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हीरो मोटोकॉर्प लिमिटेड में मज़दूरों के हालात

छह हज़ार वर्कर होने पर भी इस कम्पनी में वर्कर पूरे नहीं पड़ते हैं। बाहर की कम्पनियों को अपने वर्कर इस कम्पनी में भेजने पड़ते हैं ताकि वो स्टाक माल को लाइन पर पहुँचाते रहें। कम्पनी के वर्करों को दो टाइम चाय-नाश्ता और खाना कम्पनी की तरफ से मिलता है। मोटोकार्प के लिए ही काम करने वाले बाहर के वर्करों के लिए चाय-नाश्ते पर पाबन्दी रहती है। यहाँ पर सुरक्षा गार्डों को सख़्त आदेश है कि बाहर के वर्करों को भगाते रहें। ये सुरक्षा गार्ड इन वर्करों को ऐसे भगाते हैं जैसे कुत्तों को भगाया जाता है। खैर, चाय तो कभी-कभार डाँट-डपट और गाली सुनकर मिल भी जाती है, मगर खाने की कैण्टीन में सख़्त पाबन्दी है। बाहर के वर्करों को खाने के लिए तीस रुपये खर्च करने पड़ते हैं और अगर बिना कूपन लिए खाने की लाइन में पकड़े गये, तो 3 घण्टे तक बर्तन साफ़ करने पड़ते हैं। अगर आप दूसरी कम्पनी में काम करते हैं, तो उस कम्पनी से आपका बायोडाटा निकालकर, जब से आप काम कर रहे हैं तब से रोज़ के हिसाब से 30 रुपये काट लेंगे और आप कुछ नहीं कर सकते।

नम्बर एक हरियाणा की असलियत

सुबह 9:30 बजे से शाम 6:15 की ड्यूटी करने पर 8 घण्टे के पैसे मिलते हैं। इसमें से मज़दूर के 45 मिनट लंच के नाम पर कट जाते हैं। पूरे महीने की तनख्‍वाह 10 से 15 तारीख़ के बीच में मिलती है। 4300 रुपये महीना पर काम करने वाले वर्कर को 30 से 15 तारीख़ के बीच में अक्सर रुपयों की ज़रूरत पड़ जाती है। उस समय, ठेकेदार के आगे-पीछे भीख माँगते रहो, तब भी वे एक रुपया तक नहीं देते और ऐसे समय में 10 रुपये सैकड़ा के हिसाब से ब्याज पर कर्ज लेना पड़ता है क्योंकि खाने-पीने का सामान, किराया-भाड़ा, दवा, सब्जी व किसी अन्य बुनियादी ज़रूरत का सामान उधारी की दुकान पर नहीं मिलता। इतना सब करने के बाद भी मज़दूर के घण्टे काटना व हाजिरी काट लेना जैसी चीज़ें चलती रहती हैं। अगर काम है तो जबरन ओवरटाइम करना पड़ता है, और अगर काम नहीं है तो जबरन भगा भी देते हैं। अगर कम्पनी में ही बने रहो तो हाजिरी ही नहीं चढ़ायेंगे। यहाँ काम करने के बाद हरियाणा के नम्बर एक होने की असलियत पता चली और यह अन्दाजा हुआ कि हरियाणा को असल में किन थैलीशाहों के लिए नम्बर एक कहा जाता होगा!

‘ब्राण्डेड’ कपड़ों के उत्पादन में लगे गुड़गाँव के लाखों मज़दूरों की स्थिति की एक झलक

मजदूरों से दवाब में काम करवाने और उन्हें काम न छोड़ने देने के लिये किसी भी कपड़ा कम्पनी में मजदूरों का वेतन समय पर नहीं दिया जाता। ज्यादातर मजदूर छह महीने या एक साल में ठेकेदारों के दबाव और सुपरवाइजरों द्वारा की जाने वाली गाली-गलौज और मारपीट से परेशार होकर कम्पनियाँ बदल देते हैं। मजदूरों को ओवरटाइम ठेकेदारों की मर्जी से करना पड़ता है और ओवर टाइम की जानकारी उसी दिन छुट्टी होने से सिर्फ़ थोड़ा पहले दी जाती है। ओवरटाइम से मना करने पर ठेकेदारों द्वारा गाली-गलौज व मारपीट करना और काम से निकाल देना आम बात है। कभी-कभी ज्यादा काम होने पर कम्पनियाँ अन्दर से ताला लगाकर मजदूरों से तीन से चार शिफ़्टों में लगातार काम करवाती हैं। जिन कम्पनियों में असेम्बली लाईन में कपड़ों की सिलाई और कटाई का काम होता है उनमें सुपरवाइजर लगतार मजदूरों पर नजर रखते हैं, और यदि कोई मजदूर लाइन में काम करने में देर करता है तो उसे काम से निकाल देने की धमकी देकर तेज काम करवाया जाता है। कुछ कम्पनियों में एक लाइन में कटाई, सिलाई, जैसे कामों के लिये 40-50 मजदूर होते हैं जिसके लिये ज्यादा कुशल मजदूरों की आवश्यकता नहीं पड़ती और ज्यादातर ठेके पर रखे जाने वाले मजदूरों से ही लाइन में सिलाई कटाई जैसे काम करवाये जाते हैं। एक मजदूर ने बताया कि औसत रूप में हर मजदूर एक घंटे में 35 कपड़ों पर काम करता है, यानि दो मिनट से भी कम समय में मजदूर एक कपड़े को प्रोसेस करते हैं और लगातार 12 से 16 घण्टे मशीन की तरह लगे रहते हैं।

मज़दूरों का अमानवीकरण

चौक पर मेरी मुलाक़ात एक भिखारी से हुई जिसकी उम्र करीब 35 साल थी। शरीर से स्वस्थ था। सभी मज़दूर उसको घेरकर सलाह दे रहे थे-अरे अभी जवान हो, भीख क्यों माँग रहे हो। कहीं काम क्यों नहीं कर लेते। तो उसने अपनी कहानी सुनायी कि भइया मैं भिखारी नहीं हूँ। एक महीना पहले काम की तलाश में गुड़गाँव आया था। मेरे पास करीब छह सौ रुपये थे। रहने का ठिकाना नहीं था। रात में सड़क किनारे सो रहा था। पुलिस वाले आये, मारा-पीटा, मेरे रुपये भी छीन लिये। मैंने ख़ूब हाथ जोड़े, रोया, गिड़गिड़ाया पर वे गाली-गलौच करके और यह कहकर चले गये कि अगली बार यहाँ दिखायी दिये तो जेल में डाल दूँगा। मैं गाँव से आया था, घर में बीवी-बच्चे मेरी राह देख रहे होंगे। तो मैं डर गया। यही सोचकर तसल्ली कर ली कि चलो हाथ-पैर सही सलामत है। कहीं किसी कम्पनी में काम मिल जायेगा। 3 दिन तक लगातार फैक्ट्रियों के चक्कर काटता रहा, मगर काम नहीं मिला। किसी होटल वाले का काम करके प्लेट धोकर माँगने से खाना मिल जाता था। सो मैं ज़िन्दा हूँ। फिर एक रात पुलिस वाले तो नहीं मगर तीन पियक्कड़ों से मेरी मुठभेड़ हो गयी। वे यहीं लोकल के ही गुण्डे टाइप के थे। नशे में मुझसे मारपीट की और मेरा पैण्ट और कमीज़ भी फाड़ दिया। अब मेरे पास दो रास्ते थे। या तो में मौत को अपने गले लगाऊँ या जैसे-तैसे ज़िन्दा रहूँ। तो लोगों से माँग-जाँचकर ही ज़िन्दा हूँ। अब मेरे पास ये शरीर और एक यही चड्ढी बनियान ही रह गया। मेरी बीवी और दो छोटे-छोटे बच्चे मेरा इन्तज़ार कर रहे होंगे कि पापा दिल्ली में पैसा कमाने गये हैं। और एक दिन हम सबकी हालत अच्छी हो जायेगी।

मारुति के मज़दूरों के समर्थन में विभिन्न जनसंगठनों का दिल्ली में प्रदर्शन

मारुति सुज़ुकी, मानेसर के सैकड़ों मजदूरों को मैनेजमेण्‍ट द्वारा मनमाने ढंग से बर्खास्त किये जाने और मज़दूरों के लगातार जारी उत्पीड़न के विरुद्ध विभिन्न जन संगठनों, यूनियनों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं ने 21 अगस्त को नयी दिल्ली में विरोध प्रदर्शन किया और केन्द्रीय श्रम मन्त्री को ज्ञापन देकर मज़दूरों की बर्खास्तगी पर रोक लगाने की माँग की। इसी दिन एक महीने की तालाबन्दी के बाद कम्पनी मैनेजमेण्ट ने कारख़ाना दुबारा शुरू करने की घोषणा की थी। सुबह से हो रही बारिश के बावजूद जन्तर-मन्तर पर हुए प्रदर्शन में दिल्ली, गाज़ियाबाद, नोएडा और गुड़गाँव से बड़ी संख्या में आये मज़दूरों तथा कार्यकर्ताओं ने भाग लिया।

गुड़गाँव के आटोमोबाइल मज़दूरों की स्थिति की एक झलक

इन सभी में ठेका मज़दूरों की स्थिति लगभग एक समान है। जाँच-पड़ताल और मज़दूरों से बातचीत करने पर यह जानकारी मिली। सभी में 8-8 घण्टे की तीन पालियों में 24 घण्टे काम होता है। ठेका मज़दूरों के लिए 8 घण्टे काम के बदले महीने में 4850 रुपये का वेतन निर्धारित है, जिसमें 12 प्रतिशत पीएफ और 1.75 प्रतिशत ईएसआई कटने के बाद लगभग 4100 रुपये महीना वेतन मज़दूर को मिलता है। पीएफ की कोई रसीद या ईएसआई कार्ड किसी मज़दूर को नहीं दिया जाता। सिर्फ काम पर आने के लिए एक गेटपास दे दिया जाता है। ज्यादातर मज़दूरों का कहना है कि कम्पनी छोड़ने पर पीएफ या ईएसआई का कोई पैसा कम्पनी नहीं देती, और मज़दूर कुछ समय तक चक्कर लगाने के बाद थक-हार कर छोड़ देते हैं, क्योंकि उनके पास काम करने का कोई प्रमाण भी नहीं होता। यानी वास्तव में मज़दूरों का कुल वेतन 4100 रुपये ही है। हर जगह ओवरटाइम सिंगल रेट पर दिया जाता है। ऐसे में मज़दूर 12 से 16 घण्टे तक काम करते हैं। 16 घण्टे की डबल शिफ़्ट में काम करने पर मज़दूरों को एक दिन के 180 रुपये अधिक दे दिये जाते हैं। काम पर आने में लेट होने पर आधे दिन का वेतन काट लिया जाता है।

बेकारी के आलम में

मज़दूरों की ज़िन्दगी तबाह और बर्बाद है। बेरोज़गारी का आलम यह है कि लेबर चौक पर सौ में से 10 मज़दूर ऐसे भी मिल जायेंगे जिन्हें महीने भर से काम नहीं मिला। ऐसे में, जब कोई रास्ता नहीं बचता, तो ज़िन्दगी बचाने के लिए वो उल्टे-सीधे रास्ते अपना लेते हैं। ऐसे ही एक तरीक़े के बारे में बताता हूँ — भारत सरकार ने बढ़ती आबादी को रोकने के लिए नसबन्दी अभियान चलाया है। इसी अभियान में लगे दो एजेण्ट यहाँ के लेबर चौक पर लगभग हर रोज़ आते हैं और नसबन्दी कराने पर 1100 रुपये नकद दिलाने का लालच देकर हमेशा कई मज़दूरों को ले जाते हैं। ज़ाहिर सी बात है कि भूख से मरते लोग कोई रास्ता नहीं होने पर इसके लिए भी तैयार हो जाते हैं।

आन्दोलन को थकाकर तोड़ने की पुरानी कहानी फिर दोहरायी जा रही है

मज़दूरों के शोषण-उत्पीड़न की यह सच्चाई उस कम्पनी की है जहाँ एच.एम.एस. पिछले लगभग तीन साल से काम कर रही है और जहाँ मज़दूरों की एक ट्रेड यूनियन भी पंजीकृत है। मज़दूरों के अधिकार लगातार छीने जा रहे है, मज़दूरों में असंतोष लगातार बढ़ रहा है, और एच.एम.एस., एटक, सीटू जैसी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें चुप्पी साधे रहती हैं। लेकिन जब मज़दूरों का दबाव ज्यादा बढ़ जाता है, तब प्रतीकात्मक हड़तालों का सहारा लेकर मज़दूरों के गुस्से को शान्त करने की कोशिश करती हैं। बजाय इसके कि इन आन्दोलनों के माध्यम से वर्तमान व्यवस्था के मज़दूर और जन-विरोधी चरित्र का पर्दाफाश करें और उन्हें व्यापक स्तर पर संगठित करने का प्रयास करें। गुड़गाँव में 20 कम्पनियों में एच.एम.एस. से जुड़ी यूनियनें हैं, जो कभी हरसोरिया जैसे आन्दोलन तो कभी एक दिन के प्रतीकात्मक विरोध जैसी कार्रवाइयाँ करके मज़दूरों के गुस्से पर पानी के छींटे मारने का काम कर रही हैं। अगर एच.एम.एस. अपने साथ जुड़ी सभी यूनियनों को भी मज़दूरों के साझा सवालों पर एक साथ कार्रवाई करने के लिए लामबन्द नहीं कर सकता तो व्यापक मज़दूर एकता के लिए उससे कुछ करने की उम्मीद करना भी बेकार है।

गुड़गाँव औद्योगिक क्षेत्र : सतह के नीचे सुलगते मज़दूर असन्तोष को दिशा देने की ज़रूरत

पिछले कुछ समय से गुडगाँव में अलग-अलग कारख़ानों में भड़के मज़दूरों के ग़ुस्से को देखकर आसानी से अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि इस पूरे औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाली मज़दूर आबादी ज़बरदस्त शोषण का शिकार है। सिर्फ़ ठेका मज़दूर ही शोषण का शिकार नहीं हैं, बल्कि कई कारख़ानों में स्थायी नौकरी वाले मज़दूरों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। मारुति, पावरट्रेन, हीरो होण्डा, मुंजाल शोवा आदि इसके उदाहरण हैं। मगर नेतृत्व और किसी क्रान्तिकारी विकल्प के अभाव में शोषण और उत्पीड़न से बेहाल इस मज़दूर आबादी का आक्रोश अराजक ढंग से इस प्रकार की घटनाओं के रूप में सड़कों पर फूट पड़ता है। इसके बाद पुलिस और मैनेजमेण्ट का दमन चक्र चलता है जिसका मुक़ाबला बिखरे हुए मज़दूर नहीं कर पाते और ग़ुस्से का उबाल फिर शान्त हो जाता है।

ये तो निर्माण मज़दूरों के भीतर सुलगते ग़ुस्से की एक बानगी भर है

आज भारत की कुल मज़दूर आबादी का 93 प्रतिशत हिस्सा असंगठित मज़दूर आबादी का है, जिनके लिए कोई श्रम क़ानून लागू नहीं होता। निर्माण उद्योग में काम करने वाले ठेका मज़दूरों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हो रही है जो इस असंगठित मज़दूर आबादी का एक हिस्सा हैं। इन मज़दूरों की समस्याओं की सुनवाई न तो श्रम विभाग में होती है, न किसी अन्य सरकारी दफ्तर में। ठेकेदार इन मज़दूरों को दासों की तरह मनमर्ज़ी से जहाँ चाहे वहाँ स्थानान्तरित करते रहते हैं।