Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

विश्‍वव्‍यापी कोरोना संकट के बीच कश्मीर में डोमिसाइल नियमों में बदलाव

इतिहास यह याद रखेगा कि जिस समय पूरी दुनिया और तमाम सरकारें कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ अपना दिमाग खपा रही थी ठीक उसी समय मोदी की फ़ासीवादी सरकार कश्मीरी जनता के साथ नये विश्वासघात का सूत्रपात कर रही थी। इस एहसास को बार-बार पुष्ट किया जा रहा है कि भारतीय राज्यसत्ता के लिए कश्मीरी जनता के सन्दर्भ में लोकतन्त्र के कोई मायने नहीं हैं।

देशव्यापी लॉक डाउन में दिल्ली पुलिस का राजकीय दमन

दंगे भड़काने में जिन लोगों की स्पष्ट भूमिका थी, जिनके भड़काऊ़ बयानों के दर्जनों वीडियो हैं, अख़बारों में छपी ख़बरें हैं, ख़ुद पुलिस के अफ़सरों सहित सैकड़ों चश्मदीद गवाह हैं, उनकी गिरफ़्तारी तो दूर, उनको पूछताछ के लिए बुलाने का नोटिस भी नहीं दिया गया है। कपिल मिश्रा, प्रवेश वर्मा, रागिनी तिवारी जैसे लोगों की ओर पुलिस की नज़र भी नहीं गयी है। जिनकी छत से हथियार लहराते लोगों के वीडियो हैं उनसे पुलिस पूछने भी नहीं गयी है। जो लोग अनेक वीडियो में हिंसा करते नज़र आ रहे हैं उनकी पहचान करके पूछताछ करना पुलिस के “स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोटोकॉल” में नहीं आता है जिसकी दुहाई दिल्ली पुलिस के आला अफ़सर दे रहे हें।

सावधान! राज्यसत्ता आपके जीवन के हर पहलू पर नज़र रख रही है!

हाल के वर्षों में देश की सुरक्षा और आतंकवाद के बहाने भारत की राज्यसत्ता देश के हर नागरिक की निजता को तार-तार कर रही है। लोगों में आतंकवाद और आन्तरिक सुरक्षा पर ख़तरे का भय पैदा करके वास्तव में सरकार लोगों की निजता पर हमला बोल रही है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 के तहत निजता का अधिकार हमारा मूलभूत अधिकार है और उसकी रक्षा करना सरकार की ज़िम्मेदारी है। लेकिन हुक्मरानों को हमेशा से जनता का भय सताता रहा है।

कश्मीर में 7 महीने से जारी पाबन्दियों‍ से जनजीवन तबाह

कश्मीर घाटी में पूर्ण नाकेबन्दी के सात महीने पूरे हो गये हैं। 70 लाख की आबादी वाली कश्मीर घाटी में पिछले 7 महीनों में जो तबाही हुई है उसका अन्दाज़ा दूर से लगाना बहुत मुश्किल है। अभी भी वहाँ इण्‍टरनेट और मोबाइल सेवाएँ पूरी तरह बहाल नहीं हुई हैं। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करने वाला भारत अब दुनिया में सबसे ज्‍़यादा लम्बे समय तक इण्‍टरनेट पर पाबन्दी लगाने वाला लोकतंत्र बन चुका है।

संवैधानिक अधिकारों के लिए लड़ने के साथ-साथ संविधान के बारे में कुछ अहम सवाल

आज फ़ासिस्ट इस देश के संविधान को भी व्यवहारतः ताक पर रखकर हमारे अतिसीमित, रहे-सहे जनवादी अधिकारों पर भी डाका डाल रहे हैं और देश में लाखों-लाख लोग इन संवैधानिक अधिकारों की हिफ़ाज़त के लिए सड़कों पर उतर कर लड़ रहे हैं। ऐसे में तय ही है कि हम उन अधिकारों के लिए अवाम के साथ मिलकर लड़ेंगे और फ़ासिस्टों को बेनक़ाब करने के लिए संविधान का हवाला भी देंगे, लेकिन इस प्रक्रिया में संविधान को जनवाद की “पवित्र पुस्तक” या “होली बाइबिल” कत्तई नहीं बनाया जाना चाहिए, इसका आदर्शीकरण या महिमामण्डन करना एक भयंकर अनैतिहासिक और आत्मघाती ग़लती होगी।

आज़ादी के बाद का सबसे बर्बर और साम्प्रदायिक देशव्यापी पुलिसिया दमन

आज़ादी के बाद इस देश के हुक्मरानों ने सैकड़ों बार अपनी अवाम का ख़ून बहाया है। साम्प्रदायिक पुलिसिया दमन की ख़ूनी कहानियाँ मेरठ-मलियाना-भागलपुर से लेकर ’84 के सिख दंगों तक अनगिनत हैं। लेकिन एक साथ देश के अनेक हिस्सों में जिस तरह से इस बार सत्ता ने दमन और नफ़रत का खेल खेला है, वह अभूतपूर्व है। ख़ुद पर लगे दंगा भड़काने के सारे आरोपों को मुख्यमंत्री बनते ही वापस ले लेने वाले आदित्यनाथ ने जैसे उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ दिया है।

मुज़फ़्फ़रनगर और मेरठ में बर्बर पुलिस दमन की आँखों देखी रिपोर्ट

27 दिसम्बर को जाँच-पड़ताल करने वाली एक टीम के साथ मैं मुज़फ़्फ़रनगर और मेरठ गयी थी। इस टीम में सुप्रीम कोर्ट के वकील, इम्तियाज़ हाशमी और मोहम्मद रेहमान के साथ मेधा पाटकर, दिल्ली के दो वकील सन्दीप पाण्डेय और विमल के अलावा सामाजिक कार्यकर्ता फै़ज़ल ख़ान भी शामिल थे।

पुलिस हमारी रक्षक है या इस लुटेरी व्यवस्था की रक्षा में तैनात दमन-उत्पीड़न का हथियार?

हैदराबाद में पिछले महीने जिस युवा स्त्री डॉक्‍टर के साथ दरिन्दगी हुई, उसके परिजन जब मदद के लिए पुलिस के पास गये तो 10 घण्टे तक पुलिस उन्हें यहाँ-वहाँ दौड़ाती रही। चारों ओर से हो रही थू-थू के बीच अचानक ख़बर आयी कि पुलिस ने घटना के चारों आरोपियों को मुठभेड़ में मार गिराया। पुलिस की बतायी कहानी साफ़ तौर पर फ़र्ज़ी एनकाउण्टर की ओर इशारा कर रही थी मगर फिर भी देश में मध्यवर्गीय सफ़ेदपोशों के साथ ही प्रगतिशील माने जाने वाले अनेक बुद्धिजीवी भी पुलिस की शान में क़सीदे पढ़ते हुए पाये गये।

अयोध्‍या फ़ैसला : क़ानून नहीं, आस्‍था के नाम पर बहुसंख्‍यकवाद की जीत

जब सुप्रीम कोर्ट ने अचानक अयोध्‍या मामले की रोज़ाना सुनवाई करना शुरू किया था तभी से यह लगने लगा था कि फ़ैसला किस तरह का होने वाला है। न्‍यायपालिका पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से मोदी सरकार की चाकर की तरह के रूप में काम कर रही है, उसे देखते हुए भी समझदार लोगों को किसी निष्‍पक्ष फ़ैसले की उम्‍मीद नहीं थी।

‘यूएपीए’ संशोधन बिल : काले कारनामों को अंजाम देने के लिए लाया गया काला क़ानून

हर बार ऐसे काले क़ानूनों को बनाने का मक़सद क़ानून-व्यवस्था और अमन-चैन क़ायम रखना बताया जाता है, लेकिन असलियत यह है कि शासक वर्गों को ऐसे काले क़ानूनों की ज़रूरत अपने शोषणकारी, और दमनकारी शासन के ख़ि‍लाफ़ उठने वाली आवाज़ों को बर्बरता से कुचलने के लिए पड़ती है। अब चूँकि केन्द्र में एक फ़ासीवादी सत्ता काबिज़ है, काले क़ानूनों को बेशर्मी से लागू करने के मामले में पुराने सारे कीर्तिमान ध्वस्त किये जा रहे हैं। मोदी सरकार अब कुख्यात ‘यूएपीए’ क़ानून में संशोधन करके अपनी फ़ासीवादी नीतियों का विरोध करने वालों को आतंकी घोषित करने की पूरी तैयारी कर चुकी है। इसीलिए इस संशोधन के बाद ‘यूएपीए’ को आज़ाद भारत के इतिहास का सबसे ख़तरनाक क़ानून कहा जा रहा है।