तेल की बढ़ती कीमतों का बोझ फिर मेहनतकश जनता पर

मीनाक्षी

पिछले आठ महीनों में पेट्रोल की कीमतों में आठ बार बढ़ोत्तरी हुई है। यह आर्थिक सुधारों के कठोर सरकारी फैसलों का नतीजा था। ऐसे हर फैसले आम लोगों की ज़िन्दगी को थोड़ा और तंगहाल बनाते हैं। वैसे भी आम लोग और उनकी ज़रूरतें पूँजी और मुनाफ़े की इस व्यवस्था के केन्द्र में कभी नहीं होते। उनकी उपयोगिता इस व्यवस्था के संचालकों के लिए महज़ वोट बैंक के रूप में होती है। इसी आसन्न चुनाव और वोट हथियाने के हथकण्डे के तौर पर डीज़ल और पेट्रोल के दामों में इज़ाफ़ा करने से इस बार बचने की कोशिश की गयी थी। इसके बावजूद यदि ऐसा सम्भव नहीं हो पाया, तो मतलब साफ है, नवउदारवादी नीतियों ने पलटकर सरकार को ही नियंत्रण में ले लिया है। चुनाव होते ही अभी इनकी कीमतें और रफ़्तार से बढ़ेंगी, यह तय है। डीज़ल की मूल्य वृद्धि सम्बन्धी फैसला तो सरकार पहले ही ले चुकी है। प्रति माह एक रुपये की दर से इसके दाम तब तक बढ़ते रहेंगे जब तक यह बाज़ार भाव के बराबर नहीं आ जाता, यानी सरकार इस पर सब्सिडी देने की अपनी ज़िम्मेदारी से जब तक पूरी तरह अपने को मुक्त नहीं कर लेती। तेल कम्पनियों की आर्थिक सेहत के लिए हमेशा चिन्तित रहनेवाले वित्तमंत्री महोदय आम जनता के बारे में बड़े निश्चिन्त रहते हैं, उनका मानना है कि मूल्य वृद्धि की ‘छोटी छोटी खुराकें’ जनता सहन कर ही लेगी।

मूल्यवृद्धि को सही ठहराने की कोशिश में सरकार यह दलील देती है कि अन्तरराष्ट्रीय कीमतों के हिसाब से पेट्रोल की कीमतों में परिवर्तन होता है, और यदि तेल कम्पनियों पर बाज़ार भाव से कम भाव पर बेचने का जोर डाला जाये तो उन्हें नुकसान का भारी बोझ उठाना पड़ता है। इसका असर राजकोषीय घाटे पर पड़ता है जिससे अर्थव्यवस्था डावाँडोल हो जाती है।

सच्चाई तो यह है कि लोगों को भरमाने के लिए सत्ताधारी हमेशा से ही झूठ का अम्बार खड़ा करते रहे हैं। तेल के अन्तरराष्ट्रीय मूल्यों से संचालित होने का अर्थ यह हुआ कि दुनिया के लगभग एक जैसी अर्थव्यवस्था वाले देशों पर इसका कमोबेश एक जैसा प्रभाव पड़ना चाहिए। परन्तु पूरी दुनिया के मुकाबले तेल की कीमतें सबसे अधिक हमारे यहाँ बढ़ी हुई होती हैं। जिस समय भारत में पेट्रोल का मूल्य 68 रु. था पाकिस्तान में वह 53 रु. प्रति लीटर था जब कि वहाँ भी तेल की उपलब्धता भारत की तरह तेल आयात पर टिकी है। एक छोटे से देश नेपाल में भी पेट्रोल भारत के मुकाबले सस्ता था। किसी किस्म की सब्सिडी न देनेवाले अमेरिका में भी इसकी कीमत 50 रु. प्रति लीटर के बराबर थी।

वर्ष 2009-10 में जब अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में पेट्रोल 23-17 रु. प्रति लीटर था तब घरेलू बाजार में हम 47-93 रुपये प्रति लीटर चुका रहे थे। डीज़ल के मामले में भी अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में 22-7 रु. के मुकाबले घरेलू बाज़ार में इसकी कीमत 38-1 रु. प्रति लीटर थी। उसी दौर में हम गैस की कीमत 310-35 रुपया प्रति सिलिण्डर चुका रहे थे जब कि अन्तरराष्ट्रीय बाजा़र में इसका दाम 117-14 रु. प्रति सिलिण्डर था। ज़ाहिर है अन्तरराष्ट्रीय दाम के पैमाने की दलील बिल्कुल खोखली और भ्रामक है। यूँ भी इस पैमाने को आधार बनाना ही गलत है। यहाँ कच्चा तेल आयात किया जाता है जिसका दाम बहुत ज़्यादा नहीं होता, फिर देश के शोधक कारखानों में उस कच्चे तेल का शोधन किया जाता है। यदि कच्चे तेल के आयात के दाम में इस घरेलू तेल शोधक लागत को भी जोड़ दिया जाय तो भी पेट्रोल और उसके उत्पादों की कीमतों में इतना इज़ाफ़ा नहीं होगा।

वास्तव में लूट और मुनाफे की हवस ने पट्रोल की कीमतों में आग लगा दी है।

पेट्रोल के बाज़ार भाव से कम दाम पर बिक्री से कम्पनियों को होने वाले नुकसान (जिसे अंडररिकवरी कहा जाता है) की  सरकार भरपाई करती है। अर्थव्यवस्था की तबाही का हव्वा खड़ा करके वह अपने इस काम को न केवल  उचित ठहराती है और बल्कि उसका पैसा भी  जनता से ही करों के रूप में वसूलती है। जबकि हकीकत यह है कि तेल कम्पनियों का घाटा आँकड़ों की हेराफेरी ही है। अभी कुछ माह पूर्व तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री द्वारा लोकसभा में दिया गया बयान इस झूठ और फरेब को उजागर करता है। उस बयान के हवाले से सार्वजनिक तेल कम्पनियों द्वारा कर-भुगतान के बाद प्राप्त मुनाफे का विवरण मिलता है जो इस प्रकार है। 2010-11 में ओएनजीसी (तेल खोज व उत्पादन करनेवाली कम्पनी) का मुनाफा 18924 करोड़ रुपये, विपणन कम्पनी, इण्डियन ऑयल का 7445 करोड़ रुपये, भारत पेट्रोलियम का 1547 करोड़ रुपये और हिन्दुस्तान पेट्रोलियम का मुनाफा 1539 करोड़ रुपये था। इन तीन बड़ी सरकारी विपणन कम्पनियों ने अपने शेयरधारक भारत सरकार को 3287 करोड़ रुपये का डिविडेंड (कम्पनी द्वारा शेयरधारक को बाँटा जानेवाला मुनाफा) भी दिया है। उसी साल इन कम्पनियों ने जहाँ एक तरफ 78190 करोड़ रुपये की अंडररिकवरी का रोना रोया है वहीं दूसरी तरफ अपने उत्पादों के विज्ञापन व प्रचार में इन्होंने करोड़ों रुपये की रकम फूँक डाली है। पिछले पाँच सालों में इस मद में खर्च की गई रकम 1142 करोड़ रुपये है। इससे साफ ज़ाहिर है कि घाटा कहाँ और किसका हुआ है।

राजकोषीय घाटे की असलियत तो संसदीय समिति की रिपोर्ट से ही सामने आ जाती है। वह बताती है कि वर्ष 2010-11 में केन्द्र सरकार को पेट्रोलियम उत्पादों पर करों के ज़रिये 136497 करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ है और राज्य सरकारों को 88997 करोड़ रुपये का। कुल मिलाकर एक साल में 225494 रुपये का राजस्व। यदि कम्पनियों को सरकार द्वारा दी गयी कुल 43926 करोड़ रुपये की सब्सिडी को इसमें से घटा भी दिया जाये तो भी सरकार के हाथ में कुल 92571 करोड़ की भारी राशि शेष बची रह जाती है। ज़ाहिर है तेल की कीमतों में किसी सम्भावित कमी को राजकोषीय घाटे के बढ़ने की वजह बताना महज़ एक छलावा ही है। सच तो यह है कि पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें जितनी बढ़ती हैं पूँजीपतियों और उनका प्रबन्धन सम्भालने वाली सरकार दोनों को ही उसका लाभ मिलता है, घाटा तो सिर्फ आम जनता ही उठाती है। यहाँ यह जानना भी दिलचस्प होगा कि सरकार ने पिछले बजट सत्र में पूँजीपतियों से प्राप्त होनेवाले कुल 529432 करोड़ रुपये का राजस्व माफ़ कर दिया था। यह रकम उस समय राजकोषीय घाटे की कुल रकम 521980 करोड़ रुपये से करीब 8000 करोड़ रुपये अधिक थी। फिर भी सरकार जब-तब राजकोषीय घाटे का भूत अपने पिटारे में से निकालती रहती है।

अभी पिछले दिनों पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री वीरप्पा मोइली ने तेल आयात घटाने के लिए रात में पेट्रोल पम्प बन्द रखने का हास्यास्पद सुझाव दिया था जिससे तेल की खपत को नियंत्रित करके राजकोषीय घाटे को कम किया जा सके। प्रचार और पोस्टर विज्ञापन के माध्यम से जागरूकता अभियान चलाने का सरकारी सुझाव भी सामने आया था। इसका हश्र पानी बचाओ मुहिम के हश्र से अलग होगा इसकी सम्भावना कम ही है। इन बातों के अतिरिक्त यहाँ सबसे अहम सवाल यह है कि जिन उदारवादी नीतियों ने सभी चीज़ों को खुले बाज़ार के हवाले कर दिया क्या सत्ताधारियों द्वारा अब उन्हीं उदारवादी नीतियों के तहत उन पर नियंत्रण कायम करना मुमकिन है।

दूसरे, तेल का आयात घटाना सरकार के बूते से बाहर है। वजह साफ है,  वह स्वयं ही पेट्रोल की सबसे बड़ी उपभोक्ता है और उसने अबतक अपनी खपत घटाने का कोई इरादा ज़ाहिर नहीं किया है। केन्द्रीय और राज्य स्तर के मंत्री के विभागों, सचिवालयों और अन्य सरकारी कायालयों के कार्यालयी खर्च में (जिसमें कागज-कलम से लेकर बाथरूम में इस्तेमाल होनेवाला साबुन शामिल है) ईधन का खर्च जुड़ा होता है और ज़ाहिर है यह खर्च का बड़ा हिस्सा होता है। अगर सिर्फ दिल्ली में ही देखा जाये तो विगत वर्ष मंत्रालयों का यह खर्च 5200 करोड़ रुपये था। दिल्ली में ही केन्द्रीय मंत्री, 70 सचिव स्तर के अधिकारी, 131 उपसचिव, 525 संयुक्त सचिव के साथ-साथ 1200 निदेशक स्तर के अधिकारियों में भी आधे (यानी लगभग 600) से अधिक को स्टाफ कार की सुविधा मिली हुई है। जबकि कैबिनेट मंत्री को तीन स्टाफ कार उपलब्ध हैं। यदि इनमें से प्रत्येक 200 प्रति लीटर प्रति माह न्यूनतम के स्तर पर भी पेट्रोल का उपयोग करता है तो यहांँ भी पेट्रोल की मासिक खपत 2-56 लाख लीटर तक जा पहुँचती है। केवल केन्द्रीय मंत्रियों द्वारा पेट्रोल की कुल मासिक खपत 46200 लीटर है। और इस पर होनेवाला कुल मासिक खर्च 230 करोड़ रुपये से अधिक ही बैठता है। इतना ही नहीं मंत्रियों के भारी भरकम काफिले में 150 तक की संख्या में शामिल गाड़ियाँ राजकोषीय घाटा की चिन्ता किये बगैर सैकड़ों लीटर तेल फूँक डालती हैं। विराट नौकरशाही को हासिल स्टाफ कारें कार्यालयी कार्यों से ही नहीं दौड़ती यह साहब के बच्चों को स्कूल पहुँचाती हैं, मेमसाहब को खरीदारी के लिए बाजार ले जाती हैं। मनोरंजन के लिए साहब और उनके परिवार को पार्टियों और पिकनिक स्थलों की सैर कराती हैं। मंत्रियों-संत्रियों को यह सारी सुविधा मुफ़्त में हासिल है और उसकी कीमत आम लोगों की जेब से राजकोषीय घाटे के नाम पर ज़बर्दस्ती निकाल ली जाती है।

सच तो यह है कि पेट्रोल की खपत को तभी कम किया जा सकता है, जब सार्वजनिक परिवहन की एक ऐसी चुस्त-दुरुस्त प्रणाली विकसित की जाये कि लग्ज़री गाड़ियों, कारों, मोटरसाइकिलों और स्कूटरों के निजी उपयोग की ज़रूरत न रहे। स्कूलों-कालेजों, विश्वविद्यालयों, कार्यालयों, खरीदारी और मनोरंजन स्थलों तक पहुँचने के लिए सड़कों पर पर्याप्त संख्या में सुविधाजनक (आज की तरह खटारा बसें नहीं) बसें थोड़े-थोड़े अन्तरालों पर दौड़ती रहें। कम दूरी के लिए साइकिलों का इस्तेमाल हो। परन्तु बाज़ार और मुनाफे की इस व्यवस्था के रहते निजी उपभोग की प्रणाली को ख़त्म नहीं किया जा सकता। निजी कारों और गाड़ियों के इस्तेमाल पर रोक लगाना तो दूर रहा इनके निजी उपयोग को कम  भी नहीं किया जा सकता। और न ही तेल की कीमतों की बढ़ोत्तरी पर लगाम लगायी जा सकती है। यह कोई अचानक पैदा होने वाला संकट नहीं बल्कि संकटग्रस्त पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली की ही देन है और इसके ख़ात्मे के साथ ही यह ख़त्म होगा।

 

मज़दूर बिगुलसितम्‍बर  2013

 


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments