्था से है और बाक़ी बची जनता इन नीतियों का समर्थन पूर्ण रूप से करेगी, ऐसा लगता नहीं है। इतनी घोर ग़ैरजनवादी, मुसलमान विरोधी, नस्लविरोधी और आप्रवासन विरोधी नीतियों को समर्थन मिलने की जो उम्मीद ट्रम्प को है, वैसा होने नहीं जा रहा है और यह अमेरिका की सड़कों पर दिख भी रहा है।

साम्राज्यी युद्धों की भेंट चढ़ता बचपन

इन मुल्कों में युद्ध के लिए साम्राज्यवादी मुल्क ही ज़िम्मेवार हैं जो प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा करके मुनाफा कमाने की दौड़ में बेकसूर और मासूम बच्चों को मारने से भी नहीं झिझकते। युद्ध के उजाड़े गए इन लोगों को धरती के किसी टुकड़े पर शरण भी नहीं मिल रही और यूरोप भर की सरकारें इनको अपने-अपने मुल्कों में भी शरण देने को तैयार नहीं है।

अमेरिका : बच्चों में बढ़ती ग़रीबी-दर

अमेरिका के 4 करोड़ 65 लाख बच्चे भोजन की अपनी ज़रूरतों के लिए अमेरिकी सरकार द्वारा चलाए जाने वाले अनाज सहायता योजना, स्नैप (सप्लीमेंट न्यूट्रिशन असिस्टेंस प्रोग्राम) पर निर्भर हैं। इस योजना का ख़र्च सरकार उठाती है, मगर आर्थिंक संकट के चलते अब अमेरिकी सरकार इन फंडों में लगातार कटौती करती जा रही है। 2016 में ही सरकार द्वारा इस राशि में की गयी कटौती से 10 लाख लोग प्रभावित हुए हैं।

‘बीडीएस इंडिया कन्वेंशन’ में इज़रायल के पूर्ण बहिष्कार का आह्वान

फ़ि‍लिस्‍तीन के विरुद्ध इज़रायल की नस्लभेदी नीतियों और लगातार जारी जनसंहारी मुहिम के विरोध में नई दिल्ली के गांधी शान्ति प्रतिष्‍ठान में आयोजित ‘बीडीएस इंडिया कन्वेंशन’ में इज़रायल के पूर्ण बहिष्कार का आह्वान किया गया। ‘फ़ि‍लिस्‍तीन के साथ एकजुट भारतीय जन’ की ओर से आयोजित बीडीएस यानी बहिष्कार, विनिवेश, प्रतिबंध कन्वेंशन में देश के विभिन्न भागों से आये बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं ने सर्वसम्मति से तीन प्रस्ताव पारित किये जिनमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रस्तावित इज़रायल यात्रा रद्द करने और इज़रायल के साथ सभी समझौते-सहकार निरस्त करने, इज़रायली कंपनियों और उत्पादों का बहिष्कार करने तथा इज़रायल का अकादमिक एवं सांस्कृतिक बहिष्कार करने की अपील की गयी। इस सवाल को लेकर आम जनता में व्यापक अभियान चलाने का भी निर्णय लिया गया। कन्वेंशन के दौरान यह आम राय उभरी कि ज़ायनवाद के विरुद्ध प्रचार उनके वैचारिक ‘पार्टनर’ हिन्दुत्ववादी फासिस्टों का भी पर्दाफ़ाश किये बिना प्रभावी ढंग से नहीं चलाया जा सकता। आम लोगों के बीच जाकर उन्हें यह समझाना होगा कि गाज़ा के हत्यारों और गुजरात के हत्यारों की बढ़ती नज़दीकी का राज़ यही है कि दोनों मानवता के दुश्मन हैं।

महीनों से आर्थिक नाकाबन्दी की मार झेलते नेपाल के लोग

इस नाकेबन्दी के कारण नेपाल में ज़रूरी वस्तुओं की भारी किल्लत हो गयी है। हालात इतने गम्भीर हो चुके हैं कि यूनिसेफ़ को घोषणा करनी पड़ी है कि यदि आने वाले महीनों में इसका कोई हल न निकाला गया तो पाँच साल से कम उम्र के 30 लाख बच्चे मौत या फिर भयंकर बीमारी के दहाने में पहुँच जायेंगे।

जलवायु संकट पर आयोजित पेरिस सम्मेलन : फिर खोखली बातें और दावे

यह सच है कि कार्बन उत्सर्जन नहीं घटाया गया तो दुनिया ऐसे संकट में फँस जायेगी जहाँ से पीछे लौटना सम्भव न होगा। इसका नतीजा दिखायी भी पड़ने लगा है मौसम में तेज़ी के साथ उतार-चढ़ाव हो रहे हैं। जलवायु में असाधारण बदलाव दिखने लगा है। तमिलनाडू जैसे कम पानीवाले और सूखे की मार से त्रस्त इलाक़े में पिछले दिनों बाढ़ ने कितना क़हर ढाया था, इससे हम सभी वाकिफ़ हैं। उत्तराखण्ड, जम्मू-कश्मीर की बाढ़, आन्ध्र प्रदेश में चक्रवात जैसे उदाहरण भारत में ही नहीं बल्कि दुनियाभर में देखे जा सकते हैं। अमेरिका, जापान, चीन से लेकर अन्य देशों में भी प्राकृतिक आपदाओं का सिलसिला बढ़ गया है। ग्लेशियर पिघलकर संकट की स्थिति पैदा कर सकते हैं। इससे कई देशों के सामने वजूद का संकट पैदा हो सकता है। आज अण्टार्कटिका की मोटी बर्फीली परत के टूटने का ख़तरा पैदा हो गया है। यह संकट लोगों को अपनी जगह-ज़मीन से उजाड़ देगा और लोग दर-दर भटकने के लिए मजबूर हो जायेंगे। ऐसी भयावहता को जलवायु संकट पर सम्मेलनों के नाम से होनेवाली नौटंकियाँ नहीं रोक सकतीं। जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरणीय मसला नहीं, यह सामाजिक और पारिस्थितिकीय संकट है। यह पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली का संकट है जहाँ मुनाफ़े को किसी भी क़ीमत पर कम नहीं किया जा सकता। फ़्रीज जैसे उपभोक्ता सामानों के अलावा कार्बन उत्सर्जन के लिए सबसे अधिक परिवहन तन्त्र ज़िम्मेदार होता है उसका प्रयोग राष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हो अथवा जल, हवा या ज़मीन पर हो लेकिन बाज़ार और मुनाफ़े की मौजूदा व्यवस्था से संचालित कोई भी देश इसमें कमी लाने या वैकल्पिक परिवहन तन्त्र मुहैया कराने का इरादा तक ज़ाहिर नहीं कर सकता। बी.पी., शेवरॉन, एक्सान मोबिल, शेल, सउदी अरामको और ईरानी तेल कम्पनी जैसी खनन और सीमेण्ट उत्पादन में लगी कम्पनियाँ जो जलवायु संस्थान के अध्ययन के मुताबिक़ 2/3 हिस्सा ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन कर रही हैं, अभी भी चालू स्थिति में हैं, न इन्हें बन्द किया जा सकता है और न ही मुनाफ़े को ख़तरे में डालते हुए इनमें उत्पादन के सुरक्षित तरीक़े अपनाये जा सकते हैं। यह केवल मनुष्य की बुनियादी ज़रूरतों को केन्द्र में रखनेवाली समाजवादी उत्पादन प्रणाली के ज़रिये ही सम्भव है।

दक्षिण चीन सागर की घटनाएँ और साम्राज्यवादी ताक़तों के बीच बढ़ता तनाव

अमेरिका के खिलाफ चीन को रूस में एक स्वाभाविक सहयोगी भी मिल गया है | यह दोनों मुल्क अब यह कोशिश कर रहे हैं कि विश्व में अमेरिका की आर्थिक ताकत के प्रभाव का कोई विकल्प पेश किया जाये | इसीलिए यह अपना खुद का कारोबार भी अमेरिकी डॉलर को छोड़ खुद की मुद्राओं में करने लगे हैं | इनकी अगुवाई में ब्रिक्स का बनना भी अमेरिकी अगुवाई वाले जी-7 जैसे गुटों को एक चुनौती ही थी | वहीं, एशिया में अपनी स्थिति को और मजबूत करने के लिए चीन ने 2014 में ‘एशिया अवसंरचनात्मक निवेश बैंक’ की स्थापना की | चीन के बढ़ते इन क़दमों से अमेरिका के कान खड़े होना स्वाभाविक ही था | वहीं, यह भी परेशानी का एक सबब था कि यूरोप में अमेरिका के अब तक सहयोगी रहे ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी जैसे देश भी, इस आर्थिक संकट के चलते चीन के प्रति नरमी दिखाने लगे थे और उन्होंने भी इस बैंक की सदस्य्ता लेने का ऐलान कर दिया | संकट में बुरी तरह फंसे इन देशों की कंपनियों के लिए चीन एक बड़ी मंडी है और चीन खुद भी यूरोप में एक बड़ा निवेशक है | सो यह स्वाभाविक ही था कि यह देश चीन के प्रति नरमी दिखाते | चीन के राष्ट्रपति ज़ाई जिनपिंग के पिछले महीने इंग्लैण्ड दौरे के दौरान उनका जमकर स्वागत हुआ और इंग्लैण्ड और चीन के दरमियान बड़े समझौतों पर दस्तखत हुए। उसके तुरंत बाद जर्मनी और फ़्रांस के राजनेताओं ने भी अपने-अपने देश के पूँजीपतियों के बड़े काफिलों सहत चीन का दौरा किया और चीन-यूरोप के बढ़ते संबंधों को और पक्का किया |

मोदी सरकार द्वारा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को छूटें – उधारी साँसों पर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को जीवित रखने के नीम-हकीमी नुस्खे

कांग्रेस के नेतृत्व वाली पिछली केंद्र सरकार द्वारा जब प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को छूटें दी जा रहीं थी तब भाजपा और इसकी सहयोगी पार्टियों ने बड़े विरोध का दिखावा किया था। भाजपा कह रही थी कि कांग्रेस सरकार देश को विदेशी हाथों में बेच रही है। गिरगिट की तरह रंग बदलते हुए केंद्र में सरकार बनने के फौरन बाद भाजपा ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सम्बन्धित बहुत सी छूटें देने का ऐलान किया था। बीमा क्षेत्र में 49 प्रतिशत, रक्षा क्षेत्र में भी 49 प्रतिशत और रेल परियोजनाओं में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाकर 100 प्रतिशत कर दी गयी। विदेशी पूँजीपतियों को बुलावा देने के लिए नरेन्द्र मोदी दुनियाभर में दौरे-पर-दौरे किये जा रहे हैं। विदेशी कम्‍पनियों को आकर देश के संसाधनों और यहाँ के लोगों की मेहनत को लूटने के लिए तरह-तरह की रियायतों और छूटों के लालच दिये जा रहे हैं।

अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा का अखाड़ा बना सीरिया

2016 में डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्‍ट्रपति पद की प्रमुख उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन और रिपब्लिकन पार्टी के ज़्यादातर नेता सीरिया के ऊपर “उड़ान प्रतिबंधित क्षेत्र” बनाने की तजवीज कर रहे हैं। लेकिन अमेरिकी सरकार के ज़्यादा सूझबूझ वाले राजनीतिज्ञ समझते हैं कि ऐसा करना ख़ुद अमेरिका के लिए घातक होगा क्योंकि “उड़ान प्रतिबंधित क्षेत्र” बनाने का मतलब होगा उन रूसी जहाज़ों को भी निशाना बनाना जो इस समय सीरिया में तैनात हैं, यानी रूस के साथ सीधे युद्ध में उलझना। लेकिन इस समय अमेरिका यह नहीं चाहता। फ़िलहाल वह सीरिया के तथाकथित ‘सेकुलर’ बागियों को मदद पहुँचाने तक ही सीमित रहना चाहता है। आर्थिक संकट की वजह से अमेरिका की राजनीतिक ताकत पर भी असर पड़ा है। इसलिए भी वह रूस के साथ सीधी टक्कर फ़िलहाल नहीं चाहता। अमेरिका की गिरती राजनीतिक ताकत का प्रत्यक्ष संकेत सयुंक्त राष्ट्र संघ की महासभा में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का भाषण था। ओबामा ने अपने पहले भाषण में रूस की ओर से आई.एस.आई.एस के अलावा तथाकथित “सेकुलर” बागियों को भी मारने के लिए उसकी ज़ोरदार निंदा की। पुतिन ने भी जब अपनी बारी में सीरिया मामले पर अमेरिका की नीति की आलोचना की तो ओबामा ने अपने दूसरे भाषण में रुख बदलते हुए रूस के साथ बातचीत के लिए तैयार होने की बात कही। ओबामा ने कहा कि सीरिया के साथ किसी भी समझौते की शर्त राष्‍ट्रपति बशर अल-असद का अपने पद से हटना है लेकिन वह तब तक राष्‍ट्रपति बना रह सकता है जब तक कि इस मसले का कोई समाधान नहीं निकल आता। साथ ही ओबामा ने यह भी कहा कि नयी बनने वाली सरकार में मौजूदा बाथ पार्टी के नुमाइंदे भी शामिल हो सकते हैं। सीरिया से किसी भी तरह का समझौता नहीं करने की पोजीशन से लेकर अब उसके नुमाइंदों को नयी सरकार में मौका देने की बात करना साफ़ तौर पर अमेरिका की गिरती साख को दर्शा रहा है।