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द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से आम मेहनतकश आदिवासियों की जीवन स्थिति में कोई बदलाव आयेगा?

हाल ही में हुए राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू जीत हासिल कर भारत की 15वीं राष्ट्रपति बन गयी हैं। राष्ट्रपति चुनाव में द्रौपदी मुर्मू ने विपक्ष के उम्मीदवार यशवन्त सिन्हा (जो पहले ख़ुद भाजपा के वरिष्ठ नेता और कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं) को भारी मतों से परास्त किया। इस तरह द्रौपदी मुर्मू देश के सर्वोच्च संवैधानिक ओहदे पर बैठने वाली दूसरी महिला और प्रथम आदिवासी बन गयीं। द्रौपदी मुर्मू ओड़िशा के मयूरभंज ज़िले के रायरंगपुर शहर से आती हैं और सन्थाल जनजाति से ताल्लुक़ रखती हैं।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला-2 : कुछ बुनियादी बातें जिन्हें समझना ज़रूरी है – 1

किसी भी समाज की बुनियाद में मनुष्य के जीवन का भौतिक उत्पादन और पुनरुत्पादन होता है। यदि मनुष्य जीवित होगा तो ही वह राजनीति, विचारधारा, शिक्षा, कला, साहित्य, संस्कृति, वैज्ञानिक प्रयोग, खेल-कूद और मनोरंजन जैसी गतिविधियों में संलग्न हो सकता है। मनुष्य अपने जीवन के भौतिक उत्पादन और पुनरुत्पादन के प्रकृति के साथ एक निश्चित सम्बन्ध बनाता है और उसका रूपान्तरण कर उसके संसाधनों को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार ढालता है। इस गतिविधि को ही हम उत्पादन कहते हैं। मनुष्य के भौतिक जीवन के पुनरुत्पादन के लिए उपयोगी वस्तुओं व सेवाओं का उत्पादन करने के लिए मनुष्य प्रकृति को रूपान्तरित करता है। यह मनुष्य का उत्पादन के लिए, यानी अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप, प्रकृति के रूपान्तरण का संघर्ष है।

पृथ्वी पर बढ़ती गर्मी और जलवायु परिवर्तन : पूँजीपतियों के मुनाफ़े की बलि चढ़ रही है हमारी धरती

हर दिन पहले से ज़्यादा भीषण होते लू, शीत लहर, बाढ़, सूखा और खाद्य संकट के पीछे का मुख्य कारण ग्लोबल वार्मिंग है। ग्लोबल वार्मिंग पूँजीवादी व्यवस्था की पैदावार है। पूँजीवादी व्यवस्था को इसकी कोई परवाह नहीं है कि पृथ्वी का तापमान और कार्बन उत्सर्जन जानलेवा स्तर तक बढ़ता जा रहा है। इसे सिर्फ़ अपने मुनाफ़े की चक्की को चलाते रहना है। मुनाफ़े के लिए गलाकाटू प्रतिस्पर्धा में लगे पूँजीपतियों और उनकी चाकरी कर रही तमाम बुर्जुआ सरकारों तथा पार्टियों से हम यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वे प्रकृति की तबाही को रोकने के लिए कोई सकारात्मक क़दम उठायेंगे।

शिक्षा का भगवाकरण : पाठ्यपुस्तकों में बदलाव छात्रों को संघ का झोला ढोने वाले कारकून और दंगाई बनाने की योजना

फ़ासीवादी विचारधारा और इसे संरक्षण देने वाली पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई हमें तेज़ करनी होगी क्योंकि ऐसी पढ़ाई हमारे मासूम बच्चों को दंगाई और हैवान बनायेगी। हमें अपने बच्चों को बचाना होगा हमें सपनों को बचाना होगा। इन ख़तरनाक क़दमों को मज़दूर वर्ग को कम करके नहीं आँकना चाहिए। ये क़दम एक पूरी पीढ़ी के दिमाग़ों में ज़हर घोलने, उनका फ़ासीवादीकरण करने, उन्हें दिमाग़ी तौर पर ग़ुलाम बनाने और साथ ही मज़दूर वर्ग को वैज्ञानिक और तार्किक चिन्तन की क्षमता से वंचित करने का काम करते हैं। जिस देश के मज़दूर और छात्र-युवा वैज्ञानिक और तार्किक चिन्तन की क़ाबिलियत खो बैठते हैं वे अपनी मुक्ति के मार्ग को भी नहीं पहचान पाते हैं और न ही वे मज़दूर आन्दोलन के मित्र बन पाते हैं। उल्टे वे मज़दूर आन्दोलन के शत्रु के तौर पर तैयार किये जाते हैं और शैक्षणिक, बौद्धिक व सांस्कृतिक संस्थाओं का फ़ासीवादीकरण इसमें एक अहम भूमिका निभाता है।

अन्धाधुन्ध गोलियाँ बरसाकर सामूहिक हत्याएँ : अमेरिकी समाज की गम्भीर मनोरुग्णता का एक लक्षण

अमेरिकी बुर्जुआ समाज, बीमार, सचमुच बेहद बीमार है। बुर्जुआ सभ्यता और भौतिक प्रगति का यह बहुप्रचारित, लकदक चमक-दमक वाला मॉडल अन्दर से सड़ चुका है। अमेरिकी बुर्जुआ सभ्यता मानवीय सारतत्व से रिक्त और खोखली हो चुकी है। अमेरिकी बुर्जुआ समाज समृद्धि के शिखर पर बैठा हुआ भविष्यहीनता के अवसाद और आतंक में डूबा हुआ है। अमेरिकी “श्रेष्ठता” की खोखली उल्लास व उन्माद-भरी चीख़ों के पीछे दुनियाभर के युद्धों, रक्तपातों, नरसंहारों का अपराधबोध सामूहिक मानस में पार्श्व-संगीत की तरह लगातार बज रहा है।

सुप्रीम कोर्ट का गुजरात दंगों पर निर्णय : फ़ासीवादी हुकूमत के दौर में पूँजीवादी न्यायपालिका की नियति का एक उदाहरण

तमाम हत्याओं, साज़िशों और एनकाउण्टर के बाद भी गुजरात दंगों का भूत बार-बार किसी-न-किसी गवाह या मामले के रूप में सामने आ ही जाता था। फ़ासीवाद की पैठ राज्यसत्ता में पहले भी थी लेकिन इस पैठ को अभी और गहरा होना था। 2014 में सत्ता में आने के बाद से यह काम फ़ासीवाद ने तेज़ी से किया है। लगभग सभी महत्वपूर्ण पदों पर संघ के वफ़ादार लोगों को बैठाया गया है। कुछ अपवादों को छोड़कर क्लर्क की भर्ती से लेकर आला अफ़सरों तक की भर्ती सीधे संघ से जुड़े या संघ समर्थकों की होने लगी और हो रही है। मोदी-शाह को अब अपने राजनीतिक ख़तरों से निपटने के लिए पुराने तरीक़ों के मुक़ाबले अब नये तरीक़े ज़्यादा भा रहे हैं। अब सीधे राज्य मशीनरी का इस्तेमाल इनके हाथों में है। पिछले कुछ सालों में जितनी भी राजनीतिक गिरफ़्तारियाँ हुई हैं उनमें से किसी के भी ख़िलाफ़ कोई ठोस सबूत हासिल नहीं हुआ है लेकिन उनकी रिहाई भी नहीं हुई है।

भाजपा के “राष्ट्रवाद” और देशप्रेम की खुलती पोल : अब मज़दूरों-किसानों के बेटे-बेटियों को पूँजीपति वर्ग के “राष्ट्र” की “रक्षा” भी ठेके पर करनी होगी!

‘अग्निपथ’ वास्तव में सैनिक व अर्द्धसैनिक बलों में रोज़गार को ठेका प्रथा के मातहत ला रही है। यह एक प्रकार से ‘फ़िक्स्ड टर्म कॉण्ट्रैक्ट’ जैसी व्यवस्था है, जिससे हम मज़दूर पहले ही परिचित हो चुके हैं और जिसके मातहत एक निश्चित समय के लिए आपको काम पर रखा जाता है, और फिर आपको दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकालकर फेंक दिया जाता है। पहले मज़दूरों की बारी आयी थी, अब सैनिकों की बारी आयी है। जैसा कि एक कवि पास्टर निमोलर ने कहा था, फ़ासीवादी देशप्रेम और “राष्ट्रवाद” की ढपली बजाते हुए अन्तत: किसी को नहीं छोड़ते!

‘पुष्पा’, ‘केजीएफ़’… उन्‍हें बंजर सपने बेचो!

पिछले कुछ वर्षों में ऐसी फ़िल्मों की एक बाढ़-सी आयी है जिसमें नायक किसी मज़दूर-वर्गीय पृष्ठभूमि से आता है और फिर सभी प्रतिकूल परिस्थितियों का मुक़ाबला करते हुए और उन पर विजय पाते हुए वह कोई बड़ा डॉन बन जाता है। इनमें से अधिकांश फ़िल्में दक्षिण भारतीय भाषाओं में बनी हैं और बाद में हिन्दी में डब की गयी हैं। लेकिन इन डब फ़िल्मों को उत्तर भारत के हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि पूरे भारत में ही काफ़ी सफलता मिली है। इन फ़िल्मों को भारी संख्या में देखने वालों में एक अच्छी-ख़ासी आबादी मेहनतकश वर्गों के लोग और विशेषकर मज़दूर हैं। हम मज़दूर अपने इलाक़ों में युवा मज़दूरों व आम तौर पर नौजवानों को ‘पुष्पा’ फ़िल्म के नायक की शैली के नृत्य की नक़ल करते, उसकी अदाओं की नक़ल करते और उसके डायलॉग मारते देख सकते हैं। इसी प्रकार ‘केजीएफ़’ फ़िल्म के नायक के संवादों और शैली की नक़ल करते हुए भी पर्याप्त युवा मज़दूर व नौजवान मिल जाते हैं। इन फ़िल्मों और उनके गीतों (अक्सर फूहड़ और अश्लील गीतों) की लोकप्रियता सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर रही है। इसकी क्या वजह है? इन फ़िल्मों में ऐसा क्या है कि हमारे बीच तमाम मज़दूर इसके दीवाने हुए जा रहे हैं?

ज्ञानव्यापी विवाद और फ़ासिस्टों की चालें

आज पूरे देश में बेरोजगारी अपने चरम पर है। महंगाई ने लोगों की कमर तोड़ दी है। आर्थिक संकट लगातार गहराता जा रहा है। मज़दूरों को लगातार तालाबंदी और छँटनी का सामना करना पड़ रहा है। मेहनतकश लोगों की जिंदगी बदहाली में गुजर रही है। ठीक इसी समय भाजपा एवं आरएसएस ने अपने सहयोगी संगठनों के माध्यम से पूरे देश में सांप्रदायिक उन्माद फैलाने की कोशिशें तेज कर दी हैं। जबसे इन फासीवादियों ने सत्ता संभाली है तब से तमाम ऐसे छोटे-छोटे धार्मिक त्योहारों, पर्वों को बड़े पैमाने पर मनवाया जा रहा है, जिन्हें आम तौर पर नहीं मनाया जाता था, एवं उनका इस्तेमाल धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक मुसलमानों के खिलाफ सांप्रदायिक उन्माद फैलाने के लिए किया जा रहा है।

दिल्ली में बुलडोज़र राज

पिछले दिनों दिल्ली के तमाम इलाक़ों में दिल्ली नगरपालिका द्वारा “अतिक्रमण” हटाने के नाम पर आम मेहनतकश आबादी की झुग्गियों पर बुलडोज़र चलाकर उनके घरों को उजाड़ने का काम किया गया। अतिक्रमण हटाना तो बहाना था। असलियत यह थी कि इस पूरे प्रकरण में मुख्यतः मेहनतकश मुस्लिम आबादी को निशाना बनाया गया।