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उत्तर प्रदेश में निर्माण मज़दूरों की स्थिति है भयावह, संघर्ष का रास्ता चुनना ही होगा

नोएडा की स्थापना के बाद से ही यहाँ पर तेज़ी से निर्माण कार्य हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश के अलग-अलग जिलों, बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ से आने वाले मज़दूरों ने नोएडा में बड़े-बड़े भवन, आवासीय परिसर, शॉपिंग मॉल, औद्योगिक इकाइयाँ, स्कूल, हॉस्पिटलों, कारपोरेट ऑफिसों और प्राइवेट स्कूल-कॉलेजों का निर्माण किया है। उत्तर प्रदेश के इस सर्वाधिक विकसित जिला रोज़गार सहित कई आर्थिक कारणों से देशभर के लोगों को आकर्षित करता है। लेकिन नोएडा की चकाचौंध को जिन मज़दूरों ने अपने मेहनत से क़ायम किया है, वह स्वयं नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला-1 : मज़दूरी के बारे में

हम मज़दूर जानते हैं कि मज़दूरी की औसत दर में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। लेकिन ये उतार-चढ़ाव एक निश्चित सीमा के भीतर होते हैं। इस लेख में हम समझेंगे कि पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर मज़दूरी में आने वाले उतारों-चढ़ावों के मूलभूत कारण क्या होते हैं और उसकी अन्तिम सीमाएँ कैसे निर्धारित होती है। लेकिन शुरुआत हम कुछ बुनियादी बातों से करेंगे।

देश में भयंकर गर्मी और पानी तथा बिजली के संकट का मुख्य कारण क्या है?

पिछले दो महीनों से भारतीय उपमहाद्वीप विशेषतः उत्तरी भारत तथा पाकिस्तान के मैदानी इलाके भीषण गर्मी और लू की चपेट में हैं। कड़ी गर्मी और लू के कारण इस साल मई के मध्य तक भारत और पाकिस्तान में 90 से ज़्यादा लोगों की मौत चुकी है। यह महज़ सरकारी आँकड़ा है और यह तय है कि मौत के असली आँकड़ें इससे कहीं ज़्यादा होंगे। भयंकर गर्मी और लू के साथ-साथ पानी तथा बिजली के संकट ने जनता के रोज़मर्रा के जीवन को बेहाल बना दिया है। हर आपदा की तरह इस आपदा में भी मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता ही सबसे ज़्यादा तकलीफ़ झेल रही है।

ऑटो सेक्टर के मज़दूरों के लिए कुछ ज़रूरी सबक़ और भविष्य के लिए एक प्रस्ताव

कोविड काल के बाद शुरू हुए कई आन्दोलनों में से एक आन्दोलन धारूहेडा में शुरू हुआ। 6 से लेकर 22 साल की अवधि से काम कर रहे 105 ठेका मज़दूरों को बीती 28 फ़रवरी 2022 को हुन्दई मोबिस इण्डिया लिमिटेड कम्पनी ने बिना किसी पूर्वसूचना के काम से निकाल दिया। प्रबन्धन के साथ मज़दूरों का संघर्ष पिछले साल से ही चल रहा था। लेकिन प्रबन्धन ने 28 फ़रवरी को सभी पुराने मज़दूरों का ठेका ख़त्म होने का बहाना बनाकर छँटनी कर दी।

मई दिवस 1886 से मई दिवस 2022 : कितने बदले हैं मज़दूरों के हालात?

इस वर्ष पूरी दुनिया में 136वाँ मई दिवस मनाया गया। 1886 में शिकागो के मज़दूरों ने अपने संघर्ष और क़ुर्बानियों से जिस मशाल को ऊँचा उठाया था, उसे मज़दूरों की अगली पीढ़ियों ने अपना ख़ून देकर जलाये रखा और दुनियाभर के मज़दूरों के अथक संघर्षों के दम पर ही 8 घण्टे काम के दिन के क़ानून बने। लेकिन आज की सच्चाई यह है कि 2022 में कई मायनों में मज़दूरों के हालात 1886 से भी बदतर हो गये हैं। मज़दूरों की ज़िन्दगी आज भयावह होती जा रही है। दो वक़्त की रोटी कमाने के लिए 12-12 घण्टे खटना पड़ता है।

मोदी सरकार के निकम्मेपन और लापरवाही ने भारत में 47 लाख लोगों की जान ली

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रपट के अनुसार कोविड महामारी के कारण दुनियाभर में क़रीब डेढ़ करोड़ लोगों की मौत हुई। इनमें से एक तिहाई, यानी 47.4 लाख लोग अकेले भारत में मरे। भारत के आम लोग अभी वह दिल तोड़ देने वाला दृश्य भूले नहीं हैं, जिसमें नदियों में गुमनाम लाशें बह रही थीं, कुत्ते और सियार इन लाशों को खा रहे थे और श्मशान घाटों व विद्युत शवदाहगृहों के बाहर लोग मरने वाले अपने प्रियजनों की लाशें लिये लाइनों में खड़े थे।

दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मियों की अनूठी मुहिम : नाक में दम करो अभियान

दिल्ली की सैंकड़ो महिलाकर्मी 16 मार्च से तकरीबन रोज़ ही दिल्ली के अलग-अलग इलाक़ों में एक अनूठा अभियान चला रही हैं। इस अभियान का नाम है ‘नाक में दम करो’ अभियान। इस अभियान के ज़रिए आँगनवाड़ीकर्मी विशेष तौर पर आम आदमी पार्टी और भाजपा के कार्यालयों पर विरोध प्रदर्शन करती हैं। ज्ञात हो कि दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मियों की 31 जनवरी से 38 दिनों तक चली ऐतिहासिक हड़ताल पर ‘आप’ और भाजपा ने मिलीभगत से हेस्मा (हरियाणा एसेंशियल सर्विसेज़ एक्ट) थोप दिया था। इसके बाद आँगनवाड़ीकर्मियों की यूनियन ने हेस्मा के ख़िलाफ़ न्यायालय में केस किया और हड़ताल को न्यायालय के फ़ैसले तक स्थगित किया और स्पष्ट किया कि अगर न्यायालय इस काले क़ानून को रद्द नहीं करती तो दिल्ली की 22000 आँगनवाड़ीकर्मी हेस्मा की परवाह किये बिना दुबारा हड़ताल पर जायेंगी।

उपराष्ट्रपति महोदय, हम बताते हैं कि “शिक्षा के भगवाकरण में ग़लत क्या है”!

हाल ही में देश के उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कहा कि शिक्षा के भगवाकरण में बुरा क्या है और लोगों को अपनी औपनिवेशिक मानसिकता छोड़कर शिक्षा के भगवाकरण को स्वीकार कर लेना चाहिए। लेकिन सच्चाई तो यह है कि सारे भगवाधारी उपनिवेशवादियों के चरण धो-धोकर सबसे निष्ठा के साथ पी रहे थे और इनके नेता और विचारक अंग्रेज़ों से क्रान्तिकारियों के बारे में मुख़बिरी कर रहे थे और माफ़ीनामे लिख रहे थे। इसलिए अगर औपनिवेशिक मानसिकता को छोड़ने की ही बात है, तो साथ में भगवाकरण भी छोड़ना पड़ेगा क्योंकि भगवाकरण करने वाली ताक़तें तो अंग्रेज़ों की गोद में बैठी हुई थीं और उन्होंने आज़ादी की लड़ाई तक में अंग्रेज़ों के एजेण्टों का ही काम किया था।

श्रीलंका और पाकिस्तान में नवउदारवादी पूँजीवादी आपदा का क़हर झेलती आम मेहनतकश आबादी

वैसे तो आज के दौर में दुनियाभर की मेहनतकश जनता मन्दी, छँटनी, महँगाई, आय में गिरावट और बेरोज़गारी का दंश झेल रही है, लेकिन कुछ देशों में अर्थव्यवस्था की हालत इतनी ख़राब हो चुकी है कि वे या तो पहले ही कंगाल जो चुके हैं या फिर कंगाली के कगार पर खड़े हैं और उनका भविष्य बेहद अनिश्चित दिख रहा है। ये ऐसे देश हैं जिनकी अर्थव्यस्थाएँ या तो बहुत छोटी हैं या उनका औद्योगिक आधार बहुत व्यापक नहीं है जिसकी वजह से वे बेहद बुनियादी ज़रूरतों की चीज़ों के लिए भी आयात पर निर्भर हैं या फिर उनकी अर्थव्यवस्थाएँ दशकों से विदेशी क़र्ज़ों के चंगुल में फँसी हैं।

भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत (23 मार्च) की 91वीं बरसी पर

इलाहाबाद में संगम के बग़ल में बसी हुई मज़दूरों-मेहनतकशों की बस्ती में विकास के सारे दावे हवा बनकर उड़ चुके हैं। आज़ादी के 75 साल पूरा होने पर सरकार अपने फ़ासिस्ट एजेण्डे के तहत जगह-जगह अन्धराष्ट्रवाद की ख़ुराक परोसने के लिए अमृत महोत्सव मना रही है वहीं दूसरी ओर इस बस्ती को बसे 50 साल से ज़्यादा का समय बीत चुका है लेकिन अभी तक यहाँ जीवन जीने के लिए बुनियादी ज़रूरतें, जैसे पानी, सड़कें, शौचालय, बिजली, स्कूल आदि तक नहीं हैं।