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गोरखपुर के मज़दूरों के समर्थन में कोलकाता में सैकड़ों मज़दूरों का प्रदर्शन

27 मई 2011 को श्रमिक संग्राम समिति के बैनर तले कलकत्ता इलेक्ट्रिक सप्लाई कारपोरेशन, हिन्दुस्तान इंजीनियरिंग एण्ड इण्डस्ट्रीज़ लि. (तिलजला प्लाण्ट), भारत बैटरी, कलकत्ता जूट मिल, सूरा जूट मिल, अमेरिकन रेफ़्रिजरेटर कम्पनी सहित विभिन्न कारख़ानों के तक़रीबन 500 मज़दूरों ने कोलकाता के प्रशासनिक केन्द्र एस्प्लेनेड में विरोध सभा आयोजित की। सभा को सम्बोधित करने वाले अधिकतर वक्ता मज़दूर थे जो अपने-अपने कारख़ानों में संघर्षों का नेतृत्व कर रहे हैं। वक्ताओं ने प्रबन्‍धन, गुण्डों, पुलिस-प्रशासन एवं दलितों की मसीहा कही जाने वाली मायावती के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा मज़दूरों पर किये गये बर्बर कृत्यों की कठोर शब्दों में निन्दा की और उनके ख़िलाफ मज़दूरों के प्रतिरोध को अपना समर्थन जताया।

आपने ठीक फ़रमाया मुख्यमन्त्री महोदय, बाल मजदूरी को आप नहीं रोक सकते!

बंगाल के ”संवेदनशील” मुख्यमन्त्री बुध्ददेव भट्टाचार्य बाल श्रम पर रोक लगाने के पक्षधर नहीं हैं! जहाँ 14 वर्ष की आयु से कम के बच्चों को मजदूरी कराये जाने को लेकर दुनियाभर में हो-हल्ला (दिखावे के लिए ही सही!) मचाया जा रहा हो, वहीं मजदूरों के पैरोकार का खोल ओढ़े भट्टाचार्य जी मजदूरों की एक सभा में कहते हैं कि वे बच्चों को मजदूरी करने से इसलिए नहीं रोक सकते, क्योंकि अपने परिवारों में आमदनी बढ़ाने में वे मददगार होते हैं और इसलिए भी ताकि वे काम करते हुए पढ़ाई भी कर सकें। मजदूरों के बच्चों को श्रम का पाठ पढ़ाने वाले बुध्ददेव भट्टाचार्य को संशोधनवादी वामपन्थी माकपा के अध्‍ययन चक्रों और शिविरों में मार्क्‍सवादी अर्थशास्त्र के सिध्दान्त का लगाया घोंटा थोड़ा बहुत याद तो होगा ही। जाहिरा तौर पर उन्हें इस बात की जानकारी है कि मुनाफे पर टिकी इस आदमख़ोर व्यवस्था में बाल श्रम को ख़तम ही नहीं किया जा सकता। पूँजीवाद की जिन्दगी की शर्त ही यही है कि वह सस्ते से सस्ता श्रम निचोड़ता रहे और उसे मुनाफे में ढालता जाये। आज भूमण्डलीकरण और वैश्विक मन्दी के दौर में तो मुनाफे की दर लगातार नीचे जा रही है और मुनाफे की दर को कायम रखने के लिए आदमख़ोर पूँजी एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के पिछड़े पूँजीवादी देशों में सस्ते श्रम की तलाश में अपनी पहुँच को और गहरा बना रही है और वहाँ भी ख़ासतौर पर स्त्रियों और बच्चों का शोषण सबसे भयंकर तरीके से कर रही है क्योंकि उनका श्रम इन देशों में मौजूद सस्ते श्रम में भी सबसे सस्ता है।

ज्योति बसु और संसदीय वामपन्थी राजनीति की आधी सदी

इस बीच ज्योति बसु, माकपा और वाम मोर्चे का सामाजिक जनवादी चरित्र ज्यादा से ज्यादा नंगा होता चला गया। भद्रपुरुष ज्योति बाबू बार-बार मजदूरों को हड़तालों से दूर रहने और उत्पादन बढ़ाने की राय देने लगे, जबकि मजदूरों की हालत लगातार बद से बदतर होती जा रही थी। ज्योति बसु विदेशी पूँजी को आमन्त्रित करने के लिए बार-बार पश्चिमी देशों की यात्रा पर निकलने लगे (कभी छुट्टियाँ बिताने तो कभी आर्थिक-तकनीकी मदद के लिए 1990 तक रूस और पूर्वी यूरोप तो जाते ही रहते थे)। देशी पूँजीपतियों को पूँजी-निवेश के लिए पलक-पाँवड़े बिछाकर आमन्त्रित किया जाने लगा। देश के तमाम बड़े पूँजीपति (विदेशी कम्पनियाँ भी) पूँजी निवेश के लिए बंगाल के परिवेश को अनुकूल बताने लगे। दिक्कत अब उन्हें हड़तालों से नहीं थी, बल्कि माकपा के उन ट्रेड यूनियन क्षत्रपों से थी जो मजदूरों से वसूली करने के साथ ही मालिकों से भी कभी-कभी कुछ ज्यादा दबाव बनाकर वसूली करने लगते थे।