Category Archives: श्रम क़ानून

सेठों को मज़दूर की लूट की छूट देने में सारी पार्टियाँ एक हैं!

कोरोना संकट ने एक बार फिर यह उजागर कर दिया कि इस पूँजीवादी व्यवस्था का असली चरित्र क्या है। सरकार ने एक ओर जहाँ आनन-फ़ानन में बिना किसी तैयारी के लॉकडाउन करके करोड़ो मज़दूरों को अपने हाल मरने के लिए छोड़ दिया, तो वहीं अब ‘अर्थव्यवस्था बचाने’ के नाम पर मज़दूरों की सुरक्षा और पहले से जर्जर श्रम क़ानूनों में अहम बदलाव कर उन्हें और कमज़ोर रही है।

कोरोना के बहाने मज़दूर-अधिकारों पर मोदी सरकार की डकैती

कोरोना महामारी के कारण पहले से ही डगमगा रही वैश्विक अर्थव्यवस्था जिस गहरी मन्‍दी में धँसने की ओर जा रही है उसमें पूँजीपति वर्ग का मुनाफ़ा ना मारा जाये इसके लिए दुनिया भर में सरकारों द्वारा मजदूरों के बचे खुचे-सारे अधिकार खत्म किये जा रहे हैं। दुनिया भर में तमाम दक्षिणपंथी, फासीवादी सत्ताएँ ऐसे ही कड़े कदम ले रही हैं। भारत में भी मोदी सरकार पूरी नंगई के साथ अपनी मज़दूर विरोधी और पूँजीपरस्त नीतियों को लागू करने में लगी हुई है। कोविड-19 महामारी की वजह से देश की अर्थव्यवस्था का जो नुकसान हुआ है, उसका हर्जाना यह सरकार मज़दूर वर्ग से वसूलेगी।

दिल्‍ली विधानसभा चुनाव 2020 में फिर से आम आदमी पार्टी की जीत के मायने: एक मज़दूर वर्गीय नज़रिया

जिन्‍होंने भी केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के पूरे चुनाव अभियान को क़रीबी से देखा है, वह अच्‍छी तरह जानते हैं कि भाजपा के हिन्‍दुत्‍ववादी फ़ासीवाद के एजेण्‍डे के बरक्‍स, अरविन्‍द केजरीवाल ने कोई सही मायनों में सेक्‍युलर, जनवादी और प्रगतिशील एजेण्‍डा नहीं रखा था। उल्‍टे केजरीवाल ने ‘सॉफ़्ट हिन्‍दुत्‍व’ का कार्ड खेला। अपने आपको हिन्‍दू, हनुमान-भक्‍त आदि साबित करने में केजरीवाल ने कोई कसर नहीं छोड़ी। साथ ही, कश्‍मीर में 370 हटाने पर मोदी को बधाई देने से लेकर, जामिया और जेएनयू पर हुए पुलिसिया अत्‍याचार और शाहीन बाग़ और सीएए-एनआरसी-एनपीआर जैसे सबसे ज्‍वलन्‍त और व्‍यापक मेहनतकश आबादी को प्रभावित करने वाले प्रमुख मसलों के सवाल पर चुप्‍पी साधे रहने तक, केजरीवाल और आम आदमी पार्टी ने मोदी-शाह-नीत भाजपा के कोर एजेण्‍डा से किनारा काटकर निकल लेने (सर्कमवेण्‍ट करने) की रणनीति अपनायी। तात्‍कालिक तौर पर, इस रणनीति का फ़ायदा आम आदमी पार्टी को मिला है।

देशभर में होने जा रही 8 जनवरी की आम हड़ताल के प्रति हमारा नज़रिया क्या हो?

अगर केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें केन्द्र व राज्य सरकार के मज़दूर-विरोधी संशोधानों को सच में वापस करवाने की इच्छुक हैं तो क्या इन्हें इस हड़ताल को अनिश्चितकाल तक नहीं चलाना चाहिए? यानी कि तब तक जब तक सरकार मज़दूरों से किये अपने वायदे पूरे नहीं करती और उनकी माँगों के समक्ष झुक नहीं जाती है।

मज़दूर-विरोधी नीतियों को धड़ल्ले से लागू करने में जुटी मोदी सरकार का पूँजीपतियों को नया तोहफ़ा!

श्रम क़ानूनों पर मोदी सरकार के हमले जारी हैं। केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने 20 नवम्बर को औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता (लेबर कोड ऑन इण्डस्ट्रियल रिलेशन्स) को मंज़ूरी दे दी है जिससे अब कम्पनियों को मज़दूरों को किसी भी अवधि के लिए ठेके पर नियुक्त करने का अधिकार मिल गया है। इसे फ़िक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेण्ट का नाम दिया गया है।

दिल्ली में केजरीवाल सरकार द्वारा न्यूनतम मज़दूरी में काग़ज़ी बढ़ोत्तरी

दिल्ली में केजरीवाल सरकार द्वारा न्यूनतम मज़दूरी में काग़ज़ी बढ़ोत्तरी दिल्ली में सत्तासीन केजरीवाल सरकार ने बड़े ज़ोरशोर से एक प्रेस वार्ता के माध्यम से घोषणा की कि अब दिल्ली…

मोदी सरकार द्वारा श्रम क़ानूनों में किये गये मज़दूर-विरोधी बदलावों के मायने

मोदी सरकार ने पिछले कार्यकाल से ही जनता के अधिकारों पर हमले करते हुए कई क़ानूनों में बदलाव किये थे। इन हमलों में सबसे बड़ा निशाना देश की मज़दूर आबादी रही है। श्रम क़ानूनों को लचीला कर मालिकों के हक़ में करने की प्रक्रिया में मोदी सरकार ने 44 श्रम क़ानूनों को ख़त्म करने का फ़ैसला लिया है। इन 44 श्रम क़ानूनों की जगह अब 4 श्रम संहिताएँ (लेबर कोड) – मज़दूरी संहिता, औद्योगिक सुरक्षा और कल्याण संहिता, सामाजिक सुरक्षा संहिता और औद्योगिक सम्बन्ध संहिता – लागू की जायेंगी। मोदी सरकार के इस फ़ैसले को मज़दूर हित में लिया फ़ैसला साबित करने के लिए भाजपा के नेता और दलाल मीडिया एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाये हुए हैं। श्रम संहिताओं के प्रचार का बीड़ा उठाये केन्द्रीय श्रम और रोज़गार मन्त्री संतोष गंगवार वही महानुभाव हैं जिनका मानना है कि देश में ‘बेरोज़गारी’ कोई मसला ही नहीं है और यह कि उत्तर भारत में ‘नौकरी की नहीं, योग्य लोगों की कमी है’। ज़ाहिर है ये श्रम संहिताएँ मन्दी के इस दौर में मज़दूरों की हितों की नुमाइन्दगी करने के लिए नहीं बल्कि उनके श्रम की लूट को और आसान बनाने को क़ानूनी जामा पहनाना मात्र हैं।

वेतन संहिता अधिनियम 2019 – मज़दूर अधिकारों पर बड़ा आघात

संघी सरकार सत्ता में दोबारा आते ही मुस्तैदी से अपने पूँजीपति आकाओं की सेवा में लग गयी है। पूँजीपतियों के हितों वाले विधेयक संसद में धड़ाधड़ पारित किये जा रहे हैं। सूचना-अधिकार संशोधन और यूएपीए संशोधन जैसे विधेयकों से एक तरफ़ आम अवाम की आवाज़ पर शिकंजे कसने की कोशिश की गयी है, दूसरी तरफ़ वेतन संहिता विधेयक से उनके न्यूनतम वेतन सम्बन्धी अधिकारों को एक तरह से ख़त्म ही कर दिया गया है। इसके अलावा मज़दूरों पर हर तरह से नकेल कसने के लिए और उनकी ज़िन्दगियों को पूरी तरह से मालिकों के रहमोकरम पर छोड़ देने के लिए ‘व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थल स्थिति विधेयक’ भी पेश किया जा चुका है, जबकि औद्योगिक सम्बन्ध और सामाजिक सुरक्षा से सम्बन्धित बिल पेश किये जाने बाक़ी हैं। व्यवसाय में सुलभता के लिए सरकार ने 44 केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को इन्हीं चार श्रम संहिताओं में बाँधने का फ़ैसला किया है।

अम्बेडकरनगर के ईंट-भट्ठों में भयंकर शोषण-उत्पीड़न के शिकार मज़दूर

अम्बेडकरनगर ज़िले के थानाक्षेत्र राजेसुल्तानपुर के आस पास सैकड़ों की संख्या में तथा ज़िले में हज़ारों की संख्या में ईंट-भट्ठे के उद्योग हैं। इन ईंट-भट्ठों पर काम करने वाले बहुत से मज़दूर बाहर से छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखण्ड, बिहार तथा उत्तर प्रदेश के अन्य जि़लों रायबरेली, पीलीभीत से अपने पूरे परिवार सहित काम के लिए आते हैं। आसपास के गाँवों के भी बहुत से लोग इन ईंट-भट्ठों पर काम करते हैं।

सरकारी रिपोर्ट से भी उजागर हुए लगातार ख़राब होते मज़दूरों के हालात

शोषण और मुनाफ़े पर टिकी इस व्यवस्था, जिसमें मज़दूर और मेहनतकश आबादी हमेशा बदहाल ही होती है, की असलियत आये दिन हमारे सामने आती रहती है। हाल ही में आयी केन्द्र सरकार की एक रिपोर्ट ‘पीरियॉडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे’ (पी.एल.एफ.एस.) भारत में मज़दूरों की स्थिति की भयानक तस्वीर पेश कर रही है।