Category Archives: फ़ासीवाद / साम्‍प्रदायिकता

एक विस्मृत गौरवशाली विरासत

फासीवाद के विरुद्ध 1920 और 1930 के दशक में पूरे यूरोप में जिन लोगों ने सर्वाधिक जुझारू ढंग से जनता को लामबन्द किया था और फासिस्टों से सड़कों पर लोहा लिया था, वे कम्युनिस्ट ही थे। 1934 से 1939 के बीच ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी ने जो फासीवाद-विरोधी मुहिम चलाई थी, उसका एक गौरवशाली इतिहास रहा है, जो आज बहुतेरे लोग नहीं जानते। ‘केबल स्ट्रीट की लड़ाई’ (4 अक्टूबर, 1936) ऐसी ही एक ऐतिहासिक घटना थी। उस दिन 40,000 सदस्यों वाली ओसवाल्ड मोस्ले की ‘ब्रिटिश यूनियन ऑफ फासिस्ट्स’ लंदन के पूर्वी छोर से केबल स्ट्रीट और गार्डिनर्स कॉर्नर होते हुए (यह इलाका यहूदी बहुल था) एक मार्च निकाल रही थी। कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों की संख्या उस समय मात्र 11,500 थी, पर उन्होंने आनन-फानन में एक लाख लोगों का लामबन्द करके फासिस्ट मार्च के रास्ते को रोक कर दिया और बी-यू-एफ- के यहूदी अल्पसंख्यक विरोधी फासिस्ट गुण्डों को खदेड़ दिया। ये तस्वीरें ‘केबल स्ट्रीट की लड़ाई’ की ही हैं। फिल पिरैटिन ने अपनी पुस्तक ‘अवर फ्लैग स्टेज़ रेड’ (1948) में इस घटना का विस्तृत विवरण दिया है। उस समय कम्युनिस्ट पार्टी की ताकत संसदमार्गी वाम, सामाजिक जनवादियों और त्रात्स्कीवादियों (लेबर पार्टी और सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी आदि) से कम थी, पर जुझारू फासीवाद-विरोधी संघर्ष में अग्रणी भूमिका कम्युनिस्टों की ही थी। कम्युनिस्टों की ‘पॉपुलर फ्रण्ट’ की रणनीति को सुधारवादी बताने वाले त्रत्स्कीपंथी ब्रिटेन में अच्छी-खासी संख्या में थे, पर फासिस्टों के विरुद्ध सड़कों पर मोर्चा लेने के बजाय वे माँदों में दुबके रहे।

मोदी के विकास के “गुजरात मॉडल” की असलियत

गुजरात देश में धनी-ग़रीब के बीच सबसे अधिक अन्तर वाले क्षेत्रों में से एक है। प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में अग्रणी इस राज्य में बाल कुपोषण 48 प्रतिशत है जो राष्ट्रीय औसत से ऊपर है और इथियोपिया और सोमालिया जैसे दुनिया के अति पिछड़े देशों से भी (वहाँ 33 प्रतिशत है) अधिक है। ‘ग्लोबल हंगर इण्डेक्स’ के अनुसार, गुजरात भारत के पाँच सबसे पिछड़े राज्यों में आता है। इसकी स्थिति बेहद ग़रीब देश हाइती से भी बदतर है। बाल मृत्यु दर भी गुजरात में 48 प्रतिशत है। भारत में इस मामले में सबसे बदतर राज्यों में इसका दसवाँ स्थान है। गुजरात के एक तिहाई वयस्कों का ‘बॉडी मास इण्डेक्स’ 18.5 है। इस मामले में यह भारत का सातवाँ सबसे बदतर राज्य है। प्रसव के समय स्त्रियों की मृत्यु की दर भी गुजरात में सबसे ऊपर है।

चाय बेचने की दुहाई देकर देश बेचने के मंसूबे

केवल किसी की व्यक्तिगत पृष्ठभूमि ग़रीब या मेहनतकश का होने से कुछ नहीं होता। बाबरी मस्जिद ध्वंस करने वाली उन्मादी भीड़ में और गुजरात के दंगाइयों में बहुत सारी लम्पट और धर्मान्ध सर्वहारा-अर्धसर्वहारा आबादी भी शामिल थी। दिल्ली गैंगरेप के सभी आरोपी मेहनतकश पृष्ठभूमि के थे। भारत की और दुनिया की बुर्जुआ राजनीति में पहले भी बहुतेरे नेता एकदम सड़क से उठकर आगे बढ़े थे, पर घोर घाघ बुर्जुआ थे। कई कांग्रेसी नेता भी ऐसे थे। चाय बेचने वाला यदि प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी है और इतिहास-भूगोल-दर्शन-सामान्य ज्ञान – सबकी टाँग तोड़ता है तो एक बुर्जुआ नागरिक समाज का सदस्य भी उसका मज़ाक उड़ाते हुए कह सकता है कि वह चाय ही बेचे, राजनीति न करे। चाय बेचने वाला यदि एक फासिस्ट राजनीति का अगुआ है तो कम्युनिस्ट तो और अधिक घृणा से उसका मज़ाक उड़ायेगा। यह सभी चाय बेचने वालों का मज़ाक नहीं है, बल्कि उनके हितों से विश्वासघात करने वाले लोकरंजक नौटंकीबाज़ का मज़ाक है।

आज़ादी, बराबरी और इंसाफ के लिए लड़ने वाली मरीना को इंक़लाबी सलाम!

स्पेन का गृहयुद्ध सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद का एक अद्भुत उदाहरण था जब फासिस्टों से गणतांत्रिक स्पेन की रक्षा करने के लिए पूरी दुनिया के 50 से अधिक देशों से कम्युनिस्ट कार्यकर्ता स्पेन पहुँचकर अन्तरराष्ट्रीय ब्रिगेडों में शामिल हुए थे। हज़ारों कम्युनिस्टों ने फासिस्टों से लड़ते हुए स्पेन में अपनी कुर्बानी दी थी। इनमें पूरी दुनिया के बहुत से श्रेष्ठ कवि, लेखक और बुद्धिजीवी भी थे। उस वक़्त जब दुनिया पर फासिज़्म का ख़तरा मँडरा रहा था, जर्मनी में हिटलर और इटली में मुसोलिनी दुनिया को विश्वयुद्ध में झोंकने की तैयारी कर रहे थे, ऐसे में स्पेन में फासिस्ट फ्रांको द्वारा सत्ता हथियाये जाने का मुँहतोड़ जवाब देना ज़रूरी था। जर्मनी और इटली की फासिस्ट सत्ताएँ फ्रांको का साथ दे रही थीं लेकिन पश्चिमी पूँजीवादी देश बेशर्मी से किनारा किये रहे और उसकी मदद भी करते रहे। केवल स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत संघ ने फ्रांकों को परास्त करने का आह्वान किया और कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल के आह्वान पर हज़ारों- हज़ार कम्युनिस्टों ने स्पेन की मेहनतकश जनता के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ते हुए बलिदान दिया।

कविता – जब फ़ासिस्ट मज़बूत हो रहे थे – बेर्टोल्ट ब्रेष्ट Poem : When the Fascists kept getting stronger / Bertolt Brecht

जर्मनी में
जब फासिस्ट मजबूत हो रहे थे
और यहां तक कि
मजदूर भी
बड़ी तादाद में
उनके साथ जा रहे थे
हमने सोचा
हमारे संघर्ष का तरीका गलत था
और हमारी पूरी बर्लिन में
लाल बर्लिन में
नाजी इतराते फिरते थे
चार-पांच की टुकड़ी में
हमारे साथियों की हत्या करते हुए
पर मृतकों में उनके लोग भी थे
और हमारे भी
इसलिए हमने कहा
पार्टी में साथियों से कहा
वे हमारे लोगों की जब हत्या कर रहे हैं
क्या हम इंतजार करते रहेंगे
हमारे साथ मिल कर संघर्ष करो

नमो फ़ासीवाद! रोगी पूँजी का नया राग!

औद्योगिक कारपोरेट घराने और वित्त क्षेत्र के मगरमच्छ नवउदारवाद की नीतियों को बुलेट ट्रेन की रफ्तार से चलाना चाहते हैं। इसके लिये एक निरंकुश सत्ता की जरूरत होगी। इसलिए इन शासक वर्गों का एक हिस्सा भी नरेन्द्र मोदी पर दाँव आजमाना चाहता है। उसे बस डर यही है कि साम्प्रदायिक तनाव ऐसी सामाजिक अराजकता न पैदा कर दे कि पूँजी निवेश का माहौल ही ख़राब हो जाये। पूँजीपति वर्ग हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद का इस्तेमाल जंजीर से बँधे कुत्ते के समान करना चाहता है। पर हालात की गति उनकी इच्छा से स्वतंत्र भी हो सकती है। जंजीर से बँधा कुत्ता जंजीर छुड़ाकर अपनी मनमानी भी कर सकता है।

आसाराम ही नहीं बल्कि समूचे धर्म के लुटेरे चरित्र की पहचान करो!

साधू, सन्तों, पादरियों, मौलवियों आदि को हमेशा से ही शोषक वर्ग इस्तेमाल करते आए हैं। इसके बदले में इन्हें भी लूट का हिस्सा प्राप्त होता आया है। जैसे-जैसे सामाजिक- आर्थिक-राजनीतिक हालात बदलते गए हैं, वैसे-वैसे धर्म भी बदलता गया है। आज पूँजीवादी व्यवस्था कायम हो चुकी है और धर्म भी पूँजीवादी धर्म बन चुका है। धर्म के प्रचारक साधू, सन्त, पादरी, मौलवी आदि भी पूँजीवादी रंग में रंगे गए हैं। आम तौर पर ये प्रचारक, ये ‘‘भगवान के भेजे हुए’’, या ‘‘भगवान का रूप’’ ये सन्त-बाबा खुद भी पूँजीपति बन चुके हैं। ये अब साधू-सन्त बाद में हैं बल्कि कारोबारी, दलाल, पूँजीपति पहले हैं।

कविता – 6 दिसम्बर 1992 की स्मृति में / कविता कृष्‍णपल्‍लवी

1947 में देश के टुकड़े होने के साथ ही
सदी की सबसे बड़ी साम्प्रदायिक मारकाट हुई
इसी धरती पर, बहती रही लहू की धार, लगातार।
दशकों तक टपकता रहा लहू, रिसते रहे ज़ख़्म
और उस लहू को पीकर तैयार होती रहीं
धार्मिक कट्टरपंथी फासिज़्म की फसलें
और दंगों के आँच पर सियासी चुनावी पार्टियाँ
लाल करती रहीं अपनी गोटियाँ।
फिर रथयात्रा पर निकला जुनून की गर्द उड़ाता
फासिज़्म का लकड़ी का रावण
अपने को लौहपुरुष कहता हुआ
और एक दिन पूँजीवादी सड़ांध से उपजा
सारा का सारा फासिस्टी उन्माद
टूट पड़ा मेहनतकश जनों की एकता पर, जीवन पर
और स्वप्नों पर, हमारे इतिहास-बोध पर,
शहादतों और विरासतों की हमारी साझेदारी पर,
हमारे भविष्य की योजनाओं के शिद्दत से बुने गये
ताने-बाने पर।

“हमको फ़ासीवाद माँगता!”

पूँजीपतियों-बैंकरों-व्यापारियों-कुलकों और तमाम उच्चमध्यवर्गीय परजीवी खटमलों-जूँओं-मच्छरों को ‘गुजरात मॉडल’ चाहिए। वे मचल रहे हैं: “मोदी आओ, पूरे देश को गुजरात बनाओ।” “कुछ दंगे हों, कुछ राज्य-प्रायोजित नरसंहार हों, कोई बात नहीं, फिर डंडे के जोर से निवेश-अनुकूल माहौल बनाओ, ‘डीरेग्यूलेशन’ करो, ‘टैक्स-ब्रेक’ दो, हर काम में ‘पी.पी.पी.’ कर दो, श्रम कानूनों को पूरी तरह ताक़ पर धर दो, मज़दूरों की हर आवाज को कुचल दो, और हमारे सारे कष्ट हर लो”- पूँजीपतियों की यही माँग है। वैसे नवउदारवादी नीतियों के प्रति कांग्रेस भी कम वफादार नहीं है। पर पूँजीपति वर्ग बहुत जल्दी में है, उद्विग्न है, व्यग्र है, चिन्तित है, भयातुर है। इसलिए वह मोदी को अवसर देने के पक्ष में ज़्यादा हे। वैसे मोदी आयें या राहुल, एक बात तय है, सरकार तो पूँजीपतियों की ही बनेगी।

साम्प्रदायिकता के खिलाफ़ गत्ते की तलवार भाँजते मौक़ापरस्त जोकरों का प्रहसन

प्रश्न केवल चुनावी राजनीति का है ही नहीं। पूँजीवादी संकट पूरे समाज में (क्रान्तिकारी शक्तियों की प्रभावी उपस्थिति के अभाव में) फ़ासीवादी प्रवृत्तियों और संस्कृति के लिए अनुकूल ज़मीन तैयार कर रहा है। संघ परिवार अपने तमाम अनुसंगी संगठनों के सहारे बहुत व्यवस्थित ढंग से इस ज़मीन पर अपनी फसलें बो रहा है। वह व्यापारियों और शहरी मध्यवर्ग में ही नहीं, आदिवासियों से लेकर शहरी मज़दूरों की बस्तियों तक में पैठकर काम कर रहा है। इसका जवाब एक ही हो सकता है। क्रान्तिकारी शक्तियाँ चाहे जितनी कमज़ोर हों, उन्हें बुनियादी वर्गों, विशेषकर मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक प्रचार-उद्वेलन, लामबंदी और संगठन के काम को तेज़ करना होगा। जैसाकि भगतसिंह ने कहा था, जनता की वर्गीय चेतना को उन्नत और संगठित करके ही साम्प्रदायिकता का मुक़ाबला किया जा सकता है।