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कोरोना काल में मज़दूरों की जीवनस्थिति

आज देशभर के मज़दूर कोरोना की मार के साथ-साथ सरकार की क्रूरता और मालिकों द्वारा बदस्तूर शोषण की मार झेल रहे हैं। बीते वर्ष से अब तक पूरे कोरोनाकाल में मज़दूरों-मेहनतकशों का जीवन स्तर नीचे गया है। खाने-पीने में कटौती करने से लेकर वेतन में कटौती होने या रोज़गार छीने जाने से मज़दूरों के हालात बद से बदतर हुए हैं। कोरोना महामारी से बरपे इस क़हर ने पूँजीवादी व्यवस्था के पोर-पोर को नंगा करके रख दिया है।

बंगलादेश में एक बार फिर मुनाफे़ की आग की बलि चढ़े 52 मज़दूर

भारत हो या बंगलादेश या कोई अन्य पूँजीवादी देश, मालिकों के लिए मज़दूरों की अहमियत कीड़े-मकोड़ों से ज़्यादा नहीं होती। बीते 8 जुलाई को बंगलादेश में ढाका के नारायणगंज क्षेत्र में जूस के कारख़ाने में भीषण आग लगी, जिसमें 52 मज़दूरों की जान चली गयी और कई घायल हुए।

दिल्ली के ‘मास्टरों’ के प्लान में ग़रीब मेहनतकश आबादी कहाँ है?

दिल्ली को दुनिया का सबसे स्मार्ट शहर बनाने के लिए डी.डी.ए द्वारा बीते महीने मास्टर प्लान 2041 पेश किया गया। दिल्ली को आधुनिक और विकसित शहर बनाने के लिए यह चौथा मास्टर प्लान है। इससे पहले 1962, 2001 और 2021 तक दिल्ली में अलग-अलग मास्टर प्लान लागू हो चुके हैं। डी.डी.ए का मास्टर प्लान पर्यावरण को बेहतर बनाने, परिवहन को सुविधाजनक बनाने तथा आधारभूत संरचना को मज़बूत बनाने की बात पर ज़ोर देता है।

एक मज़दूर परिवार की एक सुबह

टिमटिमाती आँखें, सर पर हल्के-हल्के बाल, अपने पैरों को घसीटते हुए बच्चा खड़ा होने की कोशिश कर रहा था। बच्चे ने हरे रंग का कच्छा पहना था और हरी धारीदार टी-शर्ट। उम्र मुश्किल से एक वर्ष होगी। अचानक उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान आयी, जैसे उसने कोई नयी तरकीब सोची हो और वह घुटनों के बल आगे बढ़ने लगा। बच्चे की आँखें देखकर पता चल रहा था कि वह अभी थोड़ी देर पहले ही रोकर चुप हुआ है।

दिल्ली के उद्योग नगर में मज़दूरों के हत्याकाण्ड का ज़िम्मेदार कौन?

एक बार फिर ये साबित हो गया कि पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूरों की अहमियत कीड़े-मकोड़ों से ज़्यादा नहीं है। बीते 21 जून को दिल्ली के पीरागढ़ी स्थित उद्योग नगर औद्योगिक क्षेत्र में जूता कारख़ाने में भीषण आग लग गयी, जिसमें 6 मज़दूरों की जानें चली गयीं। सरकार और मालिक की लापरवाही का आलम यह है कि उन मज़दूरों की लाशों को सात-आठ दिन बीतने के बाद धीरे-धीरे निकाला गया।

असली मुद्दों से ध्यान भटकाने में लगे संघियों के झूठे और ज़हरीले प्रचार का पर्दाफ़ाश करना होगा!

कोरोना की दूसरी लहर ने जो क़त्लेआम मचाया है, यह हम सब जानते हैं। इन्सानों को मौत के आँकड़ों में तब्दील करने में फ़ासीवादी मोदी सरकार ने सबसे बड़ा योगदान दिया। जहाँ एक तरफ़ स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा रही थी, वहीं दूसरी तरफ़ सरकार चुनाव लड़ने में मस्त थी। कोरोना वायरस से पूरे देश में सरकारी आँकड़ों के हिसाब से अब तक 3.5 लाख मौतें हो चुकी हैं। पर असल आँकड़ा इससे कहीं ज़्यादा है यह जगज़ाहिर है।

बिना योजना थोपा गया लॉकडाउन और मज़दूरों के हालात

हमारा देश आज ज्वालामुखी के दहाने पर बैठा धधक रहा है। दूसरी तरफ़ हमारे देश का नीरो बाँसुरी बजा रहा है। कोरोना महामारी से बरपे इस क़हर ने पूँजीवादी स्वास्थ्य व्यवस्था के पोर-पोर को नंगा कर के रख दिया है। एक तरफ़ देश में लोग ऑक्सीजन, बेड, दवाइयों की कमी से मर रहे हैं, दूसरी तरफ़ फ़ासीवादी मोदी सरकार आपदा को अवसर में बदलते हुए पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने में मग्न है। जब कोरोना की पहली लहर के ख़त्म होने के बाद देश भर की स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करना चाहिए था, तब यह निकम्मी सरकार चुनाव लड़ने में व्यस्त थी।

लॉकडाउन के बाद दिल्ली में मज़दूरों के हालात

बीते वर्ष मार्च में कोरोना महामारी की वजह से जो लॉकडाउन लगा था, उसमें मज़दूरों के साथ कितना ज़ुल्म हुआ था, वह किसी से छुपा नहीं है। लाखों-करोड़ों की संख्या में मज़दूर देश के महानगरों को छोड़कर गाँव पलायन करने के लिए मजबूर हुए थे। जिसका कारण मोदी सरकार द्वारा बिना किसी तैयारी के लगाया गया लॉकडाउन था। यही हालात दिल्ली के उत्तर-पश्चिमी छोर पर बसे बवाना-नरेला-बादली जैसे औद्योगिक क्षेत्रों के भी थे।