Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

क्रांतिकारी लोकस्‍वराज्‍य अभियान : भगतसिंह का सपना, आज भी अधूरा, मेहनतकश और नौजवान उसे करेंगे पूरा

सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्रान्ति का यह काम कुछ बहादुर युवा नहीं कर सकते। यह कार्य व्यापक मेहनतकश अवाम की गोलबन्दी और संगठन के बिना नहीं हो सकता है। यह आम जनता की भागीदारी के बिना नहीं हो सकता है। हम विशेषकर नौजवानों का आह्नान करेंगे कि वे इस अभियान से जुड़ें। इतिहास में ठहराव की बर्फ़ हमेशा युवा रक्त की गर्मी से पिघलती है। क्या आज के युवा अपनी इस ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी से मुँह चुरायेंगे?

लुधियाना में राजीव गाँधी कालोनी के हज़ारों मज़दूर परिवार बस्ती उजाड़ने के खि़लाफ़ संघर्ष की राह पर

इस कालोनी में दस हज़ार से अधिक परिवार रहते हैं। कालोनी निवासियों के राशन कार्ड, वोटर कार्ड, बिजली मीटर, आधार कार्ड बने हुए हैं। यहाँ धर्मशाला के निर्माण व अन्य कामों के लिए सरकारी ग्राण्टें भी जारी होती रही हैं। जब कारख़ाना मालिकों को ज़रूरत थी, तो यहाँ फ़ोकल प्वाइण्ट के बिल्कुल बीच सरकारी ज़मीन पर मज़दूर बस्ती बसने दी गयी। लोगों ने अपनी मेहनत से पक्के घर बना लिये। अब जब पूँजीपतियों को इस बेशक़ीमती ज़मीन की ज़रूरत आन पड़ी है, तो कालोनी तोड़ने की कोशिश की जा रही है।

आधार पर सरकारी ज़बर्दस्ती की वजह क्या है?

भ्रष्टाचार व चोरी को रोकने के नाम पर लाये गये आधार का अपना पूरा ढाँचा ही भ्रष्टाचार पर टिका है। 12 जुलाई के हिन्दुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार अब तक आधार बनाने वाली साढ़े 6 लाख एजेंसियों में से 34 हज़ार से अधिक को भ्रष्ट और जालसाजीपूर्ण गतिविधियों में लिप्त पाया गया है। इसमें फ़र्ज़ी दस्तावेज़ पर आधार बनाना, पैसा लेकर पता बदलना, आदि शामिल हैं। आधार बनवाने के लिए दिये गये दस्तावेज़ इनके पास ही छोड़ दिये गये हैं, जिनका दुरुपयोग करने में इनके ऊपर कोई रोकथाम नहीं है। इससे भी बढ़कर जो हाथ और आँखों की जैविक जानकारी आधार बनवाने के इन्होंने एकत्र की थी, प्रतिलिपि भी इनके पास ही छोड़ दी गयी है, जिसका इस्तेमाल ये दूसरों के नाम पर कर सकते हैं।

एमसीडी चुनावों में ‘क्रान्तिकारी मज़दूर मोर्चा’ की भागीदारी : एक राजनीतिक समीक्षा व समाहार

इन सारे कारकों के बावजूद क्रान्तिकारी मज़दूर मोर्चा ने दिल्ली नगर निगम के पूँजीवादी जनवादी चुनावों का क्रान्तिकारी प्रचार के लिए प्रभावी इस्तेमाल किया। क्रान्तिकारी मज़दूर पक्ष के लिए जीत-हार पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर होने वाले चुनावों में प्रमुख मुद्दा नहीं होता। प्रमुख मुद्दा होता है इस मंच का मज़दूर वर्ग के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष की नुमाइन्दगी के लिए और मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी प्रचार के लिए उपयोग करना; इसके ज़रिये मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश वर्ग के अधिकतम सम्भव हिस्से को इस या उस पूँजीवादी पार्टी का पिछलग्गू बनने से रोकना; मज़दूर वर्ग के दूरगामी क्रान्तिकारी लक्ष्य, यानी समाजवादी व्यवस्था के बारे में शिक्षण-प्रशिक्षण और प्रचार; और पूँजीवादी व्यवस्था की सीमाओं को आम मेहनतकश जनता के समक्ष उजागर करना और उसे एक आमूलगामी क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए तैयार करना। क्रान्तिकारी मज़दूर मोर्चा ने अपने पहले और सीखने के प्रयोग में इन सारे कार्यभारों को पूरा करने का प्रयास किया है। इस प्रयोग में तमाम कमियाँ भी रही हैं, जिन्हें निरन्तर जनसंघर्षों में भागीदारी के साथ दूर किया जायेगा और आगामी पूँजीवादी चुनावों में इससे बेहतर प्रदर्शन की ज़मीन तैयार की जायेगी।

नया वित्त विधेयक : एक ख़तरनाक क़ानून

बुर्जुआ जनतन्त्र में जैसा प्रचार किया जाता है, सारी जनता के लिए जनतन्त्र वैसा होता नहीं। असल में तो यह मेहनतकश लोगों पर बुर्जुआ अधिनायकत्व है, सत्ताधारी पूँजीपति वर्ग द्वारा मज़दूर वर्ग के शोषण की व्यवस्था की हिफ़ाज़त का औज़ार है। यह पूँजीपति वर्ग की ज़रूरत के मुताबिक़ ही काम करता है – जब जनतन्त्र का नाटक करना हो तो वह किया जाता है; जब संकट की स्थिति में जनतन्त्र का नाटक छोड़कर मेहनतकश तबके पर फासीवाद का नग्न आक्रमण करना हो तो यही संवैधानिक व्यवस्था बिना किसी रुकावट के उसकी भी पूरी इजाज़त देती है।

मारुति मज़दूरों के केस का फ़ैसला : पूँजीवादी व्यवस्था की न्याय व्यवस्था का बेपर्द नंगा चेहरा

इस फ़ैसले ने पूँजीवादी न्याय व्यवस्था के नंगे रूप को उघाड़कर रख दिया है! यह तब है जब हाल ही में अपने जुर्म कबूलने वाले असीमानन्द और अन्य संघी आतंकवादियों को ठोस सबूत होने और असीमानन्द द्वारा जुर्म कबूलने के बाद भी बरी कर दिया जाता है। ये दोनों मुक़दमे बुर्जुआ राज्य के अंग के रूप में न्याय व्यवस्था की हक़ीक़त दिखाते हैं। यह राज्य व्यवस्था और इसलिए यह न्याय व्यवस्था पूँजीपतियों और उनके मुनाफ़े की सेवा में लगी है, मज़दूरों को इस व्यवस्था में न्याय नहीं मिल सकता है। मारुति के 148 मज़दूरों पर चला मुक़दमा, उनकी गिरफ़्तारी और 4 साल से भी ज़्यादा जेल में बन्द रखा जाना इस पूँजीवादी न्यायिक व्यवस्था के चेहरे पर लगा नकाब पूरे तरह से उतारकर रख देता है। यह साफ़ कर देता है कि मारुति के 31 मज़दूरों को कोर्ट ने इसलिए सज़ा दी है ताकि तमाम मज़दूरों के सामने यह मिसाल पेश की जा सके कि जो भी पूँजीवादी मुनाफ़े के तंत्र को नुक्सान पहुँचाने का जुर्म करेगा उसे बख़्शा नहीं जायेगा।

आधार : लूटतन्त्र की रक्षा के लिए जनता पर निगरानी और नियन्त्रण का औज़ार

आधार, कैशलेस और डिजिटल के मेल से सत्ताधारियों के लिए किसी भी जनसमूह के जीवन को नियन्त्रित ही नहीं पूरी तरह बाधित करने की भी शक्ति मिल जायेगी। अभी ही हम विभिन्न स्थानों पर मोबाइल या इण्टरनेट बन्द कर देने की ख़बरें पढ़ते हैं। लेकिन इसके बाद सत्ता के लिए मुमकिन होगा पूरे समूहों के तमाम सम्पर्कों को काट देना, उनके खातों पर रोक लगाकर उनके साधनों से, कुछ ख़रीद पाने तक से रोक देना, अर्थात जीवन की ज़रूरी सुविधाओं से वंचित करना। ख़ासतौर पर भारत की धर्म, जाति, आदि पूर्वाग्रहों-नफ़रत आधारित शासक वर्ग की राजनीतिक ताक़तों और उनके संरक्षण वाले गिरोहों के हाथ में ऐसे केन्द्रीय डाटा भण्डार बहुत ख़तरनाक सिद्ध हो सकते हैं। यह भी याद रखना चाहिए कि 1984 में दिल्ली और 2002 में गुजरात दोनों जगह शासक पार्टियों ने पुलिस-प्रशासन के संरक्षण में जिन भयानक हत्याकाण्डों को अंजाम दिया था, उनमें चुन-चुनकर व्यक्तियों और उनकी सम्पत्ति को निशाना बनाया गया था और इसमें वोटर लिस्ट और अन्य सरकारी जानकारियों का इस्तेमाल हुआ था।

नकली देशभक्ति का शोर और सेना के जवानों की उठती आवाज़ें

इंसाफ़ और न्याय की इज़्ज़त करने वाले हर भारतीय का यह फ़र्ज़ बनता है कि वे यह देखें कि भारत की सेना के सिपाही की वर्दी के पीछे मज़दूर-किसान के घर से आने वाला एक ऐसा नौजवान खड़ा है जिसका इस्तेमाल उसी के वर्ग भाइयों के प्रतिरोध को कुचलने के लिए किया जाता है और बदले में वह अपने अफ़सरों के हाथों स्वयं वर्ग-उत्पीड़न का शिकार भी बनता है। आवाज़ उठाने वाले सैनिकों को देशभक्ति और देशद्रोही के चश्मे से देखना बन्द कर दिया जाना चाहिए और उनकी हर जायज़ जनवादी माँग का समर्थन करते हुए भी उनकी सेना के हर जनविरोधी दमनकारी कार्यवाही का डटकर पर्दाफ़ाश और विरोध किया जाना चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ‘समान काम के लिए समान वेतन’ का फ़ैसला लेकिन देश की बहुसंख्यक मज़दूर आबादी को इससे हासिल होगा क्या?

एक अन्य महत्वपूर्ण मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने ‘समान काम के लिए समान वेतन’ के सिद्धान्त को नज़रअन्दाज़ किया है। 2007 में ‘कर्नाटक राज्य बनाम अमीरबी’ मामले में फ़ैसला सुनाते हुए कोर्ट ने आँगनवाड़ी में काम करनेवाली महिलाओं को राज्य सरकार के कर्मचारी होने का दर्जा और इसके परिणामस्वरूप मिलनेवाली सुविधाएँ देने से साफ़ इन्कार कर दिया। इस फ़ैसले में समेकित बाल विकास योजना के तहत काम करनेवाली इन आँगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के काम की प्रकृति को स्वैच्छिक बताया गया जिन्हें वेतन की जगह मानदेय मिलता है। और इसलिए ये सब सरकार की नियमित कर्मचारी नहीं बन सकतीं। इस फ़ैसले के पीछे काम करनेवाला तर्क यह है कि ये स्त्री कामगार महज़ ‘‘नागरिक पद’’ पर कार्यरत हैं क्योकि अदालत के अनुसार तो बच्चों के पालन-पोषण का काम रोज़गार होता ही नहीं। और वैसे भी यह काम सिर्फ़़ महिलाओं द्वारा ही किया जा रहा है इसलिए पुरुषों द्वारा किये जानेवाले पूर्णकालिक नियमित रोज़गार से इसकी तुलना नहीं की जा सकती! स्त्रियों के काम के प्रति यह नज़रिया कितना भ्रामक और गहराई से जड़ें जमाये हुए है, यह इस फ़ैसले से साफ़ हो जाता है।

पंजाब सरकार एक और काला कानून ‘पकोका’ लाने की तैयारी में

सरकार असुरक्षा के डर से भविष्य की तैयारी के लिए लोगों की सरकार खिलाफ आवाज़ को दबाने के लिए सीधा लोगों को ही अपराधी करार देकर उनकी आवाज़ हमेशा के लिए बंद करने वाले काले कानून को लोगों पर सुरक्षा के नाम से थोपना चाहती है। इसलिए हमें अपने जनवादी हकों की रक्षा के लिए सरकार द्वारा विचारे जा रहे इस काले कानून का डट कर विरोध करना चाहिए।