Tag Archives: लता

ऐतिहासिक अन्याय, विश्वासघात और षड्यंत्र के ख़िलाफ़ जारी है फ़िलिस्तीनी जनता का संघर्ष!

गाज़ा में चल रहा युद्ध ऐतिहासिक अन्याय, विश्वासघात और षड्यंत्र के ख़िलाफ़ है। गाज़ा की जनता अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। हम मज़दूरों मेहनतकशों को इस युद्ध में गाज़ा और फ़िलिस्तीन की जनता का साथ देना चाहिए। मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता हमेशा शोषकों-उत्पीड़कों के ख़िलाफ़ होती है और अन्याय और शोषण के विरुद्ध लड़ रहे मज़दूरों-मेहनतकशों के साथ खड़ी होती है, चाहे वे दुनिया के किसी भी हिस्से में क्यों न लड़ रहे हों। फिलिस्तीन का मसला आज हर न्यायप्रिय व्यक्ति का मसला है। इसलिए भी क्योंकि फिलिस्तीन का सवाल आज साम्राज्यवाद के सबसे प्रमुख अन्तरविरोधों में से एक बना हुआ है और इसका विकास साम्राज्यवाद के संकट को और भी बढ़ाने वाला है।

गाज़ा वह फ़ीनिक्स पक्षी है जो अपनी राख से फिर उठ खड़ा होगा!

साम्राज्यवादी जब भी हारते हैं, तो इसी तरह बूढ़ों, बच्चों, औरतों का क़त्लेआम करते हैं। यह सिर्फ़ उनकी हताशा को दिखलाता है। और यह भी ग़ौरतलब है कि हर ऐसे हत्याकाण्ड के साथ दुनिया में साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ आम मेहनतकश जनता में नफ़रत बढ़ती जाती है। इज़रायल और अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य पश्चिमी साम्राज्यवादी देश आज दुनिया में सबसे घृणा और नफ़रत का पात्र बन चुके देश हैं।  

आज़ादी की आदिम चाहत, अदम्य साहस और ज़िन्दगी की ललक का नाम है गाज़ा!

अपनी हार को देखते हुए हताशा में ज़ायनवादी, उपनिवेशवादी नेतन्याहू सरकार ने मासूम बच्चों और गाज़ा के नागरिकों पर हमले को और तेज़ कर दिया है। अपनी पराजय को छुपाने के लिए नेतन्याहू इज़रायल की जनता के सामने गाज़ा के नरसंहार और विनाश को विजय की तरह प्रस्तुत कर रहा है। लेकिन साथ ही वह इस सच्चाई को छुपा नहीं पा रहा कि 100 दिनों से अधिक से चल रहे नरसंहार के बाद भी अभी तक इज़रायली बन्धकों को रिहा क्यों नहीं कराया जा सका है? पूरे उत्तर गाज़ा पर नियंत्रण और दक्षिण गाज़ा पर सघन बमबारी और ज़मीनी हमलों के बाद भी इज़रायल को बन्धक क्यों नहीं मिल रहे हैं? हमास अभी भी किस तरह गाज़ा में शासन कर रहा है और किस प्रकार इज़रायली सेना को खदेड़ रहा है यदि उसके तमाम बड़े नेताओं को समाप्त करने का दावा इज़रायल कर रहा है? 

हर मुक्तिकामी, न्यायप्रिय और प्यार से लबरेज़ दिल के अन्दर धड़कता है गाज़ा!

1948 में ब्रिटेन के सहारे ज़ायनवादी इज़रायल ने जिस तरह निहत्थे और बेगुनाह फ़िलिस्तीनियों को बन्दूक की नोक पर उनके घरों और ज़मीन से बेदखल कर दिया था और उनकी 78 प्रतिशत ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया था आज उसकी तुलना इज़रायल द्वारा गाज़ा और वेस्ट बैंक पर हमले से की जा रही है। 1948 में बर्बरता की सारी सीमाओं को पार करते हुए इज़रायल ने आधिकारिक आकलन के अनुसार 15,000 फ़िलिस्तीनियों को मौत के घाट उतार दिया था, हालाँकि वास्तविक संख्या इससे दोगुनी या यहाँ तक कि तीन-गुनी हो सकती है। साथ ही, करीब 7 लाख फ़िलिस्तीनियों को, जो उस समय फ़िलिस्तीन की अरब आबादी का 80 फ़ीसदी थे, उनके घरों से बेदख़ल कर दिया गया और उनके ही देश में और आस-पास के देशों में शरणार्थी बना दिया गया। फ़िलिस्तीनियों के पास उनके देश का मात्र 22 प्रतिशत भू-भाग रह गया जो गाज़ा और वेस्ट बैंक का हिस्सा है। और आज वास्तव में ये दोनों क्षेत्र भी इज़रायल के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष औपनिवेशिक नियन्त्रण या घेरेबन्दी में हैं।

“महँगाई-बेरोज़गारी भूल जाओ! पाकिस्तान को सबक सिखाओ!” गोदी मीडिया की गलाफाड़ू चीख-पुकार, यानी चुनाव नज़दीक आ गये हैं!

हमारा ध्यान अपनी जिन्दगी की असल समस्याओं की ओर न जाए इसलिए देश में अन्ध-राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता की राजनीति हो रही है। संघ परिवार और भाजपा की इस राजनीति को बहुत लोग समझने भी लगे हैं। लेकिन भाजपा अलग-अलग स्वांग रच कर इन्हीं पत्तों को खेलेगी। नूह में दंगों के समय यह साफ़ हो गया है की 2024 के लोकसभा चुनावों के पहले भाजपा और संघ परिवार देश को दंगों की आग में झोंकने की योजना बना रही है। इन्हें हमेशा इस बात की उम्मीद रहती है कि अन्‍धराष्ट्रवाद का कार्ड हमेशा काम आता है। पाकिस्तान के खिलाफ़, चीन के खिलाफ़, सेना के नाम पर जनता को मूर्ख बनाने की कोशिश की जाती है। लेकिन इस बार जनता को सावधान रहना होगा। 

विपक्ष का नया गठबन्धन ‘इण्डिया’ और मज़दूर वर्ग व मेहनतकश आबादी का नज़रिया

क्या आपको लगता है कि कांग्रेस या किसी अन्य बुर्जुआ चुनावी गठबन्धन की सरकार भाजपा और संघ परिवार की गुण्डा वाहिनियों पर कोई लगाम लगायेगी? नहीं। क्योंकि पूँजीपति वर्ग को इन फ़ासीवादी ताक़तों की ज़रूरत है, चाहे वे सत्ता में रहें या न रहें। साथ ही, किसी भी अन्य बुर्जुआ गठबन्धन की सरकार भी पूँजीपति वर्ग को संकट से निजात नहीं दिला सकती और न ही जनता को बेरोज़गारी, महँगाई, आदि से निजात दिला सकती है। उसके द्वारा किये जाने वाले दिखावटी कल्याणवाद के जवाब में पूँजीपति वर्ग और मज़बूती से दोबारा फ़ासीवादियों को ही फिर से सत्ता में लाने की जुगत भिड़ायेगा और जनता के बीच मौजूद आर्थिक व सामाजिक असुरक्षा का लाभ उठाकर फ़ासीवादी संघ परिवार और भी आक्रामक तरीके से टुटपुँजिया वर्गों का प्रतिक्रियावादी उभार पैदा करेगा, जिसकी लहर पर सवार होकर वह फिर से सत्ता में पहुँचेगा। यानी, पूँजीवाद के दायरे के भीतर फ़ासीवाद की निर्णायक हार किसी चुनाव के ज़रिये नहीं हो सकती।

बिपरजॉय चक्रवात आने वाले गम्भीर भविष्य की चेतावनी दे रहा है!

पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया अनियोजित और अराजक होने की वजह से पूरी उत्पादन प्रक्रिया प्रकृति और पर्यावरण के लिए गम्भीर संकट पैदा कर रही है। जीवाश्म ईंधन के जलने, जंगलों के कटने और कारखानों, मशीनों और कई बिजली संयंत्रों से निकलने वाले ग्रीनहाउस गैस वायुमण्डल की सतह पर एकत्र हो जाते हैं और सूर्य के ताप को अधिक मात्रा में वायुमण्डल में कैद करने लगते हैं जिससे ग्रीन हाउस इफेक्ट पैदा होने लगता है। इससे पृथ्वी की सतह का तापमान बढ़ता है यानी ग्लोबल वार्मिंग होती है।

कर्नाटक चुनाव के नतीजे और मज़दूर-मेहनतकश वर्ग के लिए इसके मायने

भाजपा की चुनावी रैलियों से रोज़गार, शिक्षा, महँगाई, आवास और स्वास्थ्य नदारद थे और आते भी कैसे क्योंकि अभी सरकार में तो स्वयं भाजपा ही थी। भाजपा और संघ परिवार के लिए बिना कुछ किये वोट माँगने का सबसे सरल रास्ता होता है साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को हवा देना। इसकी तैयारी इस वर्ष के अरम्भ से ही भाजपा ने नंगे तौर पर शुरू कर दी थी। जनवरी में कॉलेज में हिजाब पहनने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। लोगों के बीच प्रतिरोध होने पर हिन्दुत्ववादी संगठनों को हिंसा की खुली छूट दे दी गयी।

शिक्षा का घटता बजट और बढ़ता निजीकरण

एक ओर तो सरकारी शिक्षा संस्थानों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की फ़ीस बढ़ायी जा रही है और दूसरी ओर नये शिक्षकों की भर्ती न के बराबर हो रही है। शिक्षकों और कर्मचारियों को ठेके पर रखा जा रहा है। सरकार धीरे-धीरे शिक्षा की अपनी ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ रही है और पूँजीपति यहाँ भी खुलकर मुनाफ़ा पीट सकें, इसके लिए शिक्षा को उनके हवाले कर रही है। नयी शिक्षा नीति लागू होने से उच्च शिक्षा में निजीकरण की रफ़्तार और तेज़ गति से आगे बढ़ेगी और विदेशी पूँजीपतियों को भी शिक्षा के क्षेत्र में मुनाफ़ा कमाने के लिए आमन्त्रित किया जायेगा। मज़दूर-मेहनतकश आबादी तो वैसे भी उच्च शिक्षा से कोसों दूर है पर अब मध्य वर्ग के लिए भी शिक्षा हासिल करना कठिन हो जायेगा। हमारे देश में अच्छी प्राथमिक-माध्यमिक और उच्च-माध्यमिक शिक्षा पहले ही निजी हाथों में थी अब उच्च शिक्षा भी निजी हाथों में चली जायेगी और जा रही है।

भारत-चीन सीमा पर मामूली झड़प और फ़ासीवादी प्रचारतंत्र को मिला अन्धराष्ट्रवादी उन्माद उभारने का मौक़ा

दिसम्बर 9 को तवांग के यांगसे क्षेत्र में भारतीय सेना और चीन की सेना के बीच मुठभेड़ हुई। यह मुठभेड़ बन्दूक़ों या हथियारों से नहीं बल्कि छड़ी, डण्डे और लाठी से हुई। दोनों तरफ़ की सेना के जवानों को मामूली चोटें आयीं लेकिन किसी की मौत नहीं हुई है। अख़बारों में या समाचार चैनलों में यह ख़बर 12 दिसम्बर के बाद आनी शुरू हुई। गोदी मीडिया के चैनलों ने जवानों की इस मुठभेड़ को इस तरह प्रचारित करना शुरू किया मानो सीमा पर कोई भयंकर युद्ध चल रहा है या युद्ध की तैयारी हो रही है! वह 4 से 5 मिनट का वीडियो आप लोगों में से भी कइयों ने देखा होगा और आपको भी लगा होगा कि यह तो बेहद मामूली झड़प है अगर हम इसकी तुलना सीमा पर होने वाली लड़ाइयों से करें।