Category Archives: समाज

फ़ासिस्टों के “रामराज्य” में स्त्रियों के विरुद्ध बढ़ते बर्बर अपराध

पिछले दिनों देश के गृहमंत्री अमित शाह उत्तर प्रदेश में क़ानून-व्यवस्था की तारीफ़ में बोल गये कि यहाँ आधी रात को कोई महिला गहने पहनकर निकल सकती है और उसे कुछ नहीं होगा! लेकिन कोई अन्धभक्त भी शायद ही इस जुमले को सही मानेगा। सच तो यह है कि उत्तर प्रदेश में हत्याओं और बर्बर यौन हिंसा सहित तमाम तरह के अपराध बेरोकटोक जारी हैं। केवल पिछले चन्द हफ़्तों के भीतर उत्तर प्रदेश में और देश के कई राज्यों में स्त्रियों के विरुद्ध बर्बर अपराधों की जैसे बाढ़ आ गयी, मगर गृहमंत्री से लेकर संसद में ड्रामे करने वाली भाजपा की महिला सांसद शान्त हैं।

ओबीसी आरक्षण बिल, जाति आधारित जनगणना और आरक्षण पर अस्मितावादी राजनीति के निहितार्थ

जातीय जनगणना के मुद्दे पर एक बार फिर से सियासत तेज़ होती दिखायी दे रही है। विभिन्न अस्मितावादी जातिवादी पार्टियाँ अपना जातीय समर्थन और जनाधार क़ायम रखने के लिए रस्साकशी हेतु आ जुटी हैं। राजग की सहयोगी पार्टी जद(यू) के नीतीश कुमार भाजपा की तरफ़ आँखें निकाल रहे हैं तो दूसरी ओर अपने राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी राजद के लालूप्रसाद यादव के लाल तेजस्वी यादव तथा अन्य दलों को साथ लेकर इस मसले पर प्रधानमंत्री मोदी से मुलाक़ात भी कर रहे हैं।

कोरोना काल में भी बदस्तूर जारी है औरतों के ख़िलाफ़ दरिन्‍दगी

कोरोना काल में लॉकडाउन की वजह से चोरी, लूटपाट जैसे कई क़िस्म के अपराधों में तो कुछ कमी आयी, लेकिन औरतों के ख़िलाफ़ होने वाले विभिन्न क़िस्म के अपराधों में कमी आना तो दूर, उल्‍टे वे बढ़े ही हैं। इस साल जुलाई के महीने में राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा जारी की गयी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ कोरोना महामारी के दौरान औरतों द्वारा आयोग में की गयी शिकायतों में पहले की तुलना में 25 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है।

टोक्यो ओलम्पिक में भारत का प्रदर्शन: एक समीक्षा

अगस्त महीने में टोक्यो ओलम्पिक खेलों का समापन हुआ और भारत को इस बार एक स्वर्ण, दो रजत और चार काँस्य पदक मिले हैं। इस प्रकार कुल पदकों की संख्या सात रही है। हर छोटी से छोटी उपलब्धि की तरह मोदी जी इस बार भी मौक़े पर चौका मारने के लिए पहले से ही तैयार बैठे थे। गोदी मीडिया, आईटी सेल और अन्य सभी प्रचार तंत्रों का इस्तेमाल कर मोदी जी देशवासियों के सामने ऐसा स्वांग रच रहे हैं कि देखने वाले को लगता है जैसे मोदी जी ख़ुद ही सातों पदक जीत कर आये हैं! ख़ैर इन लफ़्फ़ाज़ियों और ढोंग को एक किनारे कर ओलम्पिक खेलों में भारत के प्रदर्शन की एक वस्तुपरक समीक्षा करने की ज़रूरत है।

बेहिसाब बढ़ती महँगाई यानी ग़रीबों के ख़िलाफ़ सरकार का लुटेरा युद्ध!

‘बहुत हुई महँगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार’ के लुभावने नारे से जनता के एक हिस्से को भरमाकर उसके वोट बटोरने के बाद भाजपा की अपनी महँगाई तो दूर हो गयी, मगर आम लोगों पर महँगी क़ीमतों का क़हर टूट पड़ा है। पिछले कुछ वर्षों से ही खाने-पीने और बुनियादी ज़रूरतों की चीज़ों की महँगाई बेरोकटोक बढ़ रही थी। लेकिन पिछले डेढ़ वर्षों में कोरोना महामारी के दौरान उछाले गये मोदी के नारे “आपदा में अवसर” का लाभ उठाकर उद्योगपतियों-व्यापारियों-जमाख़ोरों ने दाम बढ़ाने के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं।

“महाशक्ति” बनते देश में ऑक्सीजन, दवा, बेड की कमी से दम तोड़ते लोग!

कोरोना महामारी की दूसरी लहर भयावह रूप धारण कर चुकी है। इस दौरान विश्वगुरु भारत की चिकित्सा व्यवस्था के हालात भी खुलकर हमारे सामने आ गये हैं। देश में कोविड से होने वाली मौतों का आँकड़ा 2,38,270 पार कर चुका है। हर रोज़ 4.01 लाख से अधिक कोरोना पॉज़िटिव मामले दर्ज किये जा रहे हैं वहीं 4,187 मौतें आये दिन हो रही हैं। असल में संक्रमित लोगों और कोरोना से होने वाली मौतों के आँकड़े इससे कहीं अधिक हैं जिन्हें सरकार व मीडिया द्वारा लगातार दबाया जा रहा है।

खेतिहर मज़दूरों की बढ़ती आत्महत्याओं के लिए कौन ज़िम्मेदार है?

2011 की जनगणना के अनुसार देश में खेती में लगे हुए कुल 26.3 करोड़ लोगों में से 45% यानी 11.8 करोड़ किसान थे और शेष लगभग 55% यानी 14.5 करोड़ खेतिहर मज़दूर थे। पिछले 10 वर्षों में यदि किसानों के मज़दूर बनने की दर वही रही हो, जो कि 2000 से 2010 के बीच थी, तो माना जा सकता है कि खेतिहर मज़दूरों की संख्या 15 करोड़ से काफ़ी ऊपर जा चुकी होगी, जबकि किसानों की संख्या 11 करोड़ से और कम रह गयी होगी। मगर ग्रामीण क्षेत्र की सबसे बड़ी आबादी होने के बावजूद खेतिहर मज़दूरों की बदहाली और काम व जीवन के ख़राब हालात की बहुत कम चर्चा होती है।

आपदा कैसी भी हो, उसकी मार सबसे ज़्यादा मज़दूर वर्ग पर ही पड़ती है

तालकटोरा इण्डस्ट्रियल एरिया में स्थित रेलवे के पुर्जे़ बनाने वाली फ़ैक्ट्री ‘प्राग’ में काम करने वाले सौरभ ने ‘मज़दूर बिगुल’ के वितरण अभियान के दौरान हमें बताया कि उन्हें लॉकडाउन के बाद फिर से खुली फ़ैक्ट्री में दोबारा बुला तो लिया गया लेकिन नये जूते और पोशाक नहीं दी गयी। और अब वे लोहा ढोने का काम करने के जोखिमों को उठाकर फटे जूतों के साथ ही अपना काम जैसे-तैसे चला रहे हैं।
साथ ही कम्पनी ने एक नया नियम यह लगाया कि किसी भी मज़दूर की उपस्थिति बिना स्मार्टफ़ोन के दर्ज नहीं हो सकेगी। और इसलिए उन्होंने क़िस्तों पर एक नया मोबाइल फ़ोन ख़रीदा।

भण्डारा में 10 नवजात शिशुओं की मौत की ज़िम्मेदार पूँजीवादी व्यवस्था है

भण्डारा में 10 नवजात शिशुओं की मौत की घटना हर संवेदनशील व्यक्ति को अन्दर तक झकझोर कर रख सकती है। किसी भी व्यक्ति के अन्दर उन माओं की चीख़ों- चीत्कारों को सुनकर ज़रूर छटपटाहट पैदा होगी। अगर ऐसा नहीं है, तो शायद आप भी इस मुनाफ़ा केन्द्रित व्यवस्था के अन्दर गिद्ध व नरभक्षी जमात में शामिल हो चुके हैं। भण्डारा ज़िला अस्पताल के SNCU (Sick Neonatal Care Unit) में आग लगने की वजह से 10 नवजात शिशुओं की मौत हो गयी।

महामारी और संकट के बीच पूँजीपतियों के मुनाफ़े में हो गयी 13 लाख करोड़ की बढ़ोत्तरी!

कोरोना महामारी की वजह से आजकल सभी काम-धन्धे बन्द हुए मालूम पड़ते हैं। लगभग हर गली-मोहल्ले में तो ही रोज़गार का अकाल ही पड़ा हुआ है। वहीं, दूसरी तरफ़, कोरोना काल में अम्बानी-अडानी आदि थैलीशाहों के चेहरे पहले से भी ज़्यादा खिले हुए हैं। करोड़ों-करोड़ का मुनाफ़ा खसोटकर वे अपनी महँगी पार्टियों में जश्न मना रहे हैं।