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धर्म के बाज़ार में एक और नया पाखण्डी – धीरेन्द्र शास्त्री

पूँजीवादी समाज में धर्म एक धन्धा और व्यापार ही होता है। जब यह बुर्जुआ राजनीति के साथ मिलता है तो प्रतिक्रियावाद के सबसे घिनौने रूपों को जन्म देता है। आज पूँजीवादी राज्यसत्ता अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए धार्मिक कुरीति, अन्धविश्वास और “चमत्कारी बाबाओं” को बढ़ावा दे रही है ताकि पूँजीवादी व्यवस्था के तमाम “तोहफ़ों” जैसे सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा, बेरोज़गारी, महँगाई, भुखमरी, ग़रीबी को ‘किस्मत का लेखा’, ‘रेखाओं का खेल’, ‘पूर्वजन्म के पाप’ आदि के रूप में प्रस्तुत किया जा सके और जनता को ‘जाहि बिधी रखे राम ताहि बिधी रहना’ पर भरोसा रखकर हर अन्याय और शोषण-उत्पीड़न को स्वीकार करने और ‘सन्तोषम् परम सुखम’ की नसीहत मानने के लिए राज़ी किया जा सके।

लगातार होती छँटनी और गहराता आर्थिक संकट

एक तरफ़ देश के पूँजीपतियों की दौलत अनन्त गति से बढ़ रही है वहीं दूसरी तरफ़ जनता छँटनी और बेरोज़गारी के रसातल में धँसती चली जा रही है। 2008 की विश्वव्यापी मन्दी से उबरने के लिए पूँजीवादी नीम हकीमों और हुक्मरानों ने जो उपाय दिये थे उसी के गर्भ में आनेवाले समय के भीषण संकट का बुलबुला पल रहा था। आज यह बुलबुला बड़ा होकर अपनी सन्तृप्ति तक पहुँच चुका है और यह अब फूटने के कगार पर खड़ा है। दुनियाभर की तमाम बड़ी कम्पनियों ने बड़े पैमाने पर छँटनी का ऐलान किया है।