मारुति के ठेका मजदूरों द्वारा वेतन बढ़ोत्तरी की माँग पर प्रबन्धन से मिली लाठियाँ!
ठेका, कैज़ुअल, ट्रेनी, स्थायी का भेद भुलाकर व्यापक मज़दूर एकता क़ायम करनी होगी

अनन्त

maruti-strike-बीते दिनों देश की एक बड़ी कार निर्माता कम्पनी मारुति ने अपने स्थायी मज़दूरों की पगार में भरी भरकम वृिद्ध की। हर तीन साल पर होने वाले वेतन बढ़ोत्तरी के समझौते के तहत यह वृिद्ध की गयी। पिछली बार सन 2012 में मारुति की फैक्ट्री में घटी घटना और मजदूरों के आन्दोलन के बाद जब यह प्लांट नये श्रमिकों के साथ दुबारा शुरू हुआ था तब से यह वेतन के सम्बन्ध में मजदूरों के साथ किया गया दूसरा समझौता है, इससे पहले किया गया समझौता इस साल के मार्च महीने तक मान्य था। पिछली बार भी तकरीबन 18,000 तक वेतन बढ़ोत्तरी का समझौता किया गया था। इस बार यह औसतन 16,800 मासिक का किया गया है, जो कि पिछले बार से 7 प्रतिशत कम है। 38% तक की यह वृद्धि अप्रैल 2015 से मार्च 2018 तक की अवधि के लिए है। इस बढ़ोत्तरी के बाद स्थायी कर्मचारियों की मासिक आय पचास हज़ार तक पार कर गयी है। इससे पहले भी बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ अपने कुल श्रमिकों के एक छोटे से हिस्से के वेतन में 15 से 18 हज़ार तक की बढ़ोत्तरी करती रही हैं।
हर कारखाने की तरह मारुति में भी उत्पादन की प्रक्रिया में संलग्न बहुतायत आबादी की आय में वृद्धि तक़रीबन नगण्य है। कारखाने में कार्यरत मज़दूरों का बड़ा हिस्सा स्थायी मज़दूरों का नहीं बल्कि ठेके पर काम कर रहे कॉन्ट्रैक्ट, कैज़ुअल, ट्रेनी मज़दूरों का है। ठेके पर काम कर रहे मजदूरों और स्थायी कर्मचारियों के काम की प्रकृति में कोई अन्तर नहीं होता। इसके बावजूद इनके वेतन में ज़मीन-असमान का अन्तर है। मारुति मैनेजमेंट और मारुति फैक्ट्री की यूनियनों के बीच हुए समझौते में ठेके पर काम कर रहे इन मज़दूरों के मुद्दों और माँगों को नहीं उठाया गया। स्थायी मज़दूरों के पगार में बढ़ोत्तरी के बाद जब मानेसर प्लांट के ठेके पर काम कर रहे कर्मचारियों ने भी पगार बढ़ाने के लिए अपनी आवाज़ उठाई तब उन पर मारुति प्रसाशन ने गुण्डों-बाउंसरों और पुलिस वालों की मदद से बर्बर लाठीचार्ज करवा दिया।
मजदूरों पर हुए इस बर्बर लाठीचार्ज के खिलाफ़ मजदूरों का सगा होने की कसमें खाने वाली केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने कुछ नहीं किया। वैसे तो केंद्रीय ट्रेड यूनियनों की गद्दारी और मज़दूर विरोधी चरित्र जगजाहिर है किन्तु इस घटना के बाद फैक्ट्रियों की स्वतंत्र यूनियनों का चरित्र भी साफ़ दिख गया है। मारुति से जुडी स्थायी मज़दूरों की यूनियनों मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन, मारुति सुजुकी उद्योग कामगार यूनियन और सुजुकी पॉवरट्रेन इंडिया एम्प्लाइज़ यूनियन का ठेके पर काम कर रहे मजदूरों के प्रति उदासीन रुख भी इस घटना के बाद साफ़ दिखता है। ऐसी यूनियन मज़दूरों की ताक़त नहीं बल्कि मैनेजमेंट की चाकर ज्यादा प्रतीत होती है। लाठीचार्ज की घटना के बाद घड़ियाली आँसू बहाने के बाद यह यूनियन मुर्गा-दारू पार्टी में ज्यादा व्यस्त हो गयी थी। इसीलिए इनमें से किसी भी यूनियन ने अपने ही साथ काम करने वाले मजदूरों पर हुए बर्बर लाठीचार्ज के खिलाफ़ कोई कार्रवाई करना ज़रूरी नहीं समझा। सबसे पहले यह बात समझने की ज़रूरत है कि क्यों बड़ी कंपनियाँ जो सारा मुनाफ़ा मज़दूरों की हड्डी का चूरा बनाकर पैदा करती हैं, मज़दूरों के एक हिस्से को बाकी मज़दूरों से अधिक वेतन दे रही हैं। अन्य मज़दूरों के मुकाबले कुछ मज़दूरों की इस भारी पगार को देख कर कहीं किसी को यह भ्रम भी हो सकता है कि पूँजीवाद के तहत वाकई मज़दूरों के “अच्छे दिन” आ सकते हैं। हालाँकि प्रदर्शन कर रहे मज़दूरों के ऊपर लाठीचार्ज ही असल सच्चाई है। मारुति जैसी कम्पनियाँ जिनका मुनाफ़ा अरबों में होता है वह अपने मुनाफ़े का एक छोटा सा हिस्सा स्थायी मज़दूरों को देकर दरअसल एक ही फैक्ट्री में एक ही जैसा काम कर रहे मज़दूरों के बीच एकता स्थापित होने से रोकने और उन्हें बाँटने के लिए करती है जिससे फैक्ट्री में अपने अधिकारों के लिए मज़दूर एकजुट न हों। मारुति ने वित्तीय वर्ष 2015 में 3711 करोड़ का मुनाफ़ा कमाया है। मारुति जैसी कंपनियाँ जिनका उत्पादन पूरे सेक्टर में फैला हुआ है, जो महज अपने कारखाने के मज़दूरों का शोषण नहीं करती है, बल्कि अपनी सैकड़ों वेंडर कंपनियों में मात्र 5500-5800 पर काम करने वाले कई हज़ार मज़दूरों की मेहनत को लूटती हैं उनके लिए यह ज़रूरी बन जाता है कि वह अपने मज़दूरों के बीच अन्तर बना कर रखे और उन्हें बाँटकर रखें। निश्चित रूप से अलग-अलग वेंडर कंपनियों में काम कर रहे श्रमिक भी मारुति के ही श्रमिक हैं, जिन्हे काम के बिखराने के साथ एक-दूसरे से भी अलग कर दिया जाता है। यानि मारुति जैसी कंपनियाँ महज़ अपने प्लांट के ही नहीं बल्कि पूरे सेक्टर के मज़दूरों की मेहनत को लूटती हैं। मज़दूरों को एक-दूसरे से अलग करने के अलावा वह उनमें अलग-अलग संस्तर भी पैदा करती हैं, क्योंकि पूँजी की ताक़तों को एक ही चीज से भय लगता है और वह है मज़दूरों की संगठित ताक़त। इसीलिए जब यह बड़ी बड़ी कंपनियाँ पूरे सेक्टर के मज़दूरों को लूटती हैं तब वह मज़दूरों के एक छोटे से टुकड़े को, बाकी मज़दूरों की मेहनत से निचोड़े हुए अधिशेष से एक हिस्सा फ़ेंक देती हैं ताकि मज़दूरों के बीच अन्तर पैदा किया जा सके। मज़दूर वर्ग के एक छोटे से टुकड़े को रिश्वत देकर उन्हें व्हाइट कॉलर वर्कर बना दिया जाता है। मज़दूर वर्ग के संघर्ष की धार को भोथरा करने का यह एक हथकंडा है।
इसका मुक़ाबला करने के लिए मज़दूर वर्ग को कॉन्ट्रैक्ट, कैज़ुअल, ट्रेनी, स्थायी मज़दूर की श्रेणियों से ऊपर उठकर अपने आपको वर्ग के रूप में संगठित करना होगा और संघर्ष करना होगा। मज़दूरों को यह समझना पड़ेगा कि उनके बीच यह दीवार मालिकों ने उनके अपने हित को साधने के लिए खड़ी की है। इसीलिए इस दीवार का गिरना ज़रूरी है।
स्थायी मज़दूरों को कभी नहीं भूलना चाहिए कि कंपनियाँ हमेशा स्थायी मज़दूरों की संख्या कम करने की, अस्थायीकरण की ताक़ में रहती हैं, और अपने फायदे के हिसाब से उनका इस्तेमाल करती है। उन्हें जुलाई 2012 में मारुति की घटना को नहीं भूलना चाहिए जिसके बाद कंपनी ने थोक भाव से स्थायी मज़दूरों को काम से निकाला था। उनका वर्ग हित अपने वर्ग भाइयों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ने में है। पूरे सेक्टर में लगातार बढ़ते ठेकाकरण, छँटनी, नये स्थायी मज़दूरों की बहाली न होना, ठेका मज़दूरों से ज़्यादा उनके लिए खतरे की घंटी है। यह दिखाता है कि स्थायी मज़दूरों का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। पूँजीपतियों के इन “अच्छे दिनों” में जहाँ एक-एक कर मज़दूरों के अधिकारों पर हमले हो रहे हैं वहाँ यह कोई बड़ी बात नही होगी कि एक ही झटके में स्थायी मज़दूरों का पत्ता काटकर कारखानों-उद्योगों में शत प्रतिशत ठेकाकरण कर दिया जाये। इसीलिए मारुति ही नहीं बल्कि पूरे सेक्टर के स्थायी मज़दूरों के लिए ज़रूरी है कि वे अपने संकीर्ण हितों से ऊपर उठकर ठेकेदारी प्रथा के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलन्द करें और एक वर्ग के तौर पर एकजुट होकर संघर्ष करें।
वहीं मारुति में ठेके पर काम कर रहे मज़दूरों को समझना पड़ेगा कि उनकी एकता आज पूरे सेक्टर के मज़दूरों के साथ बनती है। सैकड़ो वेंडर कंपनियों में बेहद खस्ताहाल में काम कर रहे श्रमिक असल में उनके ही भाई हैं। सनबीम, रीको, जेबीएम, कृष्णा मारुति, ब्रिजस्टोन, टलब्रोस जैसी तमाम वेंडर कंपनियाँ जो असल में मारुति, हीरो, होंडा, हुंडई, निसान सरीखी बड़ी कंपनियों के लिए काम करती हैं इनमे काम कर रहा हरएक मज़दूर अपने काम से, वर्ग हित से एक दूसरे से जुड़ा हुआ है और इसीलिए अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए इनका संघर्ष भी एक है। आज किसी भी माँग या संघर्ष का चरित्र कारखाना केंद्रित नहीं बल्कि सेक्टर केंद्रित बनता है। इसीलिए आज पूरे सेक्टर के पैमाने पर एकजुट होकर संघर्ष करने की ज़रूरत है। इसीलिए आज सिर्फ अपने आपको कारखाना केंद्रित यूनियन में संगठित करने से संघर्ष न ही लड़ा जा सकता है और न ही जीता जा सकता है। इसीलिए पूरे सेक्टर के पैमाने पर बनी यूनियन ही आज के समय की ज़रूरत को पूरा कर सकने में सक्षम साबित हो सकती है। आज गुडगाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल की औद्योगिक पट्टी में ‘ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन’ ऐसी ही एक यूनियन है। यह यूनियन किसी भी चुनावबाज़ पार्टी से कोई ताल्लुक नहीं रखती है। यह मज़दूरों की पहलकदमी से बनी एक स्वतंत्र क्रान्तिकारी सेक्टरगत यूनियन है और मारुति मजदूरों पर हुए बर्बर लाठीचार्ज के ख़िलाफ़ ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन ने पर्चा वितरण करके पूरे सेक्टर के मज़दूरों से अपने हक़-अधिकारों के लिए संघर्ष के वास्ते एकजुट होने का आह्वान किया। क्योंकि अपनी क्रांतिकारी सेक्टरगत यूनियन के बिना अलग-अलग कारखानों में होने वाले मज़दूरों के संघर्ष किसी फैसलाकुन अंजाम तक नहीं पहुँच पायेंगे।

मज़दूर बिगुल, अक्‍टूबर-नवम्‍बर 2015


 

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