उत्तर प्रदेश में “विकास” और रोज़गार के योगी के दावे बनाम असलियत

– लालचन्द्र

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार केन्द्र की मोदी सरकार के नक़्शे क़दम पर चलती नज़र आ रही है। ‘चोर मचाये शोर’ की बात चरितार्थ होते दिख रही है। बड़ी-बड़ी होर्डिंग्स लगाकर, सारे प्रमुख अख़बारों में विज्ञापन देकर सरकार चार साल के कारनामों को हर जनता तक पहुँचा देना चाहती है। 2017 के चुनावी घोषणापत्र को देखने पर ऐसा लगता है कि अब विकास की गंगा यूपी में हिलोरे मारेगी। एक दरबारी ने तो योगी को भगवा समाजवादी तक घोषित कर दिया। पर भगवा समाजवाद की स्थिति दिन के उजाले की तरह साफ़ है कि इन चार सालों में छात्रों-बेरोज़गारों, मज़दूरों और आम ग़रीबों की क्या स्थिति हुई है। कहाँ 2017 के चुनावी घोषणापत्र में वादा किया गया थी कि पाँच सालों में 70 लाख युवाओं को रोज़गार दिया जायेगा व स्वरोज़गार पैदा किया जायेगा। पूरे प्रदेश में केवल पंजीकृत बेरोज़गारों की संख्या 30 लाख से ऊपर है।
सभी जानते हैं कि पंजीकृत बेरोज़गारों के अलावा बहुत बड़ी संख्या उन बेरोज़गारों की है जो अपना पंजीकरण नहीं करवा पाते, इनकी संख्या जोड़ी जाये तो यह आँकड़ा एक करोड़ से ऊपर पहुँच जायेगा परन्तु सरकारी विज्ञापनों में केवल चार लाख लोगों को सरकारी नौकरी देने के दावे किये जा रहे हैं। यह दावा भी गले के नीचे नहीं उतरता क्योंकि उत्तर प्रदेश में बेरोज़गारी की दर जहाँ 2018 में 5.92 फ़ीसदी थी वहीं 2019 में बढ़कर 9.9 फ़ीसदी हो गयी है। भाजपा के घोषणापत्र ( लोककल्याण संकल्प-पत्र) के अनुसार 90 दिनों के भीतर राज्य सरकार के सभी रिक्त पदों के लिए भर्ती प्रक्रिया शुरू कर दी जायेगी। इन चार सालों में इस भर्ती प्रक्रिया की क्या असलियत है, इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं। योगी सरकार ने 2018 के दिसम्बर महीने में ग्राम पंचायत अधिकारी, ग्राम विकास अधिकारी और समाज कल्याण पर्यवेक्षक के 1953 पदों के लिए भर्ती परीक्षाएँ करायी। इनमें 9 लाख से अधिक अभ्यर्थियों ने हिस्सा लिया। अगस्त में परीक्षा का रिजल्ट आया। और धाँधली के आरोप लगे, यह आरोप कोई और नहीं यूपी सरकार के ही ग्रामीण विकास मंत्री राजेन्द्र सिंह मोती ने लगाये।
मार्च 2021 में यूपी अधीनस्थ सेवा चयन आयोग ने परीक्षा परिणामों को निरस्त कर दिया। हालाँकि आयोग की ओर से इस संदर्भ में कोई जवाब नहीं आया। भ्रष्टाचार के “ज़ीरो टालरेन्स” के दावे के बाद बार-बार सरकारी भर्तियों में भ्रष्टाचार का उजागर होना, रामराज की नीति व नीयत के बारे में बहुत कुछ बताता है। इन्हीं हालातों के कारण उत्तर प्रदेश में आये दिन छात्रों की आत्महत्या की ख़बरें आती रहती हैं। लेकिन परिवार वालों के अलावा किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता और सरकार केवल अपना गाल बजाती रहती है।
उत्तर प्रदेश के सभी राजकीय विभागों में रिक्त पड़े पदों पर कुछ काम तो हो रहे हैं, परन्तु उन्हें ठेका कम्पनियों के कर्मचारियों से बेहद कम वेतन आठ से दस हज़ार में दस-दस घण्टे खटाया जा रहा है, ये कर्मचारी संविदा पर भी नहीं हैं कि सरकार से तय समय बाद स्थायी नियुक्ति की माँगकर सकें। और जो सरकार के संविदाकर्मी हैं उनकी भी तिमाही समीक्षा करके हटाने की साजिशें हो रही हैं।
शिक्षामित्रों की रोज़गार की समस्याओं को तीन महीने में न्यायोचित तरीक़े से निपटाने की बात सरकार ने घोषणा में की थी, परन्तु हज़ारों शिक्षामित्रों के धरना-प्रदर्शन के बाद भी, उनकी समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया गया।
सरकार का दावा है कि प्रति व्यक्ति आय दोगुनी हो गयी है, 2015-16 में प्रति व्यक्ति आय जहाँ 47,116 रुपये थी, अब वह बढ़कर 94, 495 रुपये हो गयी है। उत्तर प्रदेश के प्लानिंग इंस्टीट्यूट के आर्थिक और सांख्यिकीय विभाग के मुताबिक़ सरकार अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनती दिख रही है। मार्च 2017 में योगी सरकार बनने के बाद पहले साल में प्रति व्यक्ति आय में 4 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गयी थी, 2018 में 2 फ़ीसदी बढ़ी लेकिन अगले दो वर्षों में यह गिरकर नीचे आ गयी। 2020-21 में प्रति व्यक्ति आय 0.4 फ़ीसदी बढ़कर 65,431 रुपये हो गयी है। हालाँकि जब अमीरी और ग़रीबी की खाईं लगातार बढ़ रही हो, तो प्रति व्यक्ति आय से लोगों की वास्तविक आर्थिक स्थिति नहीं पता लग सकती, जबकि सरकार ने लोगों को भरोसा दिलाया था कि भाजपा की सरकार बनी तो भारत को बीमारू प्रदेश के खाँचे से निकाल बाहर करेगी।
अपने घोषणापत्र में गाँव-ग़रीब और महिलाओं का ध्यान रखने की बात की थी। 2017 में योगी सरकार ने गायों के मामले में मुस्तैदी दिखाते हुए अवैध बूचड़खाने बन्द करवा दिये, जिस नाम पर यह बन्दी  हुई, क्या यह चीज़ गाँव के हक़ में थी या ग़रीब के हक़ में? अब जब गाँव की खेती में पशुओं का इस्तेमाल नगण्य सा हो चुका है, ऐसे में अतिरिक्त पशु, अर्थात् ऐसे पशु जो दूध के उपयोग के नहीं रह गये हैं, उनका गाँव का ग़रीब-मज़दूर और किसान क्या करे? पहले उन्हें बेचकर उनके पास कुछ पैसे आ जाते थे, अब वे उन्हें बेच नहीं सकते। योगी सरकार ने आवारा पशुओं से फसलों को बचाने के वायदे किये थे, उसके लिए 632.60 करोड़ का बजट बनाया गया। गौशालाएँ बनवायी गयीं, लेकिन किसान आवारा पशुओं से अपनी फसलों को बचाने के लिए त्राहि-त्राहि कर रहे हैं।
योगी सरकार का दावा है कि क़ानून-व्यवस्था में सुधार किया गया, और “ज़ीरो टालरेन्स” के काम पर बेहतर परिणाम आये। लेकिन हालत यह है कि लोगों को यह रावणराज बनता दिख रहा है। एनसीआरबी के मुताबिक़ 2019 में हिंसा के मामले में उत्तर प्रदेश, देश में पहले स्थान पर रहा। भाजपा सरकार में महिलाओं के ख़िलाफ अपराध की ऐसी स्थिति बनी, कि सरकार बगले झाँकती नज़र आयी। हाथरस, बलरामपुर, बदायूँ आदि जगहों  पर हुए बलात्कार और हत्या के मामलों के कारण जनता में उपजे आक्रोश से निपटने के लिए 17 अक्टूबर 2020 को ‘मिशन शक्ति प्रोग्राम’ शुरू किया गया।
महिलाओं व बच्चियों की सुरक्षा, सम्मान व स्वावलम्बन के लिए शुरू हुए इस अभियान में ख़ूब पैसा झोंका गया। शहरों में जगह-जगह पिंक बूथ खोले गये, स्कूलों में कार्यक्रम आयोजित किये गये। यूपी में होर्डिंग से पाट दिया गया। लेकिन महिलाओं की स्थिति में कोई बदलाव होता नहीं दिखा। मिशन शक्ति की कवायदों के बाद भी, पुलिस द्वारा रेप के केस दर्ज नहीं किये जा रहे हैं। एफ़आईआर के लिए लोग पुलिस के बड़े अधिकारियों के चक्कर काट रहे हैं, ताज़ा उदाहरण गोरखपुर का है, पाँच मार्च 2021 को सूबे के मुख्यमंत्री गोरखपुर में भाषण दे रहे थे कि संगठित अपराध ख़त्म हो गया है, समाज में सुरक्षित माहौल के लिए प्रशासन को ठोंक देने की खुली छूट दी गयी है। इसके तीन दिन पहले गोरखपुर में एक महिला द्वारा गैंगरेप की शिकायत के बावजूद एफ़आईआर दर्ज नहीं की गयी। जब रेप का वीडियों वायरल हुआ, तब जाकर केस दर्ज हुआ। मार्च में ही, कानपुर में नाबालिग़ के साथ गैंगरेप हुआ, अस्पताल में बच्ची को देखने जा रहे पिता की एक्सीडेण्ट में मौत हो गयी। लड़की के घरवालों का आरोप है, कि यह एक्सीडेण्ट नहीं हत्या की गयी है।
2019 में देशभर में होने वाले महिलाविरोधी अपराधों का 15 फ़ीसदी अकेले उत्तर प्रदेश में हुआ है। बलात्कार के मामलों में 2016 से 2019 के बीच दर्ज किये गये मामले में 36 फ़ीसदी की कमी आयी  है। जबकि योगी सरकार बलात्कार की घटनाओं में आयी इस कमी को 45 फ़ीसदी बता रही है।
योगी सरकार यह दावा कर रही है कि भाजपा सरकार बनने के बाद कोई दंगा नहीं हुआ है। मगर एनसीआरबी के आँकड़ों को ही देखें तो यह बात एकदम सिरे से झूठ लगती है। एनसीआरबी के मुताबिक़ 2017 में ही 34 साम्प्रदायिक दंगे हुए। उत्तर प्रदेश में 2016 में 8,016 बलवे/दंगे से जुड़े मामले दर्ज हुए, 2017 में 8,990, और 2018 में 8,908 और 2019 में 5,714 मामले दर्ज हुए। सरकार द्वारा उपलब्ध जानकारी के मुताबिक़ 2020 में 5,376 मामले बलवे/दंगे क दर्ज हुए।  हालाँकि 2017 के बाद साम्प्रदायिक दंगे नहीं हुए, लेकिन पूरे प्रदेश में जिस तरह से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण किया गया है, वह अभूतपूर्व है। गाय के नाम पर जिस तरह से मुसलमानों को मारा गया, और अपराधियों का फूलमालाओं स्वागत किया गया, उससे पूरे प्रदेश के अल्पसंख्यक समुदाय में काफ़ी भय व्याप्त हुआ। अब तथाकथित लव जिहाद के नाम पर, पूरे प्रदेश में साम्प्रदायिक ज़हर घोला जा रहा है। कब ये दंगे हो जायें, कुछ कहा नहीं जा सकता। अयोध्या में राममन्दिर के बाद जिस तरह की लहर काशी, मथुरा के मामले की उठ रही है, वह पूरे प्रदेश  को साम्प्रदायिक दंगे रूपी बारूद के ढ़ेर पर बैठा दी है। बस ये वक़्त की बात है। अब तो चुनाव 2022 के ऐन पहले ही लावा दहकने की आशंकाएँ उठने लगी हैं।
“ईज़ ऑफ़ डूइंग बिजनेस” की राष्ट्रीय रैंकिंग में 12 पायदान ऊपर उठकर दूसरे नम्बर पर आना भी अपनी सफलताओं में सरकार गिना रही है। यानी कि प्रदेश के मज़दूरों-मेहनतकशों को श्रम शक्ति को लूटने की छूट बिना किसी क़ानूनी अड़चन के, लेकिन सरकार की ऐसी सफलता से, गाँव व शहर के ग़रीबों को क्या फ़ायदा पहुँचेगा? अब यूपी सरकार के काम के हर घण्टे के भुगतान का मामला लायी है। यानी कि मज़दूर की मेहनताना उसका और उसके परिवार के लायक़ हो। इस बात को सरकार ने ख़त्म कर दिया समझो। जबकि सुप्रीम कोर्ट व सरकार की अन्य श्रम विभाग की समितियों की सिफारिश न्यूनतम वेतन की है जो 9 हज़ार से 11 हज़ार के बीच होती है।
उत्तर प्रदेश विकास और सुशासन के दायरे में ज़्यादातर वे लोग हैं जो सत्ता के भागीदार हैं, या उसके दायरे में आते हैं, बाक़ी के लिए ‘चार दिन की चाँदनी, फिर वही अँधेरी रात’ की स्थिति है। ऐसे में सच को आँखें खोलकर देखने-समझने की ज़रूरत है और यह स्थिति कैसे बदले इसको लिए सभी युवाओं, प्रबुद्ध लोगों को प्रयत्न करना होगा।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2021


 

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