Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

खट्टर सरकार द्वारा नर्सिंग छात्राओं पर बर्बर पुलिसिया दमन!

आज यह बात स्पष्ट है कि मौजूदा खट्टर सरकार भी पिछली तमाम सरकारों की तरह ही हरियाणा की आम जनता के हक़-अधिकारों पर डाका डाल रही है। असल में चुनाव से पहले किये जाने वाले बड़े-बड़े वायदे केवल वोट की फ़सल काटने के लिए ही होते हैं। गेस्ट टीचर, अस्थायी कम्प्यूटर टीचर, आशा वर्कर, रोडवेज़ कर्मचारी, मनरेगा मज़दूर, एनसीआर के औद्योगिक मज़दूर आदि आयेदिन अपनी जायज़-न्यायसंगत माँगों को लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं लेकिन सरकार के कानों पर जूँ तक नहीं रेंग रही।

सलवा जुडूम का नया संस्करण

सलवा जुडूम के इन सभी रूपों को सरकारी संरक्षण के अलावा उद्योगपतियों, स्थानीय ठेकेदारों की सरपरस्ती भी प्राप्त है। यह अनायास नहीं है कि नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद दांतेवाड़ा में अर्द्धसैनिक बलों की संख्या 21 कम्पनी और बढ़ायी गयी है। सरकारें विकास के नाम पर जितने बड़े पैमाने पर लोगों को जगह-ज़मीन से उजाड़ रही है उसके परिणामस्वरूप उठने वाले जन असन्तोषों से निपटने की तैयारी के लिए ही लगातार पुलिस, सेना, अर्द्धसैनिक बलों की संख्या में भी बढ़ोतरी की कवायदें की जा रही हैं। दांतेवाड़ा में अर्द्धसैनिक बलों की हालिया बढ़ोतरी को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।

सावधान, सरकार आपके हर फ़ोन, मैसेज, ईमेल, नेट ब्राउिज़ंग की जासूसी कर रही है!

अमेरिकी खुफ़िया एजेंसी एफ़बीआई द्वारा चलाये जा रहे कार्निवोर (मांसभक्षी) नामक तंत्र के ज़रिए अमेरिका में किसी नागरिक द्वारा भेजे या प्राप्त किये गये समस्त ई-मेल सन्देश पढ़े जा सकते हैं, वह कौन सी वेबसाइट खोलता है, किस चैट रूम में जाता है, यानी इंटरनेट पर उसकी एक-एक कार्रवाई को बाकायदा दर्ज किया जा सकता है। अमेरिका की नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी (एनएसए, जिसकी तर्ज पर भारत में एनआईए बनाया गया है) ‘प्रिज़्म’ नाम से ऐसा ही ख़ुफ़िया तंत्र चलाती है। सी.एम.एस. को प्रिज़्म की ही तर्ज पर खड़ा किया गया है।

जम्मू में रहबरे-तालीम शिक्षकों पर बर्बर लाठीचार्ज!

13 अप्रैल को जम्मू में अपने बकाया वेतन जारी करने की माँग को लेकर आरईटी टीचरों नें जम्मू-कश्मीर की ग्रीष्मकालीन राजधानी जम्मू स्थित सचिवालय का घेराव कर रहे रहबरे-तालीम शिक्षकों पर जम्मू-कश्मीर पुलिस ने बर्बर लाठीचार्ज किया। काफ़ी शिक्षक घायल हुए और चार शिक्षकों को पुलिस ने गिरफ्तार भी किया। इस प्रदर्शन में सर्व-शिक्षा अभियान के तहत लगे शिक्षक, एजुकेशन वॉलंटियर से स्थायी हुए शिक्षक और कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय के अध्यापक शामिल थे। इस श्रेणी के तहत नियुक्त अध्यापकों का एक से तीन वर्षों का वेतन बकाया था जिसके विरोध में यह प्रदर्शन किया गया था। इससे पहले जब शिक्षकों द्वारा सरकार व शिक्षा विभाग को बकाया वेतन जारी करने के लिए कहा गया तो वहाँ से सिवा कोरे आश्वासनों के कुछ नहीं मिला, इसलिए शिक्षकों ने सचिवालय के बाहर प्रदर्शन किया, परन्तु पुलिस ने शान्तिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर जमकर लाठियाँ बरसायीं जिसमें 10 शिक्षक घायल हुए।

पूँजी की गुलामी से मुक्ति के लिए बॉलीवुड फ़िल्मों की नहीं बल्कि मज़दूर संघर्षों के गौरवशाली इतिहास की जानकारी ज़रूरी है

लेकिन साथियों इस पूरी स्थिति के लिए हम भी बहुत हद तक ज़िम्मेदार हैं, क्योंकि वो हम ही हैं जो अपनी मेहनत की कमाई से इनकी घटिया फ़िल्मों की सीडी और टिकट ख़रीदते हैं। असलियत में तो हमारे असली नायक ये नहीं बल्कि अमरीका के शिकागो में शहीद हुए वे मज़दूर नेता हैं, जिन्होंने मज़दूरों के हक़ों के लिए अपनी जान तक की कुर्बानी दे डाली, तथा जिनकी शहादत को याद करते हुए हर साल 1 मई को मई दिवस के नाम से मनाया जाता है।

माछिल फ़र्ज़ी मुठभेड़़ – भारतीय शासक वर्ग का चेहरा फिर बेनकाब हुआ!

असल में “दुनिया का सबसे बड़ा जनतन्त्र” कहे जाने वाला भारतीय शासक वर्ग जम्मू-कश्मीर और उत्तर पूर्व में ‘अफ़स्पा’ जैसे काले क़ानून के दम पर वहाँ की जनता से निपटता है। जिसके अन्तर्गत सेना के सशस्त्र बलों को असीमित अधिकार मिल जाते हैं। कश्मीर की जनता की लम्बे समय से अफ़स्पा हटाने की माँग रही है जो कि यहाँ की जनता की जनवादी माँग है जिसे भारतीय शासक वर्ग पूरा नहीं कर रहा है। पीडीपी जैसी जो क्षेत्रीय पार्टी जम्मू-कश्मीर से अफ़स्पा व सेना को हटाने की माँग के बूते चुनाव जीतकर आयी है, उसने भी सत्ता के लिए फ़ासिस्ट भाजपा से हाथ मिला लिया है। पीडीपी का समझौतापरस्त चरित्र बहुत पहले उजागर हो गया था। बस वह अपना जनाधार बचाने के लिए दिखावटी तौर पर कुछ तात्कालिक मुद्दे जैसे सेना के द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन व फ़र्ज़ी मुठभेड़़े आदि मुद्दे उठाती रहती है। जबकि अब स्वयं पीडीपी के सत्ता में आने के बाद भी मानवाधिकार उल्लंघन व फ़र्जी मुठभेड़़ों का सिलसिला थमा नहीं है।

हाशिमपुरा से तेलंगाना और चित्तूर तक भारतीय पूँजीवादी जनवाद के ख़ूनी जबड़ों की दास्तान

यह तो साफ़ ही है कि इतने बड़े फ़र्जी मुकाबले और हत्याकाण्ड निचले स्तर के कर्मचारियों, अधिकारियों के बस की बात नहीं है। इनमें पुलिस, फ़ौज के अतिरिक्त अफ़सरों से लेकर सरकारों में बैठे राजनैतिक नेता शामिल होते हैं। हर हत्याकाण्ड समूचे पूँजीपति वर्ग या फिर कुछ ख़ास पूँजीपतियों के हितों के साथ जुड़ा होता है। हाशिमपुरे के हत्याकाण्ड से लेकर अदालती फ़ैसले तक की दास्तान चीख़-चीख़कर यही बयान कर रही है।

हम हार नहीं मानेंगे! हम लड़ना नहीं छोड़ेंगे!

आम आदमी’ की जुमलेबाजी सिर्फ कांग्रेस और भाजपा से लोगों के पूर्ण मोहभंग से पैदा हुए अवसर का लाभ उठाने के लिए थी। चुनावों होने तक यह जुमलेबाजी उपयोगी थी। जैसे ही लोगों ने ‘आप’ के पक्ष में वोट दिया, किसी विकल्प के अभाव में, अरविंद केजरीवाल का असली कुरूप फासिस्ट चेहरा सामने आ गया।

पूँजीवादी व्यवस्था में न्याय सिर्फ़ अमीरों के लिए है!

वैसे तो भारतीय संविधान कागज़ पर अमीर-ग़रीब सभी को बराबर न्याय का अधिकार देता है किन्तु सच तो यह है कि न्याय का तराजू पैसों वाले के हाथों में है। न्याय की प्रक्रिया ही ऐसी है कि ग़रीब तो पहले से ही टूटा हुआ न्यायालय पहुँचता है व ज़िन्दगी भर न्याय की उम्मीद में न्यायालय के चक्कर लगाते-लगाते उसकी ज़िन्दगी ही ख़त्म हो जाती है।

हर पाँच में चार लोग अपराध साबित हुए बिना ही भारतीय जेलों के नर्क के क़ैदी हैं

सवाल उठता है कि दलितों, आदिवासियों और मुस्लिमों के जेलों में अधिक अनुपात में होने के तथ्य को किस रूप में देखा जाये? क्या वे सब स्वभाव से ही अधिक अपराधी है? या उन्हें मात्र जातिगत, सामाजिक एवं धार्मिक पहचान के आधार पर ही जानबूझकर निशाना बनाया जाता है? या इस रूप में देखा जाये कि इन तीनों समुदायों के लोगों का बहुसंख्यक भाग ग़रीब और मज़दूर है।