Category Archives: मज़दूर आन्दोलन की समस्‍याएँ

पंजाब के खेत मज़दूरों के बदतर हालात का ज़िम्मेदार कौन?

पंजाब का नाम आते ही हरेक के मन में एक ख़ुशहाल प्रदेश की छवि ही आती होगी। आये भी क्यों नहीं? यह राज्य हरित क्रान्ति की प्रयोगशाला बना और इसने खाद्यान्न उत्पादन के नये-नये कीर्तिमान स्थापित किये। लेकिन इस ख़ुशहाल छवि के पीछे एक चीज़ को हमसे छिपा दिया जाता है। वह चीज़ है इस चमक-दमक के पीछे ख़ून-पसीना बहाने वाले खेत मज़दूरों का जीवन।

धनी किसान-कुलक आन्दोलन का हालिया घटनाक्रम और “किसान-मज़दूर एकता” के नारे की असलियत

धनी किसान आन्दोलन को शुरू हुए छह महीने से ज़्यादा का वक़्त बीत चुका है। हाल ही में आन्दोलन के छह महीने पूरे होने पर 26 मई को किसानों द्वारा ‘काला दिवस’ मनाया गया था। लेकिन इस मौक़े पर हुए तमाम विरोध प्रदर्शनों में वैसी तादाद और तेवर नहीं दिखे, जो धनी किसान आन्दोलन के शुरुआती दौर में मौजूद थे। दिल्ली की सरहदों पर जारी इस आन्दोलन की जुटानों में पहले के मुक़ाबले किसानों की शिरक़त भी काफ़ी घटी है।

पूँजीवादी किसान, पूँजीवादी ज़मींदार, आढ़तिये, व्यापारी और बिचौलिये किस तरह गाँव के ग़रीबों को लूटते हैं?

हमारे देश में क़रीब 25 करोड़ लोग खेती में लगे हैं। इसमें से क़रीब 14.5 करोड़ खेतिहर मज़दूर हैं और 10.5 करोड़ किसान हैं। लेकिन किसान कोई एक वर्ग नहीं होता है। धनी किसान होते हैं, उच्च मध्यम किसान, मध्य मध्यम किसान, निम्न मध्यम किसान होते हैं और ग़रीब व सीमान्त किसान होते हैं।

एक ऐतिहासिक फ़ासिस्ट नरसंहार में बदल चुकी कोविड महामारी और हठान्ध कोविडियट्स का ऐतिहासिक अपराध

नदियों में सैकड़ों की तादाद में लाशें उतरा रही हैं। नीचे उन्हें कुत्ते किनारे घसीटकर नोच रहे हैं और ऊपर गिद्ध-चील मँड़रा रहे हैं। ‘भास्कर’ जैसे सत्ता-समर्थक अख़बार भी कोविड से वास्तविक मौतों की संख्या सरकारी आँकड़ों से पाँच गुनी अधिक बता रहे हैं। कई शहरों में कोविड से हुई मौतों के सरकारी आँकड़ों और श्मशानों में पहुँची ऐसे मरीज़ों की लाशों की संख्या के बीच दस गुने तक का अन्तर पाया गया है। उत्तर प्रदेश में निजी अस्पताल कोविड से हुई अधिकांश मौतों का कारण दस्तावेज़ों में कुछ और दर्ज कर रहे हैं।

भारत के मज़दूर आन्दोलन के मीरजाफ़र, जयचन्द और वि‍भीषण

इतिहास किसी को कभी माफ़ नहीं करता और साथ ही इतिहास को कभी भुलाया नहीं जा सकता। भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में जितना पुराना इतिहास संसदमार्गी संशोधनवादी भाकपा, माकपा, भाकपा मा.ले.(लिबरेशन) के धोखे, छल, प्रपंच और विश्वासघात का है उतना ही गहरा है मज़दूर वर्ग के बीच इनकी राजनीति के प्रति अविश्वास, शंका और सन्देह का इतिहास। संशोधनवाद का रास्ता पकड़ने के बाद और उससे निकली भाकपा, माकपा और भाकपा मा.ले. (लिबरेशन) ने सर्वहारा वर्ग को उनके ऐतिहासिक मिशन से दूर रखकर पूरे मज़दूर आन्दोलन को बर्बाद करने में अहम भूमिका निभाई है।

खेतिहर मज़दूरों की बढ़ती आत्महत्याओं के लिए कौन ज़िम्मेदार है?

2011 की जनगणना के अनुसार देश में खेती में लगे हुए कुल 26.3 करोड़ लोगों में से 45% यानी 11.8 करोड़ किसान थे और शेष लगभग 55% यानी 14.5 करोड़ खेतिहर मज़दूर थे। पिछले 10 वर्षों में यदि किसानों के मज़दूर बनने की दर वही रही हो, जो कि 2000 से 2010 के बीच थी, तो माना जा सकता है कि खेतिहर मज़दूरों की संख्या 15 करोड़ से काफ़ी ऊपर जा चुकी होगी, जबकि किसानों की संख्या 11 करोड़ से और कम रह गयी होगी। मगर ग्रामीण क्षेत्र की सबसे बड़ी आबादी होने के बावजूद खेतिहर मज़दूरों की बदहाली और काम व जीवन के ख़राब हालात की बहुत कम चर्चा होती है।

मज़दूर आन्दोलन में नौसिखियापन और जुझारू अर्थवाद की प्रवृत्ति से लड़ना होगा

हाल ही में दिल्ली से लगे कुण्डली औद्योगिक क्षेत्र में ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ के कार्यकर्ता नौदीप कौर और शिवकुमार को हरियाणा पुलिस ने गिरफ़्तार किया और उनका हिरासत के दौरान भयानक दमन किया गया। नौदीप कौर को न सिर्फ़ बेरहमी से पीटा गया बल्कि पुरुष पुलिस वालों द्वारा उनके गुप्तांगों पर प्रहार किया गया। शिवकुमार को पुलिस ने गैर क़ानूनी तरीके से हिरासत में रखकर पीटा और गिरफ़्तारी के लम्बे समय बाद काफ़ी विरोध होने पर उनकी मेडिकल जाँच करायी गयी। शिवकुमार के पैरों के नाखून तक नीले पड़ गये हैं।

कौन हैं देविन्दर शर्मा और उनका “अर्थशास्त्र” और राजनीति किन वर्गों की सेवा करती है?

कोई भी संजीदा कम्युनिस्ट मौजूदा धनी किसान आन्दोलन की माँगों (मूलत: लाभकारी मूल्य की माँग) का समर्थन नहीं कर सकता है, क्योंकि पिछले कई दशकों के दौरान मार्क्सवादी और ग़ैर-मार्क्सवादी अध्येता यह दिखला चुके हैं कि लाभकारी मूल्य की पूरी व्यवस्था ग़रीब-विरोधी है और शुद्धत: धनी किसानों को राजकीय हस्तक्षेप द्वारा व्यापक मेहनतकश ग़रीब जनता की क़ीमत पर दिया जाने वाला बेशी मुनाफ़ा व लगान है।

किसान आन्दोलन में भागीदारी को लेकर ग्राम पंचायतों और जातीय पंचायतों का ग़ैर-जनवादी रवैया

अपनी आर्थिक माँगों के लिए विरोध करना हरेक नागरिक, संगठन और यूनियन का जनवादी हक़ है। बेशक लोगों के जनवादी हक़ों को कुचलने के सत्ता के हर प्रयास का विरोध भी किया जाना चाहिए। इसी प्रकार किसी मुद्दे पर असहमति रखना और विरोध न करना भी हरेक नागरिक और समूह का जनवादी हक़ है। इस हक़ को कुचलने के भी हरेक प्रयास को अस्वीकार किया जाना चाहिए और इसके लिए दबाव बनाने के हर प्रयत्न का विरोध किया जाना चाहिए।

नेपाल में राजनीतिक-संवैधानिक संकट: संशोधनवाद का भद्दा बुर्जुआ रूप खुलकर सबके सामने है!

नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (नेकपा) के भीतर के.पी. शर्मा ओली और पुष्प कमल दाहाल (प्रचण्ड) के धड़ों के बीच महीनों से सत्ता पर क़ब्ज़े के लिए चल रही कुत्ताघसीटी की परिणति पिछले साल 20 दिसम्बर को ओली द्वारा नेपाल की संसद के निचले सदन प्रतिनिधि सभा को भंग करने की अनुशंसा और के रूप में हुई। राष्ट्रपति विद्या भण्डारी ने बिना किसी देरी के प्रतिनिधि सभा को भंग करने के फैसले पर मुहर लगा दी। आगामी 30 अप्रैल व 10 मई को मध्यावधि चुनावों की घोषणा भी कर दी गयी है।