Category Archives: राष्ट्रीय प्रश्न

कश्मीर के भारतीय औपनिवेशिक क़ब्ज़े पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर

आरएसएस ने पिछले सौ वर्षों में तमाम संस्थानों में अपनी पैठ जमायी है जिसमें न्यायपालिका प्रमुख है। इसने न्यायाधीशों से लेकर तमाम पदों पर अपने लोगों की भर्ती की है जिसके नतीजे के तौर पर आज हमें न्यायपालिका का साम्प्रदायिक चेहरा नज़र आ रहा है। आज संघ ने न्यायपालिका को भी संघ के प्रचार और फ़ासीवादी एजेण्डे को लागू करने का एक औजार बना दिया है। फ़ासीवाद की यह एक चारित्रिक अभिलाक्षणिकता होती है कि वह तमाम सरकारी व गैर सरकारी संस्थानों में अपनी पैठ जमाता है और इनके तहत अपने फ़ासीवादी एजेण्डे को पूरा करता है।

मणिपुर में बर्बरता के लिए कौन है ज़िम्मेदार?

सबसे विडम्बनापूर्ण स्थिति यह है कि जो मैतेयी जुझारू संगठन मणिपुर में भारतीय राज्यसत्ता द्वारा किये जा रहे राष्ट्रीय उत्पीड़न के ख़िलाफ़ संघर्षरत रहे हैं उनमें से भी कई कुकी आदिवासियों के ख़िलाफ़ की जा रही हिंसा में भी शामिल हैं और उसे जायज़ ठहरा रहे हैं। यह मणिपुरी क़ौम के राष्ट्रीय मुक्ति के आन्दोलन में प्रतिक्रियावाद और अन्धराष्ट्रवाद के असर को दिखा रहा है जोकि अच्छा संकेत नहीं है। सर्वहारा वर्ग उत्पीड़ित राष्ट्रों के राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रगतिशील व जनवादी पहलू का समर्थन करता है और इसलिए हम मैतेयी, कुकी व नगा सहित उत्तर-पूर्व के सभी उत्पीड़ित क़ौमों के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करते हैं। परन्तु हम उत्पीड़ित राष्ट्रों के राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रतिक्रियावादी व अन्धराष्ट्रवादी पहलू की पुरज़ोर मुख़ालफ़त करते हैं।

मणिपुर में जारी हिंसा : भारतीय राज्यसत्ता के राष्ट्रीय दमन और हिन्दुत्व फ़ासीवाद के नफ़रती प्रयोग की परिणति

मणिपुर की हालिया हिंसा में एक नया कारक मणिपुर में संघ परिवार व भाजपा की बढ़ती मौजूदगी और उसके नफ़रती फ़ासिस्ट प्रयोग का रहा है। ग़ौरतलब है कि मणिपुर में 2017 से ही भाजपा की सरकार है जिसका इस समय दूसरा कार्यकाल चल रहा है। पिछले छह वर्षों में संघ परिवार ने सचेतन रूप से मणिपुर में मैतेयी राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने और उसे हिन्दुत्ववादी भारतीय राष्ट्रवाद से जोड़ने के तमाम प्रयास किये हैं। हाल के वर्षों में ऐसी अनेक संस्थाएँ अस्तित्व में आयी हैं जो मैतेयी लोगों के हितों की नुमाइन्दगी करने के नाम पर खुले रूप में मणिपुर की अन्य जनजातियों, जैसे कुकी और नगा के प्रति घृणा का माहौल पैदा कर रही हैं।

कश्मीर में अल्पसंख्यकों और प्रवासी मज़दूरों की हत्या की बढ़ती घटनाएँ

कहने की ज़रूरत नहीं कि इस प्रकार निर्दोषों की लक्षित हत्या की बदहवास कार्रवाइयों को किसी भी रूप में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है और अन्ततोगत्वा ये कार्रवाइयाँ कश्मीरियों के आत्मनिर्णय की न्यायसंगत लड़ाई को कमज़ोर करने का ही काम करती हैं। परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन हत्याओं के लिए सीधे तौर पर हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्टों के नेतृत्व में लागू की जा रही भारतीय राज्य की तानाशाहाना नीतियाँ ही ज़िम्मेदार हैं क्योंकि ये नीतियाँ ही वे हालात पैदा कर रही हैं जिसकी वजह से कुछ कश्मीरी युवा बन्दूक़ उठाकर निर्दोषों का क़त्ल करने से भी नहीं हिचक रहे हैं। इसलिए कश्मीर में शान्ति क़ायम करने की मुख्य ज़िम्मेदारी भारतीय राज्य के कन्धों पर है जिसे पूरा करने में वह नाकाम साबित हुआ है।

भारतीय राज्य द्वारा कश्मीरी क़ौम के दमन के इस नये क़दम से क्या बदले हैं कश्मीर के सूरतेहाल?

इस साल 5 अगस्त को मोदी सरकार द्वारा कश्मीर में अनुच्छेद 370 और 35 ए को हटाये जाने के दो साल पूरे हो गये और साथ ही जम्मू-कश्मीर राज्य को तीन टुकड़ों में बाँटे जाने और केन्द्रशासित प्रदेश में तब्दील किये जाने के भी दो साल पूरे हो गये। भारतीय राज्यसत्ता द्वारा कश्मीरी क़ौम से किये गये अनगिनत विश्वासघातों की लम्बी फेहरिस्त में 5 अगस्त, 2019 को तब एक नयी कड़ी जुड़ गयी थी जब केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में अनुच्छेद 370 और 35 ए निरस्त करने की घोषणा की थी।

असम-मिज़ोरम विवाद के मूल कारण क्या हैं?

हाल में भारत के दो उत्तर-पूर्वी राज्य असम-मिज़ोरम के बीच सीमा-विवाद से जुड़ा हुआ घटनाक्रम काफ़ी सुर्ख़ियों में रहा। उत्तर-पूर्व का नाम सुनकर हममें से कुछ को लग सकता है कि इतनी दूर-दराज़ की घटना से हम मज़दूरों-मेहनतकशों का सरोकार भला क्यों होना चाहिए! इसलिए होना चाहिए क्योंकि यह भी मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी राजनीति को समझने और जानने के लिए आवश्यक है। किसी भी रूप में दबायी जा रही या उत्पीड़‍ित हो रही जनता और उसकी समस्याओं और संघर्षों से सरोकार रखे बिना मज़दूर वर्ग व्यापक मेहनतकश जनता की क्रान्तिकारी एकता क़ायम नहीं कर सकता है।