सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ‘समान काम के लिए समान वेतन’ का फ़ैसला लेकिन देश की बहुसंख्यक मज़दूर आबादी को इससे हासिल होगा क्या?
एक अन्य महत्वपूर्ण मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने ‘समान काम के लिए समान वेतन’ के सिद्धान्त को नज़रअन्दाज़ किया है। 2007 में ‘कर्नाटक राज्य बनाम अमीरबी’ मामले में फ़ैसला सुनाते हुए कोर्ट ने आँगनवाड़ी में काम करनेवाली महिलाओं को राज्य सरकार के कर्मचारी होने का दर्जा और इसके परिणामस्वरूप मिलनेवाली सुविधाएँ देने से साफ़ इन्कार कर दिया। इस फ़ैसले में समेकित बाल विकास योजना के तहत काम करनेवाली इन आँगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के काम की प्रकृति को स्वैच्छिक बताया गया जिन्हें वेतन की जगह मानदेय मिलता है। और इसलिए ये सब सरकार की नियमित कर्मचारी नहीं बन सकतीं। इस फ़ैसले के पीछे काम करनेवाला तर्क यह है कि ये स्त्री कामगार महज़ ‘‘नागरिक पद’’ पर कार्यरत हैं क्योकि अदालत के अनुसार तो बच्चों के पालन-पोषण का काम रोज़गार होता ही नहीं। और वैसे भी यह काम सिर्फ़़ महिलाओं द्वारा ही किया जा रहा है इसलिए पुरुषों द्वारा किये जानेवाले पूर्णकालिक नियमित रोज़गार से इसकी तुलना नहीं की जा सकती! स्त्रियों के काम के प्रति यह नज़रिया कितना भ्रामक और गहराई से जड़ें जमाये हुए है, यह इस फ़ैसले से साफ़ हो जाता है।